नीतीश जी ने कल कहा “मिट्टी में मिल जाऊंगा पर फिर भाजपा का साथ नहीं लूंगा।” इनकी कथनी और करनी में सदैव ही विरोधाभास रहा है। बीते वर्ष बस एक ही वाकया काफी है इसे साबित करने के लिए “ये सर्वविदित है कि नीतीश जी कांग्रेस विरोधी आंदोलन की उपज हैं और राजनीति की सीढ़ियां भी। इन्होंने उसकी मदद से ही चढ़ीं, लेकिन अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब उसी कांग्रेस से ‘प्यार की पींगें’ बढ़ाने में उन्होंने ने कोई कसर ही नहीं छोड़ी, उन पर ‘प्यार का परवान’ तो ऐसा चढ़ा था कि केन्द्र सरकार के एक मंत्री के साथ वो पटना स्थित कांग्रेस के दफ्तर के गेट तक जा पहुंचे थे।” ‘कांग्रेस-प्रेम’ में उन्होने कैसे-कैसे “कसीदे “ पढे थे , उसे शायद वो भूल जाएँ लेकिन बिहार की जनता और मेरे जैसे लोग कदापि नहीं भूलेंगे। आज जब चुनावी गठबंधन का उनका “संजोया हुआ ख्वाब” पूरा नहीं हुआ तो वो आज सरेआम कांग्रेस को फिर से कोसते हुए नजर आ रहे हैं लेकिन विधानसभा में कांग्रेस के समर्थन से उन्हें कोई परहेज नहीं है।
पिछले २३-२४ सालों की नीतीश जी की “सियासी प्रेम-गाथाओं” पर एक सरसरी निगाह फेरने से ही पता चल जाता है कि नीतीश जी “महबूब” बदलने में माहिर रहे हैं। १९९० के शुरुआती दशक में नीतीश जी जनता दल में थे और उनका “लालू –प्रेम” अपने परवान पर था, नीतीश और उनके “महबूब (लालू)” पर एक-दूसरे पर प्यार का ऐसा रंग चढ़ा था कि दोनों की बोली भी एक सी ही थी। फिर अचानक नीतीश जी के महत्वाकांक्षी दिल ने कुलाचें मारीं और ये “समता–पार्टी “ नामक “ लवर्स–लेन “ में एक नई ‘माशूका’ ढूंढ़ने निकल पड़े, लेकिन यहां भी उनका “आलू सरीखा कहीं भी उग जानेवाला दिल” अपने मुहब्बत की कुछ “बम्पर-फसल” नहीं उगा सका। लेकिन नीतीश जी की “महबूब “ की तलाश जारी रही और उन्होंने “जनता दल (यू) नामक एक “लवर्स –पार्क” ही डेवलप कार डाला और ‘नई माशूका’ के साथ दिल्ली से लेकर पटना तक “प्यार के तराने” गाए। लेकिन जब फिर कांग्रेस रूपी एक नई “बाला” ने नीतीश जी पर डोरे –डालने शुरू किए तो एकबारगी फिर से नीतीश जी का दिल “फिसल” बैठा और पहले वाली माशूका “चुड़ैल “ नजर आने लगी और नीतीश जी “मैं सब कुछ लुटा दूंगा तेरी चाहत में…” गाते दिखने लगे। लेकिन इस बार “महबूबा” ही शातिर निकली और उसने अपने और भी चाहने वालों के साथ भी “मुहब्बत की गुटुर –गूं” जारी रखी और एक दिन नीतीश जी को “क्या से क्या हो गया बेवफा…” गाता हुआ छोड़कर “रफ्फू-चक्कर“ हो गई।
आइये आगे थोड़ी चर्चा भा.ज.पा. के साथ उनके “प्रेम-प्रलापों“ की की जाए। आज जिस नरेंद्र मोदी से उन्हें “ आई हेट नरेंद्र मोदी वाली बीमारी “ लग गई है , उसी नरेंद्र मोदी की “अदाओं” पर फिदा हो कर उन्होंने सार्वजनिक मंच पर अपने “मोदी प्रेम” का इजहार किया था। तारीफ़ में कसीदे पढे थे वो भी तब जब मोदी बाकियों की आंखों में खटक रहे थे। मोदी भी भा.ज.पा. में थे और भा.ज.पा. का मूल स्वरूप भी आज की ही तरह था। क्या उस समय सत्ता के “प्यार का खुमार” उनकी आंखों पर चढ़ा था या उनके लिए बिहार की गद्दी हासिल करने के लिए एकमात्र “लौंचिंग-पैड” तक पहुंचने का रास्ता भा.ज.पा. नामक “प्रेम-नगरी “ से ही हो कर गुजरता था ?
अब कल ही बात लीजिए पुरानी “महबूब की नगरी” से बिदक कर आए हुए ‘पकिया भगवा रंग’ में रंगे एक ‘बूढ़े घोड़े’ को नीतीश जी के आदेश पर उनके ‘द्वारपाल’ जैसे ‘दुलार-पुचकार’ रहे थे, उसे देखकर तो ये जरूर लगता है कि ‘पुरानी मुहब्बत की कसक’ नीतीश जी को अभी भी कहीं ना कहीं कचोट रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि “दिल पे चोट खाए हुए आशिकों का पसंदीदा गाना ‘जिधर देखूं तेरी तस्वीर नजर आती है …’ आजकल नीतीश जी भी गुनगुना रहे हैं!”
क्या नीतीश जी को ये एहसास हो चुका है कि उनकी मिट्टी में मिलने की बारी आ चुकी है ! वैसे भी ‘अमर प्रेम गाथाओं’ का अंत ‘ट्रैजिक’ ही होता। शायद अपने ‘मुहब्बत के सफर’ की जनता के द्वारा पर्दे की पीछे लिखी गई पटकथा को भली भांति भांप चुके हैं नीतीश जी। तभी तो उनके द्वारा ठुकारायी गई ‘माशूकाएं’ कह रही हैं “अभी तो पिक्चर बाकी है मेरे दोस्त…!”