सम्मान तलाशती नारी का ‘नुमाईशी’ बनता शरीर

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indianनिर्मल रानी

देश की राजधानी दिल्ली में गत् 16 दिसंबर को हुई सामूहिक बलात्कार की घटना ने जहां पूरे देश में नारी उत्पीडऩ के विषय पर राष्ट्रव्यापी बहस को जन्म दिया है वहीं ब्रिटेन जैसे मुल्क में भी इस दौरान इसी विषय पर चर्चा छिड़ी हुई है। गत् दिनों ब्रिटेन में सरकारी तौर पर जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार वहां महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार तथा नारी उत्पीडऩ के मामले भारत से कहीं ज़्यादा दर्ज किए जाते हैं। गोया कहा जा सकता है कि क्या विकसित देश तो क्या विकासशील देश हर जगह नारी समाज के साथ ज़ुल्म व अत्याचार की घटनाएं आम बात हैं। भारत में तो इस बहस ने इतना अहम स्थान हासिल कर लिया है कि पिछले दिनों जयपुर में कांग्रेस की चिंतन बैठक भी इस विषय पर चर्चा के बिना पूरी नहीं हो सकी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा यूपीए अध्यक्षा सोनिया गांधी सहित कई नेताओं ने महिलाओं की सुरक्षा को लेकर चिंता जताई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सृष्टि की रचना से लेकर समाज के व प्रत्येक परिवार के संचालन तथा विकास में महिलाओं ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपनी बराबर भागीदारी दर्ज कराई है। इसके बावजूद प्राय:ऐसे समाचार सुनने को मिलते है कि निजी परिवारों से लेकर सडक़, मोहल्लों, गलियों, बाज़ारों, स्कूल-कॉलेज,बस-ट्रेन, शापिंग मॉल, हॉस्पिटल, कार्यालय आदि सभी जगहों पर महिलाओं को उत्पीडऩ का सामना करना पड़ता है। गोया महिला अपने-आप को कहीं भी सुरक्षित महसूस नहीं करती। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि महिलाओं को गली के आवारा कुत्तों या गाय-भैंसों से भी उतना डर नहीं लगता जितना कि वह अपने सजातीय प्राणी अर्थात् पुरुष से भयभीत दिखाई देती हैं।

पिछले दिनों भारत में इस विषय पर जो लंबी बहस छिड़ी है उसमें कुछ ऐसे तर्क भी सामने आ रहे हैं जिनमें यह कहा जा रहा है कि महिलाओं के यौन शोषण अथवा उनके यौन आकर्षण के लिए महिलाएं स्वयं भी जि़म्मेदार हैं। उदाहरण के तौर पर यदि खेलकूद या स्कूल जाने हेतु प्रयोग में आने वाले आवश्यक समझे जाने वाले स्कर्ट जैसे यूनीफ़ार्म के उपयोग की बात छोड़ दें तो इसके अतिरिक्त साधारण तौर पर महिलाओं को अपने शरीर के बेहूदा प्रदर्शन की आखिर क्या ज़रूरत है? राखी सावंत तथा पूनम पांडे या मल्लिका शेरावत जैसी महिलाएं आखिर किस बलबूते पर या अपनी किस योग्यता के आधार पर पुरुषों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती हैं। यह बहुचर्चित ‘न्यूड फोटो शूट’ आखिर किस बला का नाम है और क्यों किया जाता है? क्या देश व दुनिया में कोई वस्तु बिना नारी शरीर प्रदर्शन के अथवा उसमें सेक्सी दृश्य दिखाए हुए नहीं बिक सकती? फिर आखिर प्रत्येक विज्ञापन में महिलाओं और विशेषकर उनके शरीर के नग्र एवं बेहूदे प्रदर्शन को ही क्यों महत्व दिया जाता है? तीन दशक पुरानी एक फिल्म में अमिताभ बच्चन जैसे महानायक ने एक कम कपड़े पहनने वाली हीरोईन द्वारा थाने में जाकर यह शिकायत किए जाने पर कि उसे देखकर लडक़े सीटी बजाते हैं, इसपर पुलिस इंस्पेक्टर का किरदार अदा कर रहे अमिताभ ने यही जवाब दिया था कि ‘आपके इन कपड़ों को देखकर लडक़ों की सीटी नहीं तो क्या मंदिर के घंटे बजेंगे’? निश्चित रूप से अमिताभ बच्चन का तीन दशक पुराना यह डॉयलॉग कल भी सवाल खड़े करता था और आज भी सवाल खड़े करता है।

