लाल आतंक से आज़ाद होने का सही वक्त

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डॉ. मयंक चतुर्वेदी

सरकार बदली और वक्त बदला तो लाल आतंक के गुनहगारों ने भी अपना भेष बदलना शुरू कर दिया है। छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सली वारदात के बाद केंद्र और राज्य सरकारों ने जिस प्रकार की इन माओवादियों के खि‍लाफ कठोर कार्रवाही करना शुरू किया, उसके बाद से नक्सली यह सोचने लगे कि वे अपना सत्ता पर काबिज होने का स्वप्न पूरा कर पायेंगे कि नहीं। फिर केंद्र में भाजपा की सरकार के आने के बाद तो उन्हें अपने लिए और मुश्क‍िलें दिखाई देने लगी हैं, शायद इसीलिए आज वे नए संगठन और नए रूप में प्रगट होने की जद्दोजहद करते नजर आ रहे हैं। तभी तो बिहार, मध्य प्रदेश और झारखंड की जेलों से छूटे चार दर्जन नक्सलियों को अपने टीपीसी नाम से नया संगठन खड़ा करना पड़ा है, जो इन दिनों अपना नेटवर्क बढ़ाने के लिए पूरी ताकत लगाए हुए हैं। लेकिन इन नक्सलियों को यह समझना ही होगा कि हिंसा से शांति और विकास का रास्ता कतई नहीं बनाया जा सकता । आज नहीं तो कल इस रास्ते को छोड़कर ही विकास संभव है।

वस्तुत: आंध्र, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार, पश्चिमबंगाल, महाराष्ट्र सहित देश के आधे से ज्यादा राज्यों में माओवादी नक्सलियों का हिंसात्मक ताण्डव रूक-रूककर जिस तरह चल रहा है, उसने हमारे लोकतंत्रात्मक देश के सामने अनेक प्रश्न खड़े कर दिये हैं। मार्क्स, लेनिन, माओत्सेतुंग को अपना आदर्श मानने वाले यह नक्सली सख्त कानून और सजा के अभाव में आज देश के 14 राज्यों के 200 से अधिक जिलों में अपना सघन विस्तार कर चुके हैं। दु:ख इस बात का है कि स्वयं को समाजवाद और गरीब, पिछडों का हमदर्द बताने वाले तथाकथित बौध्दिक वर्ग का सहयोग इन्हें यह कहकर प्राप्त होता रहा है कि भारत में नक्सली अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं, किन्तु सच्चाई इसके विपरीत है। एक अनुमान के अनुसार देश के 30 प्रतिशत हिस्से पर इनका कब्जा है। पिछले 40 वर्षों में यह माओवादी नक्सली एक लाख से अधिक बेगुनाह लोगों की हत्या कर चुके हैं और देश के 16 लाख लोग इनकी हिंसात्मक गतिविधियों के किसी न किसी रूप में शिकार हुए हैं।

भारत में यह माओवादी समाजवाद की कोरी स्थापना का जो स्वप्न दिखाते हैं, उसका यथार्थ यह है कि इस स्वर्ग की सबसे पहले स्थापना कम्बोडिया, सोवियत संघ और चीन में की गई। इस कोरे स्वप्न को सकार करने के उद्देश्य से समाजवाद का घोर शत्रु मानकर अकेले सोवियत संघ में स्टालीन ने 30 करोड़ लोगों को मौत दे दी थी । यही काम माओत्सेतुंग ने चीन में किया उसने भी अपने विरोधियों तथा स्वतंत्र मत रखने वालों को राज्य विरोधी बताया और 4 करोड़ से अधिक चीनियों को मौत के घाट उतार दिया था। कम्बोडि़या की स्थिति चीन तथा रूस से कम खराब नहीं थी। इस समाजवाद के तूफान ने वहाँ कि 30 प्रतिशत आबादी का लहू सड़कों पर बहा दिया। यही है इस माओवादी विचारधारा का असली चेहरा, जो अपने शत्रुओं को तो बहुत दूर की बात है अपनी तथ्य परक आलोचना करने वालों को भी बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं।

देश में माओवादी हिंसा को लेकर दुखद पहलु यह है कि नक्सलियों के शिकार आज वह राज्य हो रहे हैं जो विकास में कहीं पिछड़े हैं, जहाँ अधिकांश आबादी आदिवासी है। भारत में इनके निशाने पर जो राज्य हैं वह आदिवासी बहुल्य ही हैं। एक तरफ यह भोले आदिवासियों और ग्रामवासियों को राज्य सरकारों पर यह आरोप लगा कर भड़काते हैं कि राज्य को तुम्हारे विकास की चिंता नहीं, वहीं दूसरी ओर सड़क, स्कूल, व्यापारिक केन्द्रों के निर्माण जैसे राज्य सरकारों द्वारा कराए जाने वाले विकास का विरोध करते हैं। राज्य यदि आज इनके कब्जे वाले क्षेत्रों में विकास की योजनायें लेकर जाता है तो यह बारूदी सुरंग बिछाकर उसे उड़ा देते हैं। राज्य की जनकल्याणकारी योजनायें इनसे प्रभावित जिलों में आज इसलिए ही असफल हो रही हैं क्योंकि माओवादी यह नक्सली नहीं चाहते कि यहाँ अन्य जिलों की तरह विकास हो और आम आदमी सीधा राज्य से जुड़े। इन्होंने आंध्र-उड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, झारखण्ड, बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश राज्यों के जंगलों में अपना कब्जा जमाया है वहाँ प्राकृतिक संपदा की भरकार है, सोना-चाँदी, अयस्क, हीरे, जवाहरात की बेश कीमती खदाने मौजूद हैं। देश की नेपाल सीमा तक खूनी खेल खेल रहे यह नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्र से प्रतिवर्ष 25 से 30 अरब रूपये वसूल रहे हैं, जिससे न केवल इनकी असामाजिक गतिविधियाँ चलती है। बल्कि देशी-विदेशी हथियार खरीदने के साथ बुध्दिजीवियों में यह धन का अत्याधिक उपयोग करते हुए अपनी पैठ जमाने में भी सफल हो जाते हैं।

