माया का राज्यसभा से इस्तीफा  : लाचारी भरी ललकार

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स्ंाजय सक्सेना,लखनऊ

बसपा प्रमुख मायावती की पहचान एक ऐसी नेत्री की होती है जो सियासत की नब्ज पकड़ने में माहिर मानी जाती हैं। सियासी पिच पर उनकी टाइमिंग हमेशा परफेक्ट रही है, लेकिन इधर कुछ वर्षो से उनके फैसले कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे हैं। उनका परम्परागत  दलित वोट बैंक बिखरता जा रहा हैं तो अन्य बिरादरियों को अपने साथ जोड़ने की भी कोशिशें भी परवान नहीं चढ़ पा रही हैं।ं जिनके बल पर माया चार बार सत्ता की सीढ़ियां चढ़ चुकी थीं। आज की तारीख में उनके पास दोस्त कम दुश्मनों की ज्यादा लम्बी लिस्ट है। बस इस दौरान माया के लिये अगर कुछ अच्छा हुआ तो यूपी की राजनीति से मुलायम का हासिये पर जाना। जिसके बाद से मायावती की सपा के साथ पुरानी अदावत खत्म हो गई है। अखिलेश के प्रति उनका नजरिया साफ्ट रहता है। मगर इस आधार पर उनकी सियासत को कोई मुकाम हासिल होने वाला नहीं है। इसके लिये उन्हें अपने भीतर झांकना पड़ेगा। अच्छा होता मायावती दलितों से जुड़े प्रत्येक मुद्दे को सियासी रंग देने की बजाये इसके पीछे के कारणों को खंगालती। इस बात की ओर ध्यान देती क्यों दलित उनसे छिटक रहा है ? ब्राहमणों-क्षत्रियों-वैश्यों और मुसलमानों का विश्वास क्यों बार-बार उनसे भंग हो जाता है ? एक के बाद एक उनके संगी साथी क्यों उनके ऊपर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर  साथ छोड़ते जा रहे हैं ? वह अपने आप को दलित की बेटी कहती हैंे तो फिर उन पर दौलत की बैटी के आरोप क्यों लगते हैं ?
दरअसल, सत्ता में रहते मायावती ने उक्त कमजोरियों पर ध्यान दिया होता तो आज उनकी स्थिति यह नहीं होती। सत्ता की बात तो दूर विपक्ष में रहते हुए भी मायावती ने अन्य की बात छोड़ भी दी जाये तो कभी दलितों के पक्ष मंें भी कोई आंदोलन नहीं चलाया। वह दलित को सिर्फ इस्तेमाल करती रहीं। जगह-जगह दलितों पर अत्याचार होते रहते हैं, मगर मायावती कभी इसको गंभीरता से नहीं लेती हैं। इसके बजाए उनका ज्यादा ध्यान सियासी ड्रामेबाजी पर रहता है। सहारनपुर में दलितों की हत्या और उनके घरों में आगजनी की घटनाओं को लेकर मायावती ने राज्यसभा से इस्तीफै की जो चाल चली, वह उनका प्रायश्चित नहीं दिखावा था। असल में उन्हें जब लगा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भीम सेना दलितों के बीच तेजी से जड़े जमा रही हैं तो माया परेशान हो गई, लेकिन शायद तब तक काफी देर हो चुकी थी। बसपा सुप्रीमों ने दलितों के हित की आवाज नहीं उठा पाने के लिये इस्तीफा जरूर दिया,परेतु वह यहां भी दलितों के साथ छल कर गईं। अगर ऐसा न होता तो वह सीधे साफ शब्दों में इस्तीफा देने की पेशकश करती,मगर इसके बजाये माया ने सशर्त इस्तीफा देना बेहतर समझा,जबकि वह जानती थीं कि सशर्त इस्तीफा स्वीकार नहीं किया जाता है। यह और बात है कि अपनी किरकिरी होते देख माया को पुनः बिना शर्त इस्तीफा देना पड़ा,जिसे स्वीकार भी कर लिया गया।