इसमें कोई शक नहीं कि हम भारतीय संस्कृति के अनुसार प्राचीन युग में वापस जाने या उस दौर का अनुसरण करने जैसी बातें तो न ही सोच सकते हैं न सोचना चाहिए। न ही हमें उस दौर में वापस जाने की कोई ज़रूरत है। सिर पर घूंघट डालकर घरों में कैद रहने से केवल नारी ही नहीं बल्कि पूरे समाज के पिछडऩे की प्रबल संभावना बनी रहती है। हम निश्चित रूप से आधुनिक युग में जी रहे हैं तथा समाज के विकास में पुरुष व महिलाओं की सांझीदारी लगभग बराबर होती जा रही है। इसलिए महिलाएं सडक़ों पर भी निकलेंगी। स्कूल-कॉलेज,बाज़ार, आफिस, सफर हर जगह महिलाओं की प्रबल उपस्थिति ज़रूर देखी जाएगी। और देखी जानी चाहिए। परंतु इसका अर्थ यह भी नहीं कि बाहर निकलने वाली महिलाएं या सार्वजनिक रूप से पुरुषों के साथ बैठने-उठने व काम करने वाली महिलाएं अपने शरीर की नुमाईश भी हर वक्त करती रहें। शरीर की ऐसी नुमाईश आखिर महिलाएं क्योंकर करती हैं और किसे दिखाने के लिए करती हैं। यदि आप भीषण सर्दी में किसी विवाह समारोह में देखें तो युवतियां बिना किसी गर्म लिबास के तथा पूरी तरह अपने आभूषण व शरीर का प्रदर्शन करते दिखाई देती हैं। आखिर इस प्रकार की नुमाईश या शरीर प्रदर्शन का मकसद पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करना नहीं तो और क्या होता है। और जब महिलाओं के शरीर की इस नुमाईश ने आम लोगों को विशेषकर पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित किया तभी यही नारी शरीर बाज़ार की एक वस्तु बन कर रह गया। फिर क्या फिल्मी गीत हों तो क्या आपत्तिजनक फिल्मी दृश्य,क्या शायर की गज़ल हो तो क्या अफसाना निगार के अफसाने। क्या किसी उत्पाद बेचने का विज्ञापन तो क्या मॉडलिंग का रैंप। हर जगह महिलाओं को केवल उनके शरीर प्रदर्शन के लिए ही अहमियत दी जाने लगी । तमाम क्लबों व बार में महिलाएं अपनी मनमोहक अदाओं व अपने यौवन व आकर्षक डांस व अंदाज़ के लिए पुरुष ग्राहकों के आकर्षण का केंद्र बनी रहती हैं। अब तो महिलाओं के शरीर प्रदर्शन से क्रिकेट जैसा पाक-साफ खेल भी अछूता नहीं रहा। फिल्मी सितारों का इस खेल में दिलचस्पी लेना तो क्रिकेट को बढ़ावा देने के पक्ष में नज़र आया। परंतु इसमें चियरलीडर्स का शामिल होना खेल भावना के कतई विपरीत है। ज़ाहिर है यहां भी महिलाओं को उसके शरीर के प्रदर्शन के माध्यम के रूप में ही प्रयोग किया गया।

