“ऋषि दयानन्द जयन्ती वेद, धर्म एवं संस्कृति का पुनरुद्धार दिवस”

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-मनमोहन कुमार आर्य

ऋषि दयानन्द का जन्म फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की दशमी सम्वत १८८१ विक्रमी  (12-2-1825) को हुआ था। यह वह समय था जब सारा देश ही नहीं अपितु विश्व भी वेद व उसकी सत्य शिक्षाओं को भूल चुका था। ऋषि दयानन्द एक कट्टर पौराणिक पिता व परिवार में जन्में थे। उनके पिता शैव मत के अनुयायी थे। अपने पुत्र को भी वह शैव मत का निष्ठावान अनुयायी बनाना चाहते थे। ऋषि दयानन्द अपनी बाल्यावस्था में इसके लिये तैयार थे। उनमें धर्म पालन का उत्साह था परन्तु वह शैव मत की प्रत्येक मान्यता को अपनी बुद्धि व तर्क की कसौटी पर कसकर ही उसे स्वीकार करना चाहते थे। यही कारण था कि अपनी आयु के चौदहवें वर्ष में जब उन्होंने अपने पिता के कहने पर शिवरात्रि का व्रत रखकर पूजन करना स्वीकार किया तो उन्होंने पिता के साथ शिवरात्रि को टंकारा के शिवमन्दिर में जागरण करते हुए वहां के मन्दिर में जो घट रहा था उसे जानने व समझने की चेष्टा की। चूहों का शिव की मूर्ति वा शिवलिंग पर स्वतन्त्रता पूर्वक विचरण करना उनके लिए शिव की मूर्ति को सर्वशक्तिमान स्वीकार करने में बाधक बना। वह जान गये कि यह मूर्ति शिवपुराण की कथा के अनुरूप ज्ञानवान व सर्वशक्तिमान नहीं है। यदि वह सर्वशक्तिमान होती तो फिर चूहों को भगाना उसके लिये असम्भव न होता। शिवमूर्ति का चूहों का उस समय उत्पात सहन करने का अर्थ था कि शिव की मूर्ति शक्तिविहीन है। इस कारण शिव मूर्ति की पूजा-उपासना व उससे स्तुति तथा प्रार्थना आदि करने का कोई लाभ नहीं था। यही घटना उनके जीवन में बोध लेकर आई और इसी ने न केवल वेदों का पुनरुद्धार ही किया अपितु उन्हें संसार को मूर्तिपूजा की निरर्थकता बताते हुए देश व समाज में प्रचलित अन्धविश्वासों, मिथ्या परम्पराओं एवं अज्ञान पर आधारित निरर्थक सामाजिक मान्यताओं का प्रकाश व खण्डन करने की प्रेरणा की। ऋषि दयानन्द ने ही वेदों के आधार पर ईश्वर के सत्यस्वरूप, गुण, कर्म व स्वभावों का प्रकाश एवं प्रचार किया। उपासना की वैदिक विधि जो युक्ति व प्रमाणों से पुष्ट होने के साथ मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार कराती है, उससे भी उन्होंने देशवासियों वा जिज्ञासुओं को परिचित कराया। ऋषि दयानन्द ने सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिये जो पुरुषार्थ किया उसी के परिणाम से देश के सच्चे बुद्धिजीवियों को ईश्वर व धर्म का सत्य स्वरूप विदित हुआ। ऐसा करके ऋषि दयानन्द ने न केवल भारत अपितु विश्व को ईश्वर प्राप्ति का व्यवहारिक मार्ग बताया है जिसे पूरा विश्व महाभारत युद्ध के बाद भूल चुका था। ऋषि दयानन्द ने अपने समस्त वैदिक ज्ञान को सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिखकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया जिसमें वह सफल रहे हैं। इस ज्ञान को सामान्य मनुष्य भी पढ़कर समझ सकता है जिसका कारण सत्यार्थप्रकाश का हिन्दी में लिखा जाना है। यह ग्रन्थ प्रथमवार सन् 1875 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। इन ग्रन्थों से विश्व के करोड़ों लोगों को लाभ पहुंचा है।

               महर्षि दयानन्द ने सत्य मान्यताओं एवं सिद्धान्तों का प्रचार किया परन्तु पक्षपाती मत मतान्तरों के आचार्यों व अनुयायियों ने उसे स्वीकार नहीं किया। इस विषयक ऋषि दयानन्द के विचार पढ़ने योग्य है। हम सत्यार्थप्रकाश की भूमिका से उनके कुछ विचारों को प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि मेरा इस (सत्यार्थप्रकाश) ग्रन्थ को बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्यसत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें। ऋषि के यह शब्द कि ‘‘जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। ऋषि दयानन्द के समय से अब तक के सभी मत पक्षपात रूपी रोग से ग्रस्त है। यही कारण है कि वेद व ऋषि दयानन्द की सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों को संसार के लोगों अब तक अपनाया नहीं है। इसका सारा दोष, अर्थात् सत्य को स्वीकार न करना तथा असत्य का त्याग न करना,  मत-मतान्तरों के आचार्यों पर दिखाई देता है। वह अपने अपने मतों की विद्यारहित व पक्षपातपूर्ण बातों को मानते चले आ रहे हैं और वेद और सत्यार्थप्रकाश की सत्य बातों को स्वीकार नहीं कर रहे हैं।

               महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्ध के समुल्लासों में अवैदिक मतों की समीक्षा कर बताया है कि इन सभी मतों में अविद्यायुक्त बातें हैं जिस कारण वह ईश्वर की प्रेरणा व ऐसे ही किसी उपाय से उत्पन्न न होने से ईश्वरीय ज्ञान के ग्रन्थ कदापि नहीं हो सकते। ऋषि का यह कार्य, सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्ध के 4 समुल्लास, भी न भूतो न भविष्यति के समान है। उनके इस कार्य से सनातन वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा हुई है। यदि व न आते और उन्होंने जो कार्य किये वह न किये होते, तो यह कहा नहीं जा सकता कि वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा हो पाती अर्थात् वह जीवित व विद्यमान रह पातीं। ऋषि दयानन्द ने वेदों का महत्व प्रतिपादित करने के साथ वेदों का सरल व सुगम भाष्य भी हिन्दी व संस्कृत में किया है। उनके वेदभाष्य को सभी हिन्दी पठित लोग पढ़ व समझ सकते हैं। वेदों को जन भाषा में अनुवाद व भाष्य कर प्रस्तुत करने का कार्य ऋषि ने विश्व इतिहास में पहली बार किया है। इस कारण भी सारा संसार उनका ऋणी हैं क्योंकि वेदों का सन्देश ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण संसार के प्रत्येक मनुष्य के लिये है।

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के पूर्वार्द्ध में जो वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रकाश किया है उससे भी न केवल भारत का हिन्दू समुदाय अपितु विश्व के लोग लाभान्वित हुए हैं व अब भी हो सकते हैं। यह भी ऋषि दयानन्द की एक प्रमुख देन है। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका व वेदभाष्य सहित संस्कारविधि एवं आर्याभिविनपय आदि ग्रन्थों का जो प्रणयन किया है, यदि ऋषि दयानन्द ग्रन्थों के लेखन के अतिरिक्त देश के दूरस्थ स्थान-स्थान पर जाकर अपने मौखिक प्रवचनों एवं शास्त्रार्थ आदि के द्वारा प्रचार न करते तब भी एक विश्व गुरु होने के कारण वह अपने जीवन में तथा मृत्यु के बाद भी अपने ग्रन्थों में उपलब्ध निष्पक्ष व सत्य ज्ञान के कारण सम्मान पाते। उन्होंने अपने जीवन का एक-एक क्षण देश से अविद्या को दूर कर वैदिक धर्म की रक्षा में व्यतीत किया। उनके इस कार्य के लिये विश्व के सारे मनुष्य समुदाय को उनका ऋणी व कृतज्ञ होने का अनुभव करना चाहिये और उनके ऋण से उऋण होने के लिये स्वयं को उन्हीं के समान स्वयं को वेद प्रचार के लिये समर्पित व आहूत करना चाहिये। ऐसा करने से ही विश्व में ऐक्य भाव उत्पन्न होकर सुख व शान्ति की स्थापना हो सकती है। हम ऋषि दयानन्द को श्रद्धांजलि देते हैं और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उन्होंने जो पुरुषार्थ व तप किया है वह सफल एवं फलीभूत हो। ओ३म् शम्।

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