यदि यह नक्सलवादी शासन विरोधी लड़ाई को सही मानते हैं और इसके पीछे तर्क देते हैं कि यह आदिवासियों तथा गरीबों के हक में लड़ रहे हैं तो यह कैसी लड़ाई और हक है ? जिसमें यह अपने प्रभाव क्षेत्र में विकास के विरोधी हैं। यह जो इनके द्वारा अरबों रूपए की वसूली अधिकरियों, कर्मचारियों, व्यापारियों तथा ठेकेदारों से की जा रही है यह वसूली किसके लिए और क्यों ? वास्तव में नक्सलियों को गरीबों से कोई लेनादेना नहीं, गरीबों का तो केवल नाम है, जिनके नाम का इस्तेमाल कर यह स्यापा करते हैं और मीडिया की सुर्खियाँ बटोरते हैं। माओवादी इन नक्सलियों का उद्देश्य भारत को टुकडों-टुकडों में बांट देना है, इनका मुख्य कार्य केवल इतना ही है कि तत्कालीन शासन व्यवस्था के विरोध में आमजन में जहर भरा जाए ताकि वह हथियार थामकर सत्ता प्राप्ति के उनके स्वप्न को साकार करने में मददगार साबित हो सके।

देश में आज नक्सलियों की संख्या हजारों में है, जिनके लिए मानवता की कोई कीमत नहीं, अब यह कुछ राज्यों तक ही सीमित नहीं रहना चाहते इनके संगठन पीपुल्सवार और एमसीसीआई आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, झारखण्ड और पश्चिमबंगाल से निकलकर उत्तरप्रदेश , कर्नाटक और केरल में भी अपने कार्य के विस्तार में लगे हुए हैं। साथ ही यह टीपीसी जैसे कई छद्म नामों से भी अपने नेटवर्क को बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं।

वस्तुत: जिस समाजवाद की स्थापना का यह स्वप्न देखते हुए और आगामी 50 वर्षों में भारत की सत्ता पर कब्जा करना चाहते हैं उनसे आज यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि यदि यह समाजवाद इतना ही अच्छा है तो इस विचार के जनक कार्ल हाइनरिख मार्क्स और उसके देश जर्मनी में यह क्यों नहीं आज तक पनप सका ? आखिर चीन क्यों अमेरिका के पूंजीवादी रास्ते पर चल रहा है ? और फिर रूस इस साम्यवादी मॉडल को अपनाकर छिन्न-भिन्न क्यों हो गया ? यह नेपाल में क्यों नहीं अपनी सत्ता बना कर रख पाये ? आखिर क्यों भारत में भी पश्चिम बंगाल से जनता ने सत्ता से इनका सफाया कर दिया।

भाजपा ने सरकार बनाने के पहले जनता में जो अच्छे दिन आने की आस जगाई है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पिछले पांच माह के कार्यों से वह झलकने लगी है। देशभर में चल रही माओवादी आतंकी ग‍तिविधि‍यों पर अंकुश लगाने और उन्हें पूरी तरह समाप्त करने की दृष्टि से चारो-ओर आशा की किरण नजर आ रही है।  आज जरूरत नक्सली चुनौती से राज्य और केंद्र सरकार को एकजुट होकर लड़ने की है। नक्सलवाद के खात्में के लिए जिस संघीय व्यवस्था के निर्माण की बात वर्षों से केवल कागजों में चल रही है जरूरत अब उसे शीघ्र व्यवहार में लाने की है। यह इसीलिए भी जरूरी है क्यों कि यदि नक्सलवाद को अभी ठोस कदम उठाकर नहीं रोका गया तो वह दिन दूर नहीं जब भारत भी सोवियत रूस की तरह अनेक भागों में विभक्त हो जाए। वस्तुत: केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बनने के बाद से देश की जनता ने अच्छे दिन आने के स्वप्न देखना शुरू कर दिए हैं ऐसे में उम्मीद की जा रही है कि सरकार लाल आंतक के गुनहगारों के लिए भी कोई स्थायी दमन नीति बना कर उन्हें मुख्यधारा में जोड़ने में सफल होगी। वैसे भी मोदी पहले से ही अपने कठोर और नीतिगत निर्णयों के लिए जाने जाते हैं। केंद्र में अपनी स्थायी सरकार बनाने के बाद से जिस प्रकार वह देशहित में एक के बाद एक निर्णय ले रहे हैं, उन्हें देखते हुए आशा की जानी चाहिए कि देश को लाल आतंक से आजाद होने का अब सही वक्त आ गया है।

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मयंक चतुर्वेदी
मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।

1 COMMENT

  1. तीस करोड़ तो पुरे सोवियत संघ की आबादी भी नहीं थी तो स्टालिन ने किस प्रकार तीस करोड़ लोगों को मौत की सजा दे दी?आंकड़े छापने में त्रुटि स्वयं स्पष्ट है. ये संख्या तीन करोड़ होगी.चीन में चार करोड़ की संख्या कुछ काम बताई गयी है.ये संख्या दस करोड़ के आसपास रही होगी.सांस्करतिक क्रांति के दौर में भारी खूनखराबा हुआ था.

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