पूरे इस्तीफा प्रकरण में उनके तेवर बता रहे थे कि वह पूर्वाग्रह के साथ राज्यसभा में पहुंची थीं। उनको तीन मिनट तक बोलने का मौका राज्यसभा उपाध्यक्ष द्वारा दिया गया था। (देखने में अक्सर यह आता है कि एक बार जब सांसद बोलने खड़े होते हैं तो वह अपने तय समय से काफी अधिक समय तक अपनी बात रखते रहते हैं और इस पर कोई खास विवाद भी नहीं होता है) लेकिन माया ने इसका फायदाा नहीं उठाया। असल में मायावती के पास कहने के लिये कुछ था ही नहीं। उनका मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना था। इस बात का अहसास तब और गहरा हो गया जब उन्होंने सदन से बाहर आकर मीडिया के सामने अपनी बात रखी। उनकी बातों में कुछ भी नयापन नहीं था।
वैसे, यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि मायावती का कार्यकाल चंद महीनों अप्रैल 2018 तक का ही बचा था। अच्छा होता राज्यसभा के शेष कार्यकाल का उपयोग मायावती दलितों की आवाज उठाने में करतीं,लेकिन उनको इस्तीफा देना ज्यादा बेहतर लगा। माया के लिये यह घाटे का सौदा हो सकता है। अब 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले तक तो वह सांसद बन नहीं सकती हैं। अगर राज्यसभा में भी जाना चाहें तो उन्हें लालू जैसे लोंगो की बैसाखी का सहारा लेना पड़ेगा जो स्वय भ्रष्टाचार के दलदल में गोते लगा रहे हैं। यह भी अजीब लगा कि जब मायावती इस्तीफे की धमकी देकर बाहर निकलीं तो उनके समर्थन में कांग्रेस के सदस्यों ने भी सदन छोड़ दिया। आखिर उन्होंने अपने ही दल के सांसद और साथ ही उपसभापति से यह क्यों नहीं कहा कि उनके हिस्से का समय मायावती को दे दिया जाए? दलितों के नाम पर हंगामेबाजी करने वाले यह जानते थे कि सत्तापक्ष दलितों पर हमले के मामले में चर्चा से इन्कार नहीं कर रहा है। उपसभापति इसकी इजाजत देने के लिए तैयार थे। जब ऐसा कुछ था ही नहीं तब फिर गर्जन-तर्जन और इस्तीफे की घोषणा का कोई औचित्य नही बनता था।
यह पहली बार नहीं जब विपक्ष ने किसी मसले पर चर्चा के बहाने हंगामा करना अधिक पसंद किया हो। संसद के प्रत्येक सत्र की शुरुआत के दौरान ऐसा खासतौर पर देखने को मिलता है। इसी कारण संसद में राष्ट्रीय महत्व के मसलों गंभीर चर्चा नहीं हो पाती है।
दरअसल, माया को य सूझ ही नहीं रहा था कि कैसे दलितों को अपनी तरफ खींचा जाये ? ऐसे में उन्हें जब राज्यसभा से इस्तीफे के सहारे दलितों को लुभाने की उम्मीद जागी तो उन्होंने इस्तीफे का दंाव चल दिया। दलितों का भाजपा और मोदी केे प्रति बढ़ता लगाव बसपा के लिए बड़ी चुनौती है। रही सही कसर बीजेपी ने दलित राष्ट्रपति बनाकर पूरी कर दी। ऐसे में माया के लियें  दलितों को यह संदेश देना जरूरी था कि वह अपने लोगों के हित में कोई भी कुर्बानी दे सकती हैं।
एक और बड़ी चिंता दलितों के बीच भीम आर्मी सरीखे संगठनों की लोकप्रियता का बढ़ना भी है। सहारनपुर प्रकरण ने बसपा की जड़ों पर चोट किया था। इसी वजह से उनके इस्तीफे को दलित वोटों को लेकर बाहरी व भीतरी हमलों का जवाब माना जा रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में दलित-मुस्लिम गठजोड़ भले ही कारगर नहीं हो सका परंतु बसपा रणनीतिकारों का मानना है कि भगवा बिग्रेड के बढ़ते प्रभाव को इसी समीकरण से रोका जा सकता है। मुस्लिमों में सपा का मोह भी बना रहा जिस कारण बसपा को नुकसान उठाना पड़ा। वैसे अटकले यह भी हैं कि राज्यसभा से इस्तीफा देने के बाद  मायावती लोकसभा का उपचुनाव लड़ सकती हैं। बीजेपी को रोकने के लिये मायावती को विपक्ष अपा साझा उम्मीदवार बना सकता है। प्रदेश की लोकसभा की दो सीटों पर उप-चुनाव होना है।

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