पिछले दिनों पाकिस्तान की वीना मलिक नामक एक अदाकारा ने अच्छी-खासी शोहरत बटोरी। उनकी इस शोहरत के पीछे भी कोई अतिरिक्त अदाकारी का हुनर शामिल नहीं था। न ही उनकी आवाज़ व अंदाज़ में कोई विशेष जादू था। न ही वह बेपनाह सुंदरता की मूरत हैं। हां अपने शरीर के प्रदर्शन में ज़रूर उसने कोई कसर उठा नहीं रखी। पूरी तरह निर्वस्त्र होकर उसने अपने कई $फोटो सेशन एक विदेशी पत्रिका के लिए कराए। ज़ाहिर है इस प्रकार के कृत्य न तो मानवीय आधार पर उचित हैं न ही नारी के सम्मान के दृष्टिकोण से सही ठहराए जा सकते हैं। न ही दक्षिण एशियाई संस्कृति इस बात की इजाज़त देती है। और न ही इस प्रकार के बेहूदे और भोंडे प्रदर्शन को प्रगतिशीलता या आधुनिकता का नाम दिया जा सकता है। यह तो महज़ चंद पैसों की खातिर तथा प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए अपनाया जाने वाला एक शार्टकट हथकंडा है। पूनम पांडे जैसी भारतीय महिलाएं भी इसी श्रेणी में आती हैं जोकि अपनी योग्यता के बल पर तो कुछ अर्जित नहीं कर पातीं केवल अपने शरीर का प्रदर्शन कर व बेशर्मी भरे बयान देकर मीडिया में छाई रहना चाहती हैं। भारतीय सिनेेमा हालांकि अपने शानदार सौ वर्ष पूरे कर चुका है। परंतु इस सिनेमा उद्योग ने मधुबाला,मीनाकुमारी,वैजयंती माला, माला सिन्हा, आशा पारिख, शर्मिलाटैगोर,शबाना आज़मी व हेमा मालिनी जैसी अदाकाराओं के बेजोड़ अभिनय के बल पर प्रसिद्धि प्राप्त की है न कि मल्लिका शेरावत,राखी सावंत व पूनम पांडे जैसी महिलाओं की बदौलत जोकि अदाकारी से ज़्यादा ध्यान अपने सेक्सी शरीर को बेहूदे ढंग से प्रदर्शित कर पुरुषों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में लगी रहती हैं।

लिहाज़ा नारी उत्पीडऩ या महिलाओं से की जाने वाली छेड़छाड़ के विषय पर पुरुषों को ही शत-प्रतिशत जि़म्मेदार ठहराना भी मुनासिब नहीं है। नि:संदेह पुरुषों को बचपन से ही पारिवारिक स्तर पर अच्छे संस्कार दिए जाने व महिलाओं के प्रति सम्मान व आदर-सत्कार से पेश आने की शिक्षा दिए जाने की सख्त ज़रूरत है। महिलाओं के साथ बेवजह छेड़छाड़ करने वालों व उन्हें अपमानित व पीडि़त करने वालों के साथ भी सख्ती से पेश आने की आवश्यकता है। बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने वालों को स$ख्त से स$ख्त सज़ा भी दी जानी चाहिए। परंतु न केवल नारी बल्कि वर्तमान दौर में नारी सम्मान को लेकर छिड़ी बहस में भाग लेने वाले जि़म्मेदार लोगों विशेषकर फ़िल्म व विज्ञापन जगत के लोगों को भी चाहिए कि वे केवल टीवी की बहस में ही नारी सम्मान की बात कर स्वयं उपदेशक बनने के बजाए $खुद भी नारी के शरीर को नुमाईश का सामान बनाने से बाज़ आएं। फिल्मों में नारी शोषण के दृश्यों को बेवजह दिखाने की कोशिश न करें। नारी के शरीर पर आधारित या यौन आकर्षण वाले गीत-संगीत से भी परहेज़ किए जाने की ज़रूरत है। खुद फिल्म सेंसर बोर्ड को भी ऐसे उकसाऊ व भडक़ाऊ दृश्यों के लिए अपनी कैंची तेज़ कर लेना चाहिए। कहानीकार व साहित्यकार भी महिलाओं के सम्मान को प्राथमिकता दें बजाए इसके कि गंदे व अश्लील साहित्य केवल धन अर्जित करने के लिए बाज़ार में परोसे जाएं और इसे व्यवसायिक मांग बताकर न्यायोचित ठहराने की कोशिश की जाए। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ी बात तो यह है कि बिना किसी के उपदेश की प्रतीक्षा किए हुए महिलाओं को भी अपने पहनावे संयमित रखने चाहिए ताकि पुरुषों की आमतौर पर पडऩे वाली बुरी नज़र से वे अपने को व अपने शरीर को बचा सकें। अकारण भोंडी पौशाकें पहनना महिलाओं को खासतौर पर संस्कारी महिलाओं को वैसे भी शोभा नहीं देता। यदि हमें सम्मान की तलाश है तो हमें अपने शरीर की नुमाईश से भी परहेज़ करना होगा।

 

8 COMMENTS

  1. संजय जी,अपनी आख़िरी टिप्पणी पर आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. ऐसे ग़लती से सेक्युलर की जगह सेस्युलर टाइप हो गया है,पर मैं समझता हूँ कि अर्थ समझने में आपको दिक्कत नहीं हुई होगी

  2. ये पूंजीवादी सिस्टम की देन है इस के लिए अकेली औरत ज़िम्मेदार नही है जिस दिन समाज में नैतिकता चरित्र और उसूल का चलन हो जायेगा.

  3. सिँह जी के कहने का तात्पर्य यह है कि पुरुषोँ को मानसिकता बदलनी चाहिए तो मानसिकता कैसे बदलेगी, अच्छे संस्कार से. और यह अच्छा संस्कार कैसा होना चाहिये कि यदि नारी नग्न भी हो जाये तो पुरुष का मन न डोले।
    अब जिन्हे सेक्स मेँ मजा आता हो वो भी बलात्कार से तो इसके लिये क्या कर सकते हैँ। यदि मैँ भारतीय संस्कृति पे अमल करने को कहुँ तो जहाँ तक मुझे मालुम है आप हिँदू विरोधी हैँ सिँह जी। आप तो आधुनिक सेकुलर हैँ हो सकता है आप को ईस्लाम मेँ संस्कार दिखते होँ

    • संजय जी,इस लेख पर मेरी दो टिप्पणियाँ हैं. क्या आप बता सकते हैं कि इसमें कौन सी ऐसी बात कही गयी है,जो आपको मेरे बारे में ऐसा सोचने के लिए मौका दे रही है?कहीं ऐसा तो नहीं है कि आपकी अपनी संकीर्ण विचार धारा इसका कारण हों. मैं नग्नता का समर्थक कभी नहीं रहां. मैं पूनम पांडे और प्रियंका चोपड़ा को उनके पोशाकों या उनकी नग्नता के लिए कभी समर्थन नहीं कर सकता,पर मेरा कहना केवल यह है कि नारियों या लड़कियों के पोशाक को स्कूल यूनिफ़ार्म का रूप नहीं दिया जा सकता. रह गयी हिंदू और सेस्युलर होने की बात ,तो असल हिंदू हमेशा सेस्युलर होता है,क्योंकि हिंदू धर्म में न केवल इश्वर के विभिन्न रूपों को मान्यता दी गयी है,बल्कि नास्तिको को भी हिंदू धर्म से अलग नहीं समझा गया

