रिटायरमेंट के बाद

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रिटायरमेंट के बाद ही होता है

नौकरशाहों का असली मूल्यांकन

डॉ. दीपक आचार्य

समूची व्यवस्था में तरह-तरह के बाड़े हैं जिनमें घुसे हुए लोग कभी पांच साला जिन्दगी जीने के बाद बाहर कर दिए जाते हैं कभी इनकी विलासिता आयु इन प्राणियों के कर्म और व्यवहार को देख कर बढ़ती है, कभी शून्य में खो जाती है और कभी पूर्ण अवसान का सामना करने को विवश हो जाती है।

ऐसे ही कई सारे दूसरे बाड़े हैं जिनमें एक बार घुस जाने के बाद कहीं साठ तो कहीं पैंसठ साल तक कोई पूछने वाला नहीं होता। ऐसे लोगों को दो ही बार पूछा जाता है, बाड़े में घुसने से पहले और बाडे़ से बाहर आने के बाद। भीतर प्रवेश के वक्त ये खाली होते हैं और निकलते वक्त भरे हुए।

सरकारी बाड़ों में आनंद और मस्ती के साथ सारे भोग भोगने के उपरान्त जब बाहर निकलने का वक्त आता है वे क्षण भी अजब-गजब होते हैं। बाड़ों में एक बार जिस किसी तरह भी घुस जाने के बाद बाड़ों पर अपना अधिकार जमाये बैठे लोग दशकों तक जम रहते हैं सीटें बदल-बदल कर।

लगातार बाड़ों में करतब दिखाते हुए ये लोग समाज से लेकर देश भर को धन्य करते रहते हैं। अपनी पूरी जिन्दगी में वे जितने अभिनय इन बाड़ों में करते हैं उनका कोई हिसाब नहीं।

सेवा के नाम पर वर्षों तक इन बाड़ों में होने वाले करतबों, हथकण्डों, षड़यंत्रों, करामातों और तिलस्मों को देखते-भुगतते और करते हुए ये अभिनय में इतने माहिर हो जाते हैं कि बाड़े से निकलते वक्त उन तमाम प्रकार के अभिनय की दृष्टि से संदर्भ विशेषज्ञ के रूप में आकार और दक्षता पा लेते हैं।

साठ बरस तक सेवा के नाम पर बहुत कुछ धमाल कर चुके इन लोगों की कई किस्में ऐसी हैं जिन्हें देख कर हमें दशकों के इतिहास की यादें ताजा हो उठती हैं। खूब सारे ऐसे हैं जिन्हें ये बाड़े इतने रास आ जाते हैं कि रिटायरमेंट के बाद भी इन बाड़ों में बसे रहने के लिए लार टपकाने लगते हैं जैसे कि जमाने में वे ही हैं, उनके बाद जमाना ही खत्म हो जाएगा और उन्हें मौका नहीं मिला तो प्रलय या भूकंप ही आ धमकेगा।

ऐसे लोग उन सभी हथकण्डों और सिफारिशों को भिड़ा कर फिर बाड़े में अपने लायक कोई कोना ढूँढ़ ही लेते हैं, भले यह डस्टबिन के पास ही क्यों न हो। कई लोग इन बाड़ों में दुबारा एन्ट्री नहीं कर पाने पर दूसरे बाड़ों और गलियारों में अपने तजुर्बों के फन आजमाते रहते हैं।

लेकिन बहुत बड़ी संख्या में लोग ऐसे हैं जो दीर्घकालीन सेवाओं के बाद मुक्त हो जाते हैं, या यों कहें कि उन्हें मुक्त होना ही पड़ता है। आजकल रिटायरमेंट भी उत्सव के रूप में स्थापित हो चला है जैसे शादी-ब्याह और सालगिरह के जश्न हों।

जलवे और जलसे ऐसे कि जैसे कोई ऐसी महान उपलब्धि पा ली हो। सरकारी बाड़ों से रिटायरमेंट के बाद के दिन ही वे अवसर होते हैं जिस दौरान इन नौकरशाहों के काम-काज का सार्वजनिक तौर पर मूल्यांकन होने लगता है। जब ये नौकरशाह और सरकारी कारिन्दे बाड़ों में होते हैं तब उनके बारे में मूल्यांकन और नीर-क्षीर टिप्पणियों का साहस कोई नहीं कर पाता है। ये अपने-अपने दड़बों में जो चाहें करते रहें, उन्हें कोई पूछने वाला नहीं।

व्यक्ति कोई भी हो, छोटा-बड़ा कर्मचारी हो या कोई बड़े से बड़ा अफसर। आखिर एक न एक दिन उसे अपना कमाऊ बाड़ा छोड़ना ही पड़ता है क्योंकि प्रकृति का नियम है कि जो आया है उसे जाना जरूर पड़ेगा। चाहे प्रसन्नता से जाए अथवा दुःखी मन से या क्षुब्ध होकर।

सुविधाओं और भोग-विलासिता के अवसरों का अम्बार इतना है कि कोई भी व्यक्ति इन डेरों को छोड़ना नहीं चाहता। आज भी हर इलाके में कई सारे महान लोग ऐसे देखने को मिल ही जाते हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी किसी न किसी बाड़े में रहकर सेवा का भीष्म व्रत ले रखा है और उनका साफ मानना है कि उनकी जिन्दगी और सेवा का पूरक संबंध है। सेवा न रहेगी तो उनका भी रह पाना असंभव है।

