आशुतोष शर्मा, पुंछ
भारत पाकिस्तान के बीच एक बार फिर सीमा पर बढ़े तनाव का असर उसके रिश्ते पर भी नजर आने लगा है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का स्पष्टे शब्दों में संबंध असामान्य होने की चेतावनी ने सर्दी के इस मौसम में भी तपिश बढ़ा दी है। वहीं दोनों देशों द्वारा बुजुर्गों को बार्डर पर ही वीज़ा जारी करने की प्रक्रिया को भी प्रभावित किया है। रिश्तेो की इस कड़वाहट ने पचासी वर्षीय महिला बेगम जान को भी हैरान और परेशान कर दिया है। पाकिस्तान की सीमा से सटे पुंछ स्थित मेंढ़र गांव की रहने वाली बेगम जान इसलिए भी परेशान हैं क्योंकि उनकी बेटी फातिमा बेगम सरहद पार रहती है और इस समय उनसे मिलने पुंछ-रावलाकोट बस सर्विस के माध्यम से उनसे मिलने आने वाली थी। मेंढ़र भारत का एक गुमनाम किनारा है जो हाल ही में इसलिए सुर्खियों में आया क्योंकि यहां भारतीय सीमा के भीतर दो भारतीय सैनिकों की नृशंस हत्या कर दी गई। इसके कारण सीमा के दोनों तरफ रहने वाले बेगम जान जैसे हजारों लोगों की आशाओं को जबरदस्त धक्का लगा है।
इस अफसोसनाक घटना के कारण न सिर्फ नियंत्रण रेखा के दोनों ओर होने वाला व्यापार और बस सेवा प्रभावित हुआ है बल्कि आशंकाओं के बादल ने सीमा के दोनों ओर रहने वाले परिवारों के अलावा शांतिप्रिय शहरियों की उम्मीदों को भी तोड़ा है। बेगम जान उन लाखों लोगों में से एक हैं जिनका जीवन इन दोनों देशों के बीच होने वाले तनावों और संघर्षों के कारण उथल पुथल हो चुका है। इनकी बेटी फातिमा 1965 में होने वाले युद्ध की अफरातफरी के दौरान सीमा के दूसरी ओर फंस गई थीं। बिछड़ते समय बेगम जान ने तो यही सोचा कि युद्ध समाप्त होते ही हालात सामान्य हो जाएंगे और वह लोग दुबारा पहले की तरह एक साथ रहने लगेंगे। परंतु ऐसा संभव हो न सका। दिन महीने और महीने बरसों में बदलने लगे और बरस दशकों में। ये साल भी एकाध नहीं, इतने थे कि ये जमा होकर आज पांच दशकों में परिवर्तित हो चुके हैं।
इतना समय बीतने के पश्चात पिछले वर्ष जुलाई में बेगम जान पहली बार अपनी बेटी से मिलने में सफल हो पाई हैं। आशा के विपरीत 47 वर्षों के पश्चात् होने वाली ये आनंदपूर्ण और अश्रुपूर्ण भेंट एक दूसरे से जी भर कर गले मिलने के बावजूद अधूरी रही क्योंकि उस समय तक बेगम जान की आंखों की रौशनी जा चुकी थी। बेगम जान को इस बात का भी बेहद अफसोस था कि जंग के दौरान बिछड़ी अपनी बेटी से मिलने की आस लिए उनके पति इस दुनिया से रूख्सत हो गए। पति और अपनी आंखों की रौशनी खो चुकी बेगम जान के लिए बेटी से मिलना आधी खुशी की तरह है। लेकिन इसके बावजूद वह यही चाहती हैं कि पाकिस्तान के गुजरांवाला की जम्मू गली में रहने वाली उनकी बेटी मिलती रहा करे। लेकिन यह तभी मुमकिन है जब दोनों देशों के बीच संबंध मधुर हों। सीमा पर चल रहे तनाव के कारण वह बस भी रूक गई जो दोनों देशों के बिछड़ों को मिलाया करती थी।