  4. चम्पारण में निलहा किसानो के मुकदमे के सिलसिले में पं. मोतीलाल नेहरू के सहयोगी डॉ राजेन्द्र प्रसाद काम कर रहे थे। राजेन्द्र बाबू पहनावे के बारे में लापरवाह किस्म के व्यक्ति थे, जबकति पं. मोतीलाल एकदम चुस्त दुरुस्त। राजेन्द्र बाबू की पोशाक की ओर इंगित कर मोतीलाल नेहरु ने पूछा, “आप कपड़े क्यों पहनते हैं?” राजेन्द्र बाबू ने जवाब दिया, “पर्दा के लिए।” इसपर मोतीलाल जी ने कहा, ” तो क्या आप इसे बेहतर तरीके से नहीं पहन सकते थे?”
    जाहिर है, राजेन्द्र बाबू के लिए पहनावे का मकसद लज्जा-निवारण के साधन के रूप में था जबकि पंडित मोतीलाल नेहरु के लिए पहनावा व्यक्तित्व की प्रस्तुति में अनुकूल भूमिका का निर्वहन करता है।
    एक पाश्चात्य सज्जन ने पूर्वी देशों के लोगों के पहनावे के सम्बन्ध में अचरज जाहिर करते हुए टिप्पणी की थी,”अजीब है इनका पहनावा, पुरुषों के पाँव उघड़े होते हैं और स्त्रियों के पूरे बदन ढके हुए। ” यह नजरिया बताता है कि नारी शरीर को प्रकृति ने सौन्दर्य से मण्डित किया है, पहनावा ऐसा होना उपयुक्त होता है जो इस सौन्दर्य से साक्षात्कार का अधिकाधिक आनन्द दे सके। कदाचित् यही नजरिया हमारे आज के सामाजिक आचरण को संचालित कर रहा है।
    जबकि पूर्वी नजरिए के अनुसार नारी शरीर कामोत्तेजक होता है ,इसलिए इसे ढका होना चाहिए।
    प्रकृति ने अपने प्रयोजन से नारी शरीर को सौन्दर्य से मण्डित किया है, आकर्षक एवम् उत्तेजक भी। विडम्बना है कि सुन्दर अश्लील दिखता है।
    नारीवादी आन्दोलन नारी के लिए व्यक्ति के सम्मान की स्वीकृति एवम् मान्यता की प्रतिष्ठा की माँग करते हैं। वे सुन्दर की भेद्यता के प्रति संवेदनहीन रहकर अपने लक्ष्य को नहीं पा सकते।

  5. एक अत्यन्त तथ्यपरक और निष्पक्ष लेख के लिए निर्मल रानी को बहुत-बहुत बधाई! नारियों के प्रति पुरुष का आकर्षण सृष्टि के आरंभ से लेकर आजतक है और विश्व के प्रत्येक भाग में है। पुरुष की मानसिकता प्रायः आक्रामक होती है – यह एक अकाट्य सत्य है। नारी-सौन्दर्य उसे सबसे अधिक आकर्षित करता है। ऐसे में नारी का उन्मुक्त आचरण और आधुनिक वेश अल्प संसकारी या असंसकारी पुरुषों को कभी-कभी हिंसक बना देते हैं जो निस्सन्देह निन्दनीय है। दुनिया के किसी भी भाग के पुरुषों की मानसिकता रातों-रात कानून बनाकर या विरोध-प्रदर्शनों के माध्यम से बदल पाना असंभव है। अगर ऐसा होता तो कम-से कम १६ दिसंबर के बाद हिन्दुस्तान में बलात्कार की घटनाएं नहीं होतीं। जंगल से गुजरते समय आपको अपनी सुरक्षा का ध्यान रखना ही होगा अन्यथा शेर आपका शिकार कर ही लेगा।
    निर्मल रानी जी के लेख में बहुत दम है। उन्होंने समस्या का सही विश्लेषण करते हुए बहुत उचित समाधान प्रस्तुत किया है। ऐसे लेखों का व्यापक प्रचार-प्रसार समाज के हित के लिए आवश्यक है।

    • सिन्हा जी से और निर्मल रानी जी से मेरा यही निवेदन है कि मेरे द्वारा उठाये गए प्रश्नों को नजर अंदाज न करें। समाज और देश ,खासकर आज का युवा वर्ग इसके उत्तर की अपेक्षा करता है।

  6. निर्मल रानी जी, एक तो आप महिला हैं,दूसरे आपने बहुत सी बातें बेबाक कही हैं,अतः उनको एक सिरे से झुठलाया भी नहीं जा सकता,पर बलात्कार और नारी उत्पीडन का इनसे दूर का भी सम्बन्ध मुझे तो नहीं दीखता। बलात्कार की शिकार बनी अधिकतर लड़कियां या नारियां नग्न प्रदर्शन वाले वस्त्रों में नहीं रहती।मैं समझता हूँ कि 16 दिसंबर की घटना वाली युवती भी अशोभनीय वस्त्र में नहीं थी। हाँ,नारी या लडकी का प्रकृति प्रदत सौदर्य भले ही बलात्कार को बढ़ावा देता है। पर उसके लिए नारी या युवती या लडकी क्या करे?छोटी छोटी बच्चियां जो बलात्कार की शिकार होती हैं,उनके बारे में आपका क्या तर्क है?

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