रिटायरमेंटोत्सव वह संक्रमण काल है जब बाड़ों से घर वापसी की यात्रा शुरू होती है। इसके साथ ही हो जाता है उनके मूल्यांकन का सार्वजनिक शंखनाद, जब आम आदमी भी मुखर होकर इनके काम-काज के प्रति बेबाक टिप्पणी करते नहीं हिचकता। कई लोगों के लिए उनका जाना शोक का सागर लहरा देने वाला होता है, तो कई सारे लोग श्रीफल वधेर कर और मिठाई बाँट कर उनके जाने का उल्लास प्रकटाते हैं। यों देखा जाए तो हर कर्मयोगी का असली मूल्यांकन तो रिटायरमेंट के बाद ही होता है और इससे सामने आने वाले निष्कर्षों से ही पता चलता है कि उनका भविष्य और अगला जन्म सुधरने वाला भी है या नहीं।

रिटायर होने की प्रसन्नता में आने वाले विज्ञापनों में भी दीर्घकालीन सेवाओं को गरिमामय बताते हुए उनका प्रशस्तिगान किया जाता है, बड़े-बड़े जलसे होते हैं, उपहारों का संसार सजता है और वह सब कुछ होता है जो जीवन में उल्लास और उत्साह के रंग भरता रहा है।

मुक्त होने के बाद भी आम लोगों के निशाने पर ये लोग होते ही हैं। जो लोग ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा से सेवा करते हैं, पद-प्रतिष्ठा और पैसों के अहंकार से मुक्त रहकर सच्चे अर्थों में सेवा करते हैं, गरीबों और जरूरतमन्दों के दुःख-दर्दों में भागीदार बनते हैं, परमार्थ और परोपकार में सहयोगी बनते हैं, जीवन में आदर्शों का वास्तव में अनुकरण करते हैं और अपने सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति के प्रति संवेदनशील और हमदर्द होते हैं उनकी तारीफ हर कहीं होती है और उन बाड़ों में भी ऐसे निष्ठावान लोगों के जाने के बाद रिक्तता का अनुभव होता है। ऐसे आदर्श कर्मयोगियों को लोग तहेदिल से याद भी करते हैं और खुलकर इनकी ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा की चर्चा भी करते हैं।

इसके विपरीत उन लोगों के बारे में भी मूल्यांकन की धाराओं का प्रवाह बना रहता है जो बाड़ों को अपना मानकर कुण्डली जमाये जमे रहकर उन सारे कामों में माहिर हो जाते हैं जो अच्छे मनुष्य को शोभा नहीं देते। लोग इनके बारे में खुलकर अभिव्यक्ति करने में जरा भी नहीं हिचकते।

कई लोगों के बारे में सुना जाता है कि जिन्दगी भर भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी करते रहे, खूब माल बनाया, दंभ में इतने भरे हुए रहे कि हमेशा मुँह फुलाये बैठे रहते, किसी का काम नहीं करते। कुछ के बारे में कहते हैं कि खुद अपने आप को ईमानदार और सिद्धान्तवादी दिखाने के लिए नाटक करते रहे और किसी की भलाई का कोई काम नहीं कर पाए, लोगों को टल्ले देने और झूठे आश्वासनों से पूरी जिन्दगी निकाल ली।

इसी प्रकार की ढेर सारी बातों को सुना जाता है उनकी बीती जिन्दगी के बारे में। कुछ के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जिन्दगी भर चापलुसी और चमचागिरी करते हुए वो सारे काम कर लिए जो एक अच्छा इंसान कभी नहीं कर पाता।

लोग इनकी सम्पत्ति और जमीन-जायदाद के बारे में भी खुलकर बोलने लगते हैं। तो गरिमामय सेवा करने वाले कइयों के बारे में यह भी सुनने को मिलता है कि बड़े लोगों की जी हूजूरी और उनकी हर तरह की सेवा में ही पूरा समय खपाते हुए सारे ठाठ पा लिए। कइयों के बारे में यह सुनने को मिलता है कि अहंकार और ईर्ष्या-द्वेष तो इनके रग-रग में भरा रहा। इतनी ऊँची-ऊँची कुर्सियों पर जमकर वजन बढ़ाते रहे लेकिन किसी का भला नहीं कर पाए, जीवन भर कभी भगवान और धरम-करम की याद नहीं आयी, अब कोई पूछता नहीं तो क्या करें। यह पब्लिक है सब जानती है इसलिए जनता के जुमले भी शानदार और जानदार प्रभाव छोड़ते हैं।

साफ तौर पर मानना चाहिए कि हर आदमी के जीवन का पैमाना जनता के पास है, जो सेवा में रहते हुए भले कभी दिख नहीं पाता हो, मगर असली मूल्यांकन तो रिटायरमेंट के बाद ही होता है।

यह मूल्यांकन रिटायर हुए लोगों के लिए तो सहजतापूर्वक सुनने और स्वीकार करने लायक है ही, उन सभी लोगों को भी इनसे सीख लेनी चाहिए जो किसी न किसी बाड़े में कुण्डली मारकर बैठे हुए इठला रहे हैं और अपने आपको अपने-अपने बाड़ों का सिकंदर मानते हुए घमंड और भ्रष्टाचार के सागर में नहा रहे हैं।

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  1. रिटायरमैंट के बाद बहुत सारे लोग आराम से शाँतिपूर्वक अपनी ज़िन्दगी जी रहे हैं,सेवाकाल मे भी सब वैसे नहीं होते जैसे इस लेख मे बतया गया है।

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