गोरक्षा आन्दोलन के आद्य प्रवर्तक ऋषि दयानन्द

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-मनमोहन कुमार आर्य
ऋषि दयानन्द ने गोरक्षार्थ गोहत्या बन्द किये जाने के समर्थन में गोकरुणानिधि नामक एक लघु पुस्तिका लिखी है। यह पुस्तक अपने विषय की गागर में सागर के समान पुस्तक है। इस पुस्तक से हम ऋषि दयानन्द के कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे है। ऋषि दयानन्द लिखते हैं कि ‘वे धर्मात्मा, विद्वान लोग धन्य हैं, जो ईश्वर के गुण-कर्म, स्वभाव, अभिप्राय, सृष्टि-क्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण और आप्तों के आचार से अविरुद्ध चलके सब संसार को सुख पहुंचाते हैं और शोक है उन पर जो कि इनसे विरुद्ध स्वार्थी, दयाहीन होकर जगत् की हानि करने के लिए वर्तमान हैं। पूजनीय जन वो हैं जो अपनी हानि हो तो भी सबका हित करने में अपना तन, मन, धन, सब कुछ लगाते हैं और तिरस्करणीय वे हैं जो अपने ही लाभ में सन्तुष्ट रहकर अन्य के सुखों का नाश करते हैं।’

‘सृष्टि में ऐसा कौन मनुष्य होगा जो सुख और दुःख को स्वयं न मानता हो? क्या ऐसा कोई भी मनुष्य है कि जिसके गले को काटे वा रक्षा करे, वह दुःख और सुख को अनुभव न करे? जब सबको लाभ और सुख ही में प्रसन्नता है, तब बिना अपराध किसी प्राणी का प्राण वियोग करके अपना पोषण करना सत्पुरुषों के सामने निन्द्य कर्म क्यों न होवे? सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर इस सृष्टि में मनुष्यों की आत्माओं में अपनी दया और न्याय को प्रकाशित करे कि जिससे ये सब दया और न्याययुक्त होकर सर्वदा सर्वोपकारक काम करें और स्वार्थपन से पक्षपातयुक्त होकर कृपापात्र गाय आदि पशुओं का विनाश न करें कि जिससे दुग्ध आदि पदार्थों और खेती आदि क्रिया की सिद्धि से युक्त होकर सब मनुष्य आनन्द में रहें।’ 

ऋषि दयानन्द बताते हैं कि सृष्टि के सभी पदार्थों को ईश्वर ने जिन प्रयोजनों के लिए बनाया है उनसे वही उपयोग लेना उचित है। इस संबंध में वह लिखते हैं कि ‘सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर ने इस सृष्टि में जो-जो पदार्थ बनाये हैं, वे-वे निष्प्रयोजन नहीं, किन्तु एक-एक वस्तु को अनेक-अनेक प्रयोजन के लिए रचा है, इसलिए उनसे वही प्रयोजन लेना न्याय है, अन्यथा अन्याय। देखिए, जिस लिए नेत्र बनाया है, इससे वही कार्य लेना उचित होता है, न कि उससे पूर्ण प्रयोजन न लेकर बीच ही में नष्ट कर दिया जावे। क्या जिन-जिन प्रयोजनों के लिए परमात्मा ने जो-जो पदार्थ बनाये हैं, उन-उनसे वे-वे प्रयोजन न लेकर उनको प्रथम ही नष्ट कर देना सत्पुरुषों के विचार में बुरा कर्म नहीं है? पक्षपात छोड़कर देखिए, गाय आदि पशु और कृषि आदि कर्मों से सब संसार को असंख्य सुख प्राप्त होते हैं वा नहीं? जैसे दो और दो चार (होते हैं), वैसे ही सत्यविद्या से जो-जो विषय जाने जाते हैं, वे (परिणाम व निष्कर्ष) अन्यथा कभी नहीं हो सकते।’   

