अधिकार नहीं ज़रूरत बने आरक्षण व्यवस्था

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निर्मल रानी
हमारे देश में नौकरी,पदोन्नति,शिक्षण संस्थाओं में दाख़िला तथा संसदीय निर्वाचन व्यवस्था जैसे और भी कई क्षेत्रों में लागू की गई जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था को लेकर देश में कई बार हालात बेक़ाबू होते देखे गए हैं। कभी आरक्षण के पक्षधर आरक्षण की मांग को लेकर या आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने अथवा इसे लागू करने के क्षेत्र में विस्तार की मांगों को लेकर सडक़ों पर उतरते देखे जाते हैं तो कभी इसका विरोध करने वाला वह तबका जो स्वयं को आरक्षण व्यवस्था से प्रभावित होता समझता है वह वर्ग प्रदर्शन की राह अख़्तियार करते देखा जाता है। ग़ौरतलब है कि हमारे देश में आरक्षण की शुरुआत ब्रिटिश शासनकाल में सर्वप्रथम 1933 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रमसे मैकडोनेल्ड द्वारा की गई थी। और इसे जाति आधारित पुरस्कार का नाम दिया गया था। शुरुआत में इसका मक़सद केवल विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में जाति के आधार पर लोगों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना मात्र था। ब्रिटिश प्रधानमंत्री मेकडोनल्ड द्वारा जाति आधारित इस पुरस्कार की श्रेणी में जिन समुदाय के लोगों को शामिल किया गया उनमें मुसलमान,सिख,भारतीय इसाई,एंग्लों इंडियन,यूरोपियन तथा दलित समाज के लोग शामिल थे। यह कथित ‘पुरस्कार’ प्रारंभ से ही अत्यंत विवादित रहा। यहां तक कि महात्मा गांधी ने भी इस व्यवस्था का ज़बरदस्त विरोध किया तथा इसके विरुद्ध अनशन पर भी बैठे। जबकि दूसरी ओर इस व्यवस्था को भारत के अल्पसंख्यक समुदाय सहित डा० बी आर अंबेडकर जैसे नेताओं का समर्थन हासिल हुआ। महात्मा गांधी व डा० अंबेडकर के मध्य कई दौर चली लंबी वार्ताओं के बाद यह दोनों नेता कई बिदुओं पर समझौते व इसमें किए गए कई संशोधनों के बाद इस व्यवस्था को लागू करने पर सहमत हो गए।
निश्चित रूप से इस व्यवस्था को लागू करने के पीछे स्वतंत्रता पूर्व भी तथा सवतंत्रता के पश्चात भी देश के शासक वर्ग की मंशा यही थी कि भारत का अल्पसंख्यक,दबा-कुचला,अपेक्षित,अछूत व दलित समाज इस व्यवस्था के माध्यम से अपनी आवाज़ बुलंद कर सके और स्वयं को ऊपर उठा सके। आरक्षण के माध्यम से यह वर्ग समाज में reservationआर्थिक,सामाजिक,राजनैतिक व शैक्षिक रूप से अन्य कथित अगड़ी जातियों के बराबर आ सके। परंतु दुर्भाग्य की बात यह है कि जहां समय बीतने के साथ-साथ इस व्यवसथा को आरक्षित समाज ने अपना अधिकार समझना शुरु कर दिया वहीं अनारक्षित वर्ग से संबंध रखने वाला अथवा सामान्य श्रेणी का ग़रीब,अशिक्षित,बेरोज़गार,असहाय तथा अपेक्षित वर्ग इस व्यवस्था से स्वयं को प्रभावित होता हुआ समझने लगा। और दूसरी ओर विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा मात्र अपने वोट बैंक साधने के उद्देश्य से आरक्षण व्यवस्था को और अधिक बढ़ाने या दूसरे कई क्षेत्रों में इसका विस्तार किए जाने का कार्य जारी रखा गया। देश कभी भी मंडल कमीशन के लागू होने के समय आरक्षण को लेकर उपजे उस छात्र आंदोलन को कभी नहीं भूल सकता जिसने कई छात्रों की क़ुर्बानी ले ली थी। आज एक बार फिर गुजरात में पटेल समुदाय के लोगों द्वारा आरक्षण की मांग को लेकर उसी प्रकार का तांडव किया जा रहा है। आरक्षण की इस आग में पिछले दिनों जहां लगभग एक दर्जन लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा वहीं अरबों रुपये की संपत्ति भी इस हुड़दंग में स्वाहा हो गई। इस बार का गुजरात से शुरु हुआ आरक्षण आंदोलन विभिन्न समुदायों के पिछले अन्य आरक्षण संबंधी आंदोलनों की तुलना में काफी अलग है। क्योंकि जहां यह आंदोलन शुरु होते ही अचानक पटेल समुदाय का अभूुतपूर्व समर्थन हासिल करने में कामयाब रहा वहीं इस आंदोलन से जुड़ी भारी हिंसा व मौतों ने अन्य अनारक्षित अर्थात् सामान्य श्रेणी के लोगों में गुस्से की लहर पैदा कर दी। हालांकि कई राजनैतिक विशलेषक इस पूरे आंदोलन को एक पूर्व नियोजित सोची-समझी साजि़श का हिस्सा भी बता रहे हैं। ऐसे लेागों का मानना है कि पटेल समुदाय का यह आंदोलन अपने लिए आरक्षण मांगने के लिए नहीं बल्कि देश में चल रही अन्य जातियों की आरक्षण व्यवस्था को समाप्त करने के उद्देश्य से चलाया जा रहा है।
पंरतु इस विषय पर चिंतन करने के बजाए इस बात पर विचार-विमर्श करना एक बार फिर ज़रूरी है कि आरक्षण की व्यवस्था हमारे देश के संविधान निर्माताओं द्वारा जिस मकसद से की गई थी क्या वह मक़सद उन्हींं आकांक्षाओं व इच्छाओं के अनुरूप पूरा हो चुका है? यदि नहीं तो ऐसे क्या उपाय अपनाए जाने चाहिए जिनसे हमारे राष्ट्र के शुभचिंतकों का मक़सद पूरा हो सके। और साथ-साथ यह सोचना भी ज़रूरी है कि यह व्यवस्था हमारे समाज के ही सामान्य श्रेणी के अन्य उन लोगों को भी प्रभावित न करने पाए जो आर्थिक लिहाज़ से पिछड़े हुए हैं। यानी यदि आरक्षण का मकसद आर्थिक रूप से कमज़ोर व दबे-कुचले समाज को ऊपर उठाना ही है तो आख़िर दबा-कुचला वर्ग देश की किस जाति व किस समुदाय में नहीं है? ग़रीबी या आर्थिक कमज़ोरी आख़िरकार धर्म अथवा जाति देखकर तो नहीं आती? अब रहा सवाल जाति आधारित आरक्षण का तो क्या यह सच नहीं कि जाति के नाम पर आरक्षण की व्यवस्था का लाभ भी स्वतंत्रता के समय से ही आरक्षित जाति के ही उन्हीं लोगों को प्राय: मिलता आ रहा है जो अपने समाज में रसूखदार,संपन्न,तेज़-तर्रार,चतुर बुद्धि तथा आर्थिक रूप से पहले से ही मज़बूत हैं। जिन्हें हम सामाजिक भाषा में आरक्षित समाज की क्रीमी लेयर का नाम देते हैं। यदि हम नज़र डालें तो यही देखेंगे कि विभिन्न राजनैतिक दलों में आरक्षित समाज से संबंध रखने वाले मंत्री,सांसद अथवा विधायक आरक्षण की कश्ती पर सवार होकर स्वयं संपन्न होने के बाद अपने ही समाज के किसी दूसरे दबे-कुचले व्यक्ति को ऊपर उठाने के बजाए अपने ही पुत्रों या अपनी पत्नी अथवा अन्य रिश्तेदारों को भी राजनैतिक रूप से स्थापित करने की एकसूत्रीय मुहिम में जुट जाते हैं। यही हाल आरक्षित समाज से जुड़े अधिकाारी वर्ग का भी है। यानी कि आरक्षित समाज के यदि किसी एक व्यक्ति ने लोकसेवा आयोग की परीक्षा पास कर आईएएस अथवा आईपीएस में अपना स्थान बना लिया तो उसे अगली चिंता इस बात की हो जाती है कि वह अब किस तरह अपने बेटों व बेटियों को भी आईएएस बना सके। उस अधिकारी की संतानों को भी आरक्षण के नाम पर सारी सुविधाएं मिलती रहती हैं और ज़ाहिर है कि इसका लाभ उठाकर वह आसानी से चयनित भी हो जाती हैं।
यानी शिक्षण संस्थाओं में दाख़िले से लेकर नौकरी पाने तक उसके पश्चात नौकरी में पदोन्नति तक हर जगह आरक्षित समाज का व्यक्ति बराबर लाभान्वित होता रहता है। और अनारक्षित अथवा सामान्य श्रेणी का ज़रूरतमंद व दबा-कुचला वर्ग अपनी तथाकथित उच्च जाति को लेकर मुंह ताकता रह जाता हैं। और निश्चित रूप से यही वजह है कि जो जातियां स्वयं को उच्च जाति का कहलाने में गर्व महसूस किया करती थीं आज महज़ नौकरी व दूसरी सरकारी सुविधाओं को पाने की खातिर वही जातियां स्वयं को पिछड़ी व आरक्षण की श्रेणी में आने वाली जातियां कहलाने के लिए बेताब दिखाई दे रही हैं। गोया आरक्षण को लेकर विभिन्न जातियों के मध्य प्रतिस्पर्धा और ईष्र्या का वातावरण उत्पन्न होने लगा है। ज़ाहिर है ऐसा माहौल देश के सामाजिक ताने-बाने के हित में नहीं है। आरक्षण निश्चित रूप से एक ज़रूरी चीज़ है। इसे हम छोटे पारिवारिक स्तर पर भी इस नज़रिए से देख सकते हैं कि यदि हमारे परिवार का कोई सदस्य कमज़ोर हो तो उसी परिवार के चार अन्य सदस्य अपने हिस्से की सुविधाओं की क़ुर्बानी देकर कमज़ोर सदस्य को मज़बूत करने की कोशिश करते हैं। आज पूरे देश में कहीं ग़रीब कन्याओं के विवाह कराए जाते हैं तो कहीं बच्चों को मुफ्त शिक्षा व किताबें आदि देने का काम विभिन्न संस्थाओं द्वारा किया जाता है। कोई गरीबों को मुफ़्त कपड़ा-खाना देता दिखाई देता है तो कोई अस्पतालों में दवाईयां बांटता या फल,दूध या खाना वितरित करता दिखाई देता है। गोया उपकार करना हमारे समाज की फ़ितरत में शामिल है। यह उपकार प्रत्येक ज़रूरतमंद के साथ उसकी आर्थिक स्थिति को देखकर किया जाना चाहिए। न कि उसकी जाति व धर्म को मद्देनज़र रखते हुए। आज आरक्षण की व्यवस्था को लेकर हमारे देश में बदअमनी व बेचैनी का जो वातावरण बनता देखा जा रहा है उसके लिए शत-प्रतिशत देश की वोट बैंक की राजनीति व ऐसी राजनीति करने में महारत रखने वाले नेतागण ही ज़िम्मेदार हैं। देश के अधिकांश नेता आपको ऐसे मिलेंगे जो बंद कमरों में बैठकर या ऑफ़ द रिकॉर्ड इस बात को स्वीकार करेंगे कि आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए जाति आधारित नहीं। परंतु जब यही नेता किसी जाति विशेष के समूह में वोट मांगने के लिए जाते हैं तो उनके सामने तमामक़िस्म की लोकलुभावनी व उस समाज का तुष्टीकरण करने वाली बातें करने लग जाते हैं। इन्हीं में आरक्षण का लॉलीपाप भी ऐसे नेता जगह-जगह बांटते रहते हैं। लोकलुभावन राजनीति तथा अपने नीचे से वोट बैंक खिसकने के डर से ही ऐसे नेता सार्वजनिक रूप से जाति विरोधी आरक्षण का विरोध भी नहीं कर पाते। लिहाज़ा आरक्षण की व्यवस्था को जाति आधारित अधिकार रूपी व्यवस्था के चंगुल से बाहर निकालने की तथा सभी धर्मों व जातियों के ज़रूरतमंद लोगों को इसकी सुविधा दिलाए जाने की ज़रूरत है। और किसी भी समाज का कोई भी व्यक्ति अथवा परिवार जो आर्थिक बदहाली से उबर चुका हो उसे आरक्षण की सुविधा से वंचित कर दिया जाना चाहिए।

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