राजनीति में राष्ट्रवाद का अवतरण

भारतीय राजनीति में राष्ट्रवाद का आविर्भाव ऐसे समय हुआ जब देश में सामाजिक समरसता के प्रयासों के बावजूद अलगाववाद की भावना चरम पर थी। देश का मजहबी आधार पर विभाजन हो चुका था। इसके साथ ही पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांगलादेश) से हिंदु पलायन कर भारत पहुंच रहे थे। नव स्थापित दोनों देश भारत और पाकिस्तान नेहरू लियाकत अली संधि से बंधे थे, जिसके अनुसार अपने अपने देश में अल्पसंख्यकों को पूरा संरक्षण देना था। भारत को सदाशयता और प्रतिबद्धता के बाद भी पाकिस्तान इस समझौते से मुकर गया जिससे पाकिस्तान से निष्कासित अल्पसंख्यक हिंदुओं का लहुलुहान रैला भारत की ओर पहुंचने लगा था। तब केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में इस पर चिंता व्यक्त की गयी और पं.नेहरू के सहयोगी मंत्री के रूप में डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी बैचेन हो गये। उन्होंने मंत्रिपरिषद से इस्तीफा देना बेहतर समझा। उन्हें चेतना शून्य राजनीति में राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की कमी महसूस हुई। चालीस के दशक में आजादी के बाद राजनीति में आयी एक निरकुंशता ने उनके मंतव्य को पुष्ट किया था तब पं.नेहरू ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बढ़ते प्रभाव से विचलित होकर इसे कुचल डालने का भी ऐलान कर दिया था। जिसका सरसंघचालक मा. माधवराव गोलवलकर ने विनीत भाव से उत्तर दिया था कि ऐसी मानसिकता को भी कुचल दिया जावेगा। महात्मा गांधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रभावित थे। उन्होंने कभी संघ की आलोचना नहीं की। बल्कि 1934 में वर्धा में संघ के शीतकालीन प्रशिक्षण को नजदीक से देखा था। संघ के अनुशासन और राष्ट्रीय विचारों की सराहना भी की थी। लेकिन उनकी हत्या के बाद अकारण संघ को निशाना बनाया गया। सत्रह हजार स्वयंसेवक जेलों में ठूंस दिये गये। किसी भी राजनीतिक दल ने विधान मंडल से लेकर संसद तक में इसके विरोध में एक शब्द नहीं बोला। तभी महसूस किया गया कि राजनीति में बढ़ती उच्छृंखलता का सामना करने के लिए राजनीतिक दल की अपरिहार्यता को स्वीकार करना होगा। देश में प्रजातंत्र के अस्तित्व के लिए जनसंघ का अवतरण आवश्यकता थी। आशंका व्यक्त की जा रही थी कि मुट्ठी भर लोग लोकतंत्र को अपनी गिरफ्त ले सकते हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आधारित राजनीतिक दल गठित करने का डॉ.मुखर्जी ने संकल्प व्यक्त किया। कहा जा सकता है कि भारतीय जनसंघ के अवतरण के साथ ही भारतीय राजनीति में राष्ट्रवाद का पुट मिला है। डॉ.मुखर्जी जब केन्द्रीय मंत्रि परिषद से मुक्त होकर बंगाल अपने गृह प्रदेश पहुंचे, उनका जिस आत्मीयता से स्वागत हुआ, उसने डॉ.मुखर्जी की दिशा और दशा तय कर दी थी।

डा.मुखर्जी के राष्ट्रवाद आधारित राजनीति के मिशन ने तत्कालीन कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को भी आंदोलित किया। डॉ. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने भी राष्ट्रवाद पर आधारित दल के गठन का स्वागत किया। तब के सरसंघचालक माननीय माधव सदाशिवराव गोलवलकर ने कलकत्ता में संघ कार्यालय में डा.मुखर्जी की अगली कार्ययोजना पर अपनी सहमति प्रदान कर दी। साथ ही स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि वे अपने कार्यकर्ता तो राष्ट्रवाद को समर्पित करेंगे। लेकिन राजनीति से उनका और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कुछ लेना देना नहीं रहेगा। पं.दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, नाना जी देशमुख, भाई महावीर, सुंदरसिंह भंडारी, जगन्नाथ सिंह जोशी, कुशाभाऊ ठाकरे जैसे समर्पित, सामर्थ्यवान स्वयंसेवकों के साथ डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की अक्टूबर, 1951 में रघुलय कन्या पाठशाला परिसर दिल्ली में स्थापना कर दी। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का 1975 तक जनता पार्टी में अपने विलय तक जनसंघ ने अलख जगाया। बाद में 5 अप्रैल, 1980 को जनता पार्टी से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी के रूप में उदय हुआ। मुंबई में तब जमा हुए अपार जनसागर को देखते हुए अखबारों ने लिखा था कि सिहांसन खाली करो जनता आती है। यही से भारतीय जनता पार्टी ने आगाज किया था। आंकड़ों की दृष्टि से जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकाल को जोड़कर विकास गाथा के 54 वर्ष पूर्ण हुए हैं। जबकि अखिल भारतीय कांग्रेस अपनी स्थापना के सवा सौ वर्ष पूरा कर चुकी है। दोनों के विचार दर्शन, जनाधार और लोकप्रियता के बारे में मोटे तौर पर यही कहा जा सकता है कि देश की जनता जहां भारतीय जनता पार्टी को उसके सात्विक, मूल स्वरूप में इस तरह देखना चाहती है जो पार्टी विथ डिफ्रेंस हो।

पार्टी अपनी विषिष्ठता लिये हुए हो। वहीं कांग्रेस में सब चलता है, देश की जनता को बर्दाश्त है। भारतीय जनता पार्टी केन्द्र की सत्ता तक ही नहीं पहुंची है, उसने कांग्रेस के विकल्प के रूप में अपने को स्थापित कर दिखाया है। भाजपा सिर्फ उत्तर भारत की पार्टी नहीं रही। कर्नाटक से दक्षिण का द्वार खोज दिया है। गठबंधन राजनीति का शिल्प भारतीय जनता पार्टी ने ही ंगढ़ा है। आज भले ही कांग्रेस यूपीए गठबंधन का नेतृत्व कर रही हो, भारतीय जनता पार्टी की विजय यात्रा के विषय में संदेह नही किया जा सकता है। कांग्रेस 1999 में सिमट कर लोकसभा में 114 सीटें प्राप्त कर पायी थी। भारतीय जनता पार्टी फिर भी 2009 में भले ही सत्ता शिखर पर नहीं पहुंची हो, उसका अंकबल 119 है। भाजपा 6 राज्यों में सत्ता में है। लोकसभा और राज्यसभा में मुख्य प्रतिपक्ष के दायित्व को सजगता से निर्वाह कर रही है। लिहाजा जो भाजपा में आये ठहराव को लेकर खुश फहमी में है, वे वास्तविकता से दूर हैं।

भारतीय राजनीति में डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी का पदार्पण भारतीय राजनीति में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नवोन्मेश के साथ हुआ राजनीतिक इतिहास में देशप्रेम, राष्ट्रवाद और स्वाधीनता प्रेम शब्दों को समानार्थी समझने की गलतफहमी दूर किये बिना डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी के भारतीय राजनीति में योगदान और राष्ट्रवाद के प्रवर्तन को समझना कठिन है। प्रखर राष्ट्रवाद की भावना समझे बिना डा मुखर्जी और भारतीय जनसंघ के मूलदर्शन को नहीं समझा जा सकता है। राष्ट्रवाद, देशभक्ति और स्वतंत्रता की चेतना से अधिक श्रेष्ठ है। राष्ट्रवाद देशप्रेम की वह प्रखर भावना है, जो देश की अखण्डता, देश की जनता के प्रति समर्पित करने की प्रेरणा देता है। इस जज्बा के बिना भी राष्ट्रप्रेमी बने रह सकते हैं। स्वतंत्रता प्रेम और उपभोग दोनों साथ साथ कर सकते हैं। आज शहीद शब्द का सबसे अधिक दुरुपयोग जिहादी कर रहे हैं। वे फियादीन भले बन जाए लेकिन किसी राष्ट्र के प्रति उनका कोई योगदान नहीं माना जा सकता है। माक्र्सवादी भी अपने को देशप्रेमी बताते हैं, लेकिन जब देश पर बाह्य आक्रमण होता है, तो पानी कहीं गिरता है वे छाता कहीं लगाते हैं। विश्व इतिहास इस बात का गवाह है कि कोई भी मुल्क राष्ट्रवाद की भावना के बिना समृध्दिशाली नहीं बना।

देश के विभाजन के साथ आगे पीछे जम्मू कश्मीर का भारत में विलय हो गया। देशी रियायतों के विलय का प्रभार जब गृहमंत्री सरदार पटेल को सौंपा गया, तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.नेहरू ने जम्मू कश्मीर का मामला अपने हाथ में रखा। इसके पीछे प्रेरणा गर्वनर जनरल माउंट वेटन की चाल थी अथवा पं.नेहरू और शेख अबदुल्ला के व्यक्तिगत रिश्ते कर रहे थे, यह शोध का विषय है। लेकिन जम्मू कश्मीर का मसला सुलझाने के बजाय पं.नेहरू ने उलझा दिया। शेख अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर का वजीरे आजम बनाकर राज्य को 370 के तहत विशेष दर्जा दिया गया। जम्मू-कश्मीर में प्रवेश परमिट से होने लगा। यह बात डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने बर्दाश्त नहीं की और घोषणा की कि देश में दो प्रधान, दो निशान और दो विधान नहीं चल सकते हैं। डॉ.मुखर्जी ने जम्मू कश्मीर में बिना परमिट के प्रवेश के लिए आंदोलन करते हुए बलिदान दिया। डॉ.मुखर्जी के बलिदान के परिणाम स्वरूप ही जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। परमिट व्यवस्था की विदायी उनकी शहादत का परिणाम है। जम्मू कश्मीर को भारतीय संविधान के तहत लाया गया और शेख अब्दुल्ला को वजीरे आजम का पद गंवाना पड़ा। शेख अब्दुल्ला ने अपनी आत्मकथा आतिशे चीनार में स्वीकार किया है कि उनके पूर्वज हिन्दू थे। स्वयं शेख अब्दुल्ला के पर दादा का नाम बालमुकंद कौला था। डॉ.मुखर्जी का बलिदान राजनीति में प्रखर राष्ट्रवाद की मिसाल है।

भारतीय जनसंघ को डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी का नेतृत्व यदि अधिक समय मिल पाता तो भारतीय लोकतंत्र की दशा और दिशा कुछ और होती। लेकिन विधि की विंडबना कि उन्हें जम्मू कश्मीर की सीमा से लौटने ही नहीं दिया गया लेकिन उन्होंने राष्ट्रवाद की जो आधार शिला रखी है, उस पर भारतीय लोकतंत्र गर्व कर सकता है। भारतीय जनसंघ का प्रथम अधिवेशन कानपुर में दिसम्बर 1952 और जनवरी, 1953 में हुआ था, उसमें ही डॉ.मुखर्जी अखिल भारतीय अध्यक्ष चुने गए थे।

मौलीचंद शर्मा, पं.दीनदयाल उपाध्याय और डॉ.महावीर भाई राष्ट्रीय महामंत्री मनोनीत किये गये थे। कानपुर अधिवेशन में ही जम्मू कश्मीर आंदोलन का डॉ.मुखर्जी ने निर्णय लेकर घोषणा की थी जिस पर पूरी सिद्दत से अमल किया गया। कानपुर अधिवेशन में ही जनसंघ को अखिल भारतीय विस्तार मिल गया था। उड़ीसा, मध्यप्रदेश की शानदार भागीदारी हुई थी। गणतंत्र परिषद का जनसंघ में विलय भी हुआ था। डॉ.मुखर्जी की ख्याति भारत के बाहर कई देशों तक पहुंच चुकी थी और उनका विदेश प्रवास भारत की राजनीति का नई दिशा देने में सक्षम था। लेकिन विधि को ऐसा मंजूर नहीं था। भारत के विभाजन के प्रस्ताव पर डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी के विरोध के स्वर इतिहास के तथ्य बन चुके है। उन्होंने विरोध किया और बंगाल तथा असम का बड़ा भाग पाकिस्तान में जाने से बच गया। पूर्वी पाकिस्तान को स्वतंत्र देश घोषित करने की योजना डॉ.मुखर्जी की थी और जनसंघ ने प्रस्ताव भी पारित किया था। अंत में इसका श्रेय श्रीमती इंदिरा गांधी को मिला और उन्होंने भारत पाकिस्तान युध्द में पाकिस्तान को भी खंडित कर दिया। डॉ.मुखर्जी के असामयिक अवसान के पश्चात पं.दीनदयाल उपाध्याय और पं.अटल बिहारी वाजपेयी ने जनसंघ की बागडोर संभाली। भारतीय राजनीति के क्षितिज पर भारतीय जनसंघ की राष्ट्रवादी छवि बनने के कई मौलिक कारण रहे हैं। यहां सभी राजनीतिक महत्वाकांक्षा, आशा, आकांक्षा से परे रहे हैं। किसी विदेशी चिंतन का प्रभाव दूर दूर तक नही था। एक राष्ट्र एक प्राण ही मूल मंत्र था। जनसंघ की वही गौरवशाली विरासत भारतीय जनता पार्र्टी को उत्तराधिकार में प्राप्त हुई। भारतीय जनता पार्टी के सामने भारतीय जनसंघ का विकसित रूप साबित करने का महान अवसर और बड़ी चुनौती भी मिली है। देश की क्षेत्रीय अखण्डता के प्रति अन्य दलों के नजरिया से कोई भी अनजान नहीं है।

रोचक तथ्य है कि भारतीय जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी के विस्तार तक उसकी रीति-नीति, व्यवहार और आचरण की धुरी राष्ट्रवाद बना हुआ है। कश्मीर हो या अल्पसंख्यकवाद, धर्मनिरपेक्षतावाद हिंदुत्व पार्टी राष्ट्रवाद के केनवास पर चल रही है। अन्य दल धर्मनिरपेक्षता की आड़ में देश के राजनीतिक और सामाजिक ताना-बाना को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। इससे अल्पसंख्यकवाद, कट्टरवाद और अलगाववाद को हवा मिल रही है। भाजपा की ताकत से संशकित दलों ने अस्पृष्यता का व्यवहार किया जिसे जनता ने झुठला दिया। राजनीतिक स्वार्थों को ताक पर रखकर राष्ट्रहित का संवर्धन करने में भाजपा का कोई सानी नहीं है। आने वाले समय में कसौटी पर खरी उतरे, इसके लिए जनता के साथ संघर्ष करना उसका मिशन बना हुआ है।

– भरत चंद्र नायक

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here