गोरक्षा से बैलों की संख्या में वृद्धि होकर अन्न का उत्पादन भी अधिक होता है। दुग्ध व अन्न का अधिक उत्पादन होने से यह पदार्थ सस्ते सुलभ होते हैं जिससे निर्धन लोगों को सस्ता भोजन उपलब्ध होने से वह लाभान्वित होते हैं। आज देश की आधी व उससे कुछ कम आबादी जो अन्न व अर्थ के अभाव में भूखी सोती है उसका हमारी दृष्टि में प्रमुख कारण भी गोरक्षा विरोधी सरकारी नीतियां व देशवासियों के गोहत्या व गोमांसाहार आदि कार्य हैं। ऋषि के अनुसार गोदुग्ध की प्रचुरता से अन्न कम खाने से वायु व जल सहित सृष्टि का प्रदुषण भी कम होता है। इस विषय पर प्रकाश डालते हुए वह लिखते हैं कि ‘यजुर्वेद के प्रथम ही मन्त्र में परमात्मा की आज्ञा है कि-‘अघ्न्या’, ‘यजमानस्य पशून् पाहि’ हे मनुष्य ! तू पशुओं को कभी मत मार, और यजमान, अर्थात् सबको सुख देनेवाले मनुष्यों के सम्बन्धी पशुओं की रक्षा कर, जिनसे तेरी भी पूरी रक्षा होवे, इसी लिए ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त आर्य लोग पशुओं की हिंसा में पाप और अधर्म समझते थे और उनकी रक्षा से अन्न भी महंगा नहीं होता, क्योंकि दूध-आदि के अधिक होने से दरिद्र को भी खान-पान में मिलने पर न्यून ही अन्न खाया जाता है और अन्न के न्यून खाने से मल भी कम होता है। मल के न्यून होने से दुर्गन्ध भी न्यून होता है, दुर्गन्ध के स्वल्प होने से वायु और वृष्टिजल की अशुद्धि (वा प्रदुषण) भी न्यून होती है, उससे रोगों की न्यूनता होने से सबका सुख बढ़ता है।’ 

ऋषि दयानन्द गोरक्षा को राष्ट्र की रक्षा मानते थे और इनकी हत्या होने से राजा और प्रजा का नाश होना मानते थे। सभी पशुओं की रक्षा के लिए उन्होंने ईश्वर से मार्मिक प्रार्थनायें की है। गोकरुणानिधि में इसका उल्लेख करते हुए वह लिखते हैं कि यह ठीक है कि गो आदि पशुओं का नाश होने से राजा और प्रजा का भी नाश हो जाता है, क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं, तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कर्मों की भी घटती होती है। देखो, इसी से जितने मूल्य से जितना दूध और घी आदि पदार्थ तथा बैल आदि पशु सात सौ वर्ष पूर्व मिलते थे, उतना दूध, घी और बैल आदि पशु इस समय दश गुणे मूल्य से भी नहीं मिल सकते, क्योंकि सात सौ वर्ष के पीछे इस देश में गवादि पशुओं को मारनेवाले मांसाहारी विदेशी मनुष्य आ बसे हैं। वे उन सर्वोपकारी पशुओं के हाड़-मांस तक भी नहीं छोड़ते, तो ‘नष्टे मूले नैव फलं न पुष्पम्’, जब कारण का नाश कर दें तो कार्य नष्ट क्यों न हो जावे? हे मांसाहारियों! तुम लोगों को कुछ काल के पश्चात् जब पशु न मिलेंगे, तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे वा नहीं? हे परमेश्वर ! तू क्यों इन पशुओं पर, जो कि बिना अपराध मारे जाते हैं, दया नहीं करता? क्या उन पर तेरी प्रीति नहीं है, क्या उनके लिए तेरी न्याय सभा बन्द हो गई है? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर ध्यान नहीं देता, और उनकी पुकार नहीं सुनता? क्यों इन मांसाहारियों की आत्माओं में दया का प्रकाश कर निष्ठुरता, कठोरता, स्वार्थपन और मूर्खता आदि दोषों को दूर नहीं करता, जिससे ये इन बुरे कमों से बचें। 

गोकरूणानिधि पुस्तक के अन्त में ऋषि दयानन्द लिखते हैं कि जैसा दुःख-सुख अपने को  होता है, वैसा ही औरों को भी समझा कीजिए और यह भी ध्यान में रखिए कि वे पशु आदि और उनके स्वामी तथा खेती आदि कर्म करनेवाले प्रजा के पशु आदि और मनुष्यों के अधिक पुरुषार्थ ही से राजा का ऐश्वर्य अधिक बढ़ता और न्यून से नष्ट हो जाता है, इसीलिए राजा प्रजा से कर लेता है कि उनकी रक्षा यथावत् करे, न कि राजा और प्रजा के जो सुख के कारण गाय आदि पशु हैं उनका नाश किया जावे, इसलिए आज तक जो हुआ सो हुआ, आगे आंखें खोलकर सबके हानिकारक कर्मों को न कीजिए और न करने दीजिए। हां, हम लोगों का यही काम है कि आप लोगों को भलाई और बुराई के काम जता देवें और आप लोगों का यही काम है कि पक्षपात छोड़ सबकी रक्षा और बढ़ती करने में तत्पर रहें। सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर हम और आप पर पूर्ण कृपा करें कि जिससे हम और आप लोग विश्व के हानिकारक कर्मों को छोड़ सर्वोपकारक कामों को करके सब लोग आनन्द में रहें। इन सब बातों को सुन मत डालना, किन्तु सुन रखना, उन अनाथ पशुओं के प्राणों को शीघ्र बचाओ। हे महाराजाधिराज जगदीशवर! जो इनको कोई न बचावे तो आप इनकी रक्षा करने और हमसे कराने में शीघ्र उद्यत हूजिए। 