सीमा पर होने वाले किसी भी प्रकार की हलचल का सबसे पहला असर सरहद से सटे गांव के रहने वालों को प्रभावित करता है। दोनों तरफ रहने वाले लोग मानवीय संकट की पीड़ा सहने के लिए विवश हैं। सीमावर्ती गांव के रहने वालों के दर्द को शब्दों में बयां करते हुए कवि शहबाज चैधरी कहते हैं कि “देश विभाजन के दौरान वास्तव में जम्मू कश्मीर के टुकड़े हुए हैं। इस बंटवारे ने हमारे शरीर और आत्मा पर जो जख्म लगाए हैं वे आज भी ताजा हैं। बंटवारा और उसके पश्चात होने वाले युद्धों के दौरान अपने प्रियजनों से बिछड़ने की दिल को दहला देने वाली कहानियां सुनते हुए नई पीढ़ी जवान हुई है। एक लंबे इंतजार के बाद अपने परिवारजनों से मिलने वालों को अपना कलेजा चीर कर उनसे मिलते और रोते हुए देखा है। बिछड़ते समय उनकी सिसकियां और चीखें इस्लामाबाद और नई दिल्ली पहुंचने की बजाए इन्हीं वादियों में गुम हो जाती हैं। जिस स्थान पर सीमा पार से आने वाली और यहां से जाने वाली सवारियां जमा होती हैं, वहां ऐसा प्रतीत होता है जैसे इनकी बेचैन और तड़पती हुई आत्माएं दोनों देशों के रहनुमाओं से बस एक ही प्रार्थना कर रही होती हैं कि हमे केवल शांति चाहिए।‘‘ शहबाज कहते हैं, “क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि सीमा के उस पार रहने वाले बुजुर्ग पुंछ आने वालों से क्या क्या चीजें लाने को कहते हैं, कभी वे किसी पुराने पेड़ की पत्तियां मंगवाते हैं, वह पेड़ जिन्हें उन्होंने जवानी या बचपन में लगाया था, कभी वह अपने घरों, खेतों, गांव की गलियों, पहाड़ों, झरनों की तस्वीरें मंगवाते हैं। तो कभी कभी भारत से आने वालों से अपने परिवारजनों के आवाजों की रेकॉर्डिंग लाने की गुजारिश करते हैं।‘‘ वह अपनी बात पर जोर देते हुए कहते हैं, “संवेदनाओं और जज़्बात का ये सिलसिला युद्ध और नफरत की दीवानगी के कारण थमना नहीं चाहिए.”।
गांव के एक अन्य बुजुर्ग लाल हुसैन, जिन्होंने सरहद की इस लकीर को अपने जीवन के बीच से गुजरते देखा है, कहते हैं कि दोनों ओर की सरकारों को संघर्ष के दौरान और इसके बाद भी सीमाओं के आर पार रहने वालों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। बस सेवा जल्द शुरू होने की आशा रखने वाले लाल हुसैन कहते हैं कि “बड़े बड़े शहरों के आलीशान ड्राइंगरूम में बैठ कर युद्ध का शंखनाद बजाना आसान है परंतु ऐसा करने वालों को समझना चाहिए कि युद्ध से होने वाली बर्बादी और जानमाल की हानि का खामियाज़ा केवल सीमा पर रहने वालों को ही भुगतना पड़ता है। वास्तविकता यह है कि सरहद पर रहने वाला हर इंसान यही चाहता है कि स्थिति तुरंत सामान्य हो जाए ताकि बस सेवा, जिसे बहुत सारे लोग शांति और समरसता का दूत मानते हैं, दोबारा शुरू हो सके। सीमा पर शांति के बिना दोनों ही देशों के लिए खुशहाली की कल्पना असंभव है। (चरखा फीचर्स)