ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ में अग्निहोत्र यज्ञ का यथार्थ स्वरूप

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मनमोहन कुमार आर्य

वैदिक साहित्य में ऋषि दयानन्द कृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ का प्रमुख स्थान है। यह ग्रन्थ उनके चारों वेदों के भाष्य की भूमिका है जिसमें उन्होंने वेदों में निहित कुछ महत्वपूर्ण विषयों का यथार्थ वैदिक स्वरूप प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ का एक अध्याय है ‘पंचमहायज्ञविषयः’। इस अध्याय के आरम्भ में ऋषि दयानन्द ने यजुर्वेद एवं अथर्ववेद से अग्निहोत्र करने के प्रमाण प्रस्तुत किये हैं और उनका संस्कृत हिन्दी में भाष्य भी किया है। वह लिखते हैं कि मनुष्यों को पंचमहायज्ञ जो कर्म नित्य करने चाहियें उनका विधान संक्षेप से लिखते हैं। पंचमहायज्ञों में प्रथम यज्ञ ब्रह्मयज्ञ कहलाता है। इस ब्रह्मयज्ञ में वेदों के 6 अंगों सहित वेदादि शास्त्रों को पढ़ना पढ़ाना तथा सन्ध्योपासन अर्थात् प्रातःकाल और सायंकाल में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना सब मनुष्यों को करनी चाहिये। पठन पाठन की विधि के विषय में उन्होंने ‘सत्यार्थप्रकाश’ ग्रन्थ के तृतीय समुल्लास में विस्तार से लिखा है। उसी के अनुसार सबको अध्ययन करने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये। सन्ध्या और अग्निहोत्र के विधान के विषय में भी वह कहते हैं कि इसे भी पंचमहायज्ञ विधि में देख व जान लें।

 

ब्रह्मयज्ञ और अग्निहोत्र विषयक उनके द्वारा प्रमाण रूप में दिये गये चार वेदमन्त्रों का पदार्थ बताते हुए वह लिखते हैं-‘हे मनुष्यों! तुम लोग वायु, ओषधी और वर्षा जल की शुद्धि से सबके उपकार के अर्थ घृतादि शुद्ध वस्तुओं और समिधा अर्थात् आम्र वा ढाक आदि काष्ठों से अतिथिरूप अग्नि को नित्य प्रकाशमान करो। फिर उस अग्नि में होम करने योग्य पुष्ट, मधुर, सुगन्धित अर्थात् दुग्ध, घृत, शर्करा, गुड़, केशर, कस्तूरी आदि और रोगनाशक जो सोमलता आदि सब प्रकार से शुद्ध द्रव्य हैं, उनका अच्छी प्रकार नित्य अग्निहोत्र करके सबका उपकार करो।।’ (मन्त्रः समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्। आस्मिन् हव्या जुहोतन।।)

 

यज्ञ करने विषयक दूसरे वेद प्रमाण का अर्थ करते हुए वह लिखते हैं ‘अग्निहोत्र करने वाला मनुष्य ऐसी इच्छा करे कि मैं प्राणियों के उपकार करने वाले पदार्थों को पवन और मेघमंडल में पहुंचाने के लिये अग्नि को सेवक की नाईं (तरह से) अपने सामने स्थापित करता हूं। (इसलिए अग्निहोत्र करता हूं) क्योंकि वह अग्नि हव्य अर्थात् होम करने के योग्य वस्तुओं को अन्य देश में पहुंचाने वाला है। इसी से उसका नाम ‘हव्यवाट्’ है। जो उस अग्निहोत्र को जानना चाहैं, उनको मैं (परमेश्वर) उपदेश करता हूं कि वह अग्नि उस अग्निहोत्र कर्म्म से पवन और वर्षा-जल की शुद्धि से इस संसार में श्रेष्ठ गुणों को पहुंचाता है।’ इसी मन्त्र अन्य वा दूसरा अर्थ करते वह लिखते हैं ‘हे सब प्राणियों को सत्य उपदेशकारक परमेश्वर! जो कि आप अग्नि नाम से प्रसिद्ध हैं, मैं इच्छापूर्वक आपको उपासना करने के योग्य मानता हूं। ऐसी कृपा करो कि आपको जानने की इच्छा करनेवालों के लिये भी मैं आपका शुभगुणयुक्त विशेष ज्ञानदायक उपदेश करूं तथा आप भी कृपा करके इस संसार में श्रेष्ठ गुणों को पहुंचावें।।’ (दूसरा वेदमंत्र हैः अग्निं दूतं परो दधे हव्यवाहमुपब्रुवे। देवां ऽआ सादयादिह।।)

 

तीसरे मंत्र का पदार्थः प्रतिदिन प्रातःसायं श्रेष्ठ उपासना को प्राप्त गृहपति को घर और आत्मा का रक्षक भौतिक अग्नि (अग्निहोत्र) और परमेश्वर उन्हें आरोग्य, आनन्द और वसु अर्थात् धन का देनेवाला है। इसी से परमेश्वर धनदाता नाम से प्रसिद्ध है। हे परमेश्वर! आप मेरे राज्य पालन आदि व्यवहार और चित्त में सदा प्रकाशित रहो। इस मंत्र में यहां अग्नि शब्द से परमेश्वर सहित भौतिक अग्नि भी ग्रहण करने के योग्य है। हे परमेश्वर जैसे पूर्वोक्त प्रकार (उपासना व यज्ञादि) से हम आपका मान करते हुए अपने शरीर से पुष्ट होते हैं, वैसे ही भौतिक अग्नि को भी प्रज्वलित करते हुए (अग्निहोत्र यज्ञ से) पुष्ट हों। (मंत्रः सायंसायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातः प्रातः सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधि वयं त्वेन्धानास्तन्वं पुषेम।।)

 

चतुर्थ मन्त्र का अर्थः इस मन्त्र का अर्थ भी उपर्युक्त तृतीय मन्त्र के तुल्य ही है। इतना विशेष है कि अग्निहोत्र और ईश्वर की उपासना करते हुए हम लोग सौ हेमन्त ऋतु व्यतीत हो जाने पर्यन्त, अर्थात् सौ वर्ष तक, (आरोग्य, आनन्द व) धनादि पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त हों।। (मंत्रः प्रातःप्रातर्गृहपतिर्नो अग्निः सायंसायं सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधीन्धानास्त्वा शतंहिमा ऋधेम।।)

 

स्वामी दयानन्द जी आगे लिखते हैं कि अग्निहोत्र करने के लिए ताम्र वा मिट्टी की वेदी बना के काष्ठ, चांदी वा सोने का चमसा (चम्मच) अर्थात् अग्नि में पदार्थ डालने का पात्र और आज्यस्थाली अर्थात् घृतादि पदार्थ रखने का पात्र लेके उस वेदी में ढाक या आम्र आदि वृक्षों की समिधा स्थापन करके अग्नि को प्रज्जवलित करके घृत व यज्ञीय पदार्थों का प्रातःकाल और सायकाल अथवा प्रातःकाल ही नित्य होम करें।

 

इन 4 वेद प्रमाणों का शब्दार्थ वा भाष्य करने के बाद ऋषि दयानन्द ने दैनिक अग्निहोत्र के मन्त्रों का भाष्य प्रस्तुत किया है। हम यहां हिन्दी भाष्य प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रातःकाल की 4 आहुतियों का भाष्य क्रमशः इस प्रकार है। प्रथमः जो चराचर जगत् का आत्मा, प्रकाशस्वरूप और सूर्यादि प्रकाशक लोकों का भी प्रकाश करनेवाला है, उसकी प्रसन्नता के लिये हम लोग होम करते हैं (और यह प्रथम आहुति देते हैं।)।।1।। सूर्य जो परमेश्वर है, वह हम लोगों को सब विद्याओं को देने वाला और हमसे उनका प्रचार कराने वाला है, उसी के अनुग्रह से हम लोग अग्निहोत्र करते हैं (और यह दूसरी आहुति देते हैं।)।।2।। जो आप प्रकाशमान और जगत् का प्रकाश करनेवाला सूर्य अर्थात् संसार का ईश्वर है, उसकी प्रसन्नता के अर्थ हम लोग होम करते हैं।।3।। जो परमेश्वर सूर्यादि लोकों में व्याप्त, वायु और दिन के साथ संसार का परम हितकारक है, वह हम लोगों को विदित होकर हमारे किये हुए होम को ग्रहण करें। (इस भावना से यह आहुति देते है)।।4।। ऋषि लिखते हैं कि इन चारों आहुतियों से प्रातःकाल अग्निहोत्री लोग होम करते हैं।

 

ऋषि ने सायकाल के चार मंत्रों के भी अर्थ दिये हैं। प्रथम मंत्र का अर्थः अग्नि नामी जो ज्योतिस्वरूप परमेश्वर है उसकी आज्ञा से हम लोग परोपकार के लिये होम करते हैं और उसका रचा हुआ यह भौतिक अग्नि इसलिये है कि वह उन द्रव्यों को परमाणुरूप कर के वायु और वर्षा जल के साथ मिला के शुद्ध कर दे, जिससे सब संसार को सुख और आरोग्यता की वृद्धि हो।।1।। द्वितीय सांयकालीन मंत्र का अर्थः अग्नि परमेश्वर वर्च्च अर्थात् सब विद्याओं का देनेवाला और भौतिक अग्नि आरोग्यता और बुद्धि का बढ़ानेवाला है। इसलिये हम लोग होम से परमेश्वर की प्रार्थना करते हैं। यह दूसरी आहुति है।।2।। तृतीय मंत्रार्थः तीसरी आहुति मौन होकर प्रथम मंत्र से ही की जाती है। अतः इसका अर्थ वही है जो प्रथम मंत्र का है।।3। चतुर्थ आहुति मंत्रार्थः जो अग्नि परमेश्वर सूर्यादि लोकों में व्याप्त वायु और रात्रि के साथ संसार का परमहितकारक है, वह हमको विदित/प्रसन्न होकर हमारे किये हुए होम का ग्रहण करे।।4।।

 

इसके बाद पूर्णाहुति से पूर्व पांच मंत्रों का विधान किया है। इनके अर्थों के विषय में ऋषि लिखते हैं कि भूः इत्यादि जो नाम हैं वह सब ईश्वर के जानने चाहिये। उनके द्वारा गायत्री मन्त्र के अर्थ में इनके अर्थ किये गये हैं जिन्हें वहां देखा जा सकता है। यहां एक महत्वपूर्ण निर्देश करते हुए ऋषि ने लिखा है कि इस प्रकार प्रातःकाल और सायंकाल सन्ध्योपासन के पीछे उक्त मन्त्रों से होम करके अधिक होम करने की इच्छा हो तो, ‘स्वाहा’ शब्द अन्त में पढ़ कर गायत्री मन्त्र से करें। अग्निहोत्र यज्ञ का उपसंहार करते हुए वह संक्षेप में लिखते हैं कि जिस कर्म में अग्नि या परमेश्वर के लिये, जल और पवन की शुद्धि वा ईश्वर की आज्ञापालन के अर्थ होत्र हवन अर्थात् दान करते हैं, उसे ‘अग्निहोत्र’ कहते हैं। जो जो केशर कस्तूरी आदि सुगन्धि, घृत दुग्ध आदि पुष्ट, गुड़ शर्करा आदि मिष्ट, बुद्धि बल तथा धैर्यवर्धक और रोगनाशक पदार्थ हैं, उनका होम करने से पवन और वर्षाजल की शुद्धि से पृथिवी के सब पदार्थों की जो अत्यन्त उत्तमता होती है, उसी से सब जीवों को परमसुख होता है। इस कारण अग्निहोत्र करनेवाले मनुष्यों को उस उपकार से अत्यन्त सुख का लाभ होता है ओर ईश्वर उन पर अनुग्रह करता है। ऐसे ऐसे लाभों के अर्थ अग्निहोत्र करना अवश्य उचित है। यह भी बता दें कि पंचमहायज्ञविधि में ऋषि ने अग्निहोत्र में एक छटांक घृत, जो कि यज्ञ करने के लिए न्यूनतम मात्रा प्रतीत होती है, यज्ञ करने का विधान किया है। अधिक घृत यज्ञकर्ता अपनी सामर्थ्यानुसार प्रयोग कर सकते हैं। पंचमहायज्ञ विधि में ऋषि ने यह भी लिखा है कि ईश्वर अग्निहोत्र यज्ञ करने वाले मनुष्यों पर प्रसन्न होता है। यज्ञ से सब जीवों को परमसुख होता है। इस कारण अग्निपहोत्र कर्म करने वाले मनुष्यों को भी जीवों के उपकार करने से अत्यन्त सुख का लाभ होता है।

 

ऋषि दयानन्द आप्त पुरुष, ऋषि, मुनि वा महर्षि थे। उन जैसा वेदज्ञानी, वेदभक्त व ईश्वरभक्त महाभारत काल के बाद दूसरा उत्पन्न नहीं हुआ। उनका एक एक शब्द सत्य है। उन्होंने अतिश्योक्ति से काम नहीं लिया है। उन्होंने जो कहा है वह सब लाभ देश, समाज तथा यज्ञकर्ता को अवश्य प्राप्त होते हैं। यज्ञ से अनेकानेक अन्य लाभ भी होते हैं। इसके लिए डा. रामनाथ वेदालंकार जी की ‘यज्ञ-मीमांसा’ पुस्तक पठनीय है। लगभग 15 वर्ष पूर्व जब यह पुस्तक अनुपलब्ध थी तब हमने आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी से इसका नया संस्करण प्रकाशित कराने की प्रार्थना की थी। उन्होंने पूर्व संस्करण को संशोधित व परिवर्धित कर इसे ‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली’ से प्रकाशित कराया। सौभाग्य से यह पुस्तक इस समय उपलब्ध है। इस विषय का ऐसा महत्वपूर्ण ग्रन्थ अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। यज्ञ प्रेमियों को इस पुस्तक को पढ़कर लाभ उठाना चाहिये। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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