ऋषि दयानन्द ने 24 फरवरी, सन् 1881 को गोकरूणानिधि ग्रन्थ की रचना की थी। उन्होंने गोहत्या बन्द करने के लिए देश व्यापी आन्दोलन भी चलाया था। इस विषय पर पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने अपनी पुस्तक ‘ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का इतिहास’ में प्रकाश डाला है। वह लिखते हैं कि करुणानिधि दयामय दयानन्द ने अपने कार्यकाल में गौ आदि मूक प्राणियों की रक्षार्थ महान आन्दोलन किया था। वायसराय तथा भारत सरकार के पास दो करोड़ भारतवासियों के हस्ताक्षरों से युक्त प्रार्थना पत्र भेजने के लिए भी बहुत उद्योग किया था। इसके लिए अनेक सज्जनों को पत्र भी लिखे थे। पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय लिखित उनके प्रामाणिक जीवन चरित से विदित होता है कि गोहत्या बन्द करने के लिए ऋषि दयानन्द के प्रार्थनारूपी मैमोरेण्डम पर उदयपुर के महाराणा श्री सज्जनसिंह, जोधपुर नरेश महाराज यशवन्तसिंह, शाहपुराधीश नाहरसिंह और महाराजा बूंदी ने भी हस्ताक्षर कर दिये थे। अनेक महानुभावों ने गोरक्षा के देशोन्नति के काम में बड़े उत्साहपूर्वक भाग लिया था। यह महान् उद्योग महर्षि के अकाल में काल-कवलित हो जाने से अधूरा रह गया। ऋषि दयानन्द के इस गोरक्षा व गोहत्या बन्दी आन्दोलन को भारत के इतिहास में प्रथम व अपूर्व आन्दोलन कहा जा सकता है। 

वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों के हृदय में दिया था। इसमें परमात्मा ने गाय को ‘अघ्नया’ कहा है। इसका अर्थ होता है ‘न मारने योग्य’। अतः ईश्वर ने ही वेद के द्वारा सृष्टि के आरम्भ में ही गोहत्या को प्रतिबन्धित किया था। गोहत्या करना ईश्वराज्ञा का उल्लंघन है, अशुभ व पापकर्म है एवं दण्डनीय है। आश्चर्य है कि महाभारत युद्ध के परवर्ती लोगों ने अपनी अविद्या से इस महान् उपकारी पशु की हत्या कर उसके मांस का खाना आरम्भ किया और अब अनेक तथ्यों के प्रकाश में आने पर भी वह अपने इस घृणित स्वाद को छोड़ नहीं रहे हैं। 

महर्षि दयानन्द ने गोकरुणानिधि पुस्तक में गाय की एक पीढ़ी से प्राप्त दुग्ध व बैलों की सहायता से उत्पन्न खाद्यान्न की गणित की रीति से गणना कर सिद्ध किया है कि इससे 4,10,440 लोगों का एक समय का भोजन हो सकता है जबकि एक गाय के मांस से एक समय में कुछ सौ मनुष्यों की ही क्षुधा शान्त होती है। महर्षि दयानन्द ने गोकरुणानिधि पुस्तक में भैंस, ऊंटनी, भेड़, बकरी व मोर आदि की भी चर्चा की है और इनकी व अन्य सभी पशुओं की रक्षा की वकालत की है। बकरी की एक पीढ़ी से होने वाले मनुष्यों के एक समय के भोजन की गणना कर उन्होंने 25,920 मनुष्यों का एक दिन में पालन होना लिखा है। गोकरुणानिधि में ही दिये गये ऋषि के मार्मिक वचनों को लिखने का लोभ भी हम छोड़ नहीं कर पा रहे हैं। वह लिखते हैं कि देखिए, जो पशु निःसार घास-तृण, पत्ते, फल-फूल आदि खावें और दुग्ध आदि अमृतरूपी रत्न देवें, हल-गाड़ी आदि में चलके अनेकविध अन्न आदि उत्पन्न कर, सबके बुद्धि, बल, पराक्रम को बढ़ाके नीरोगता करें, पुत्र-पुत्री और मित्र आदि के समान मनुष्यों के साथ विश्वास और प्रेम करें, जहां बांधे वहां बंधे रहें, जिधर चलावें उधर चलें, जहां से हटावें वहां से हट जावें, देखने और बुलाने पर समीप चले आवें, जब कभी व्याघ्रादि पशु वा मारनेवाले को देखें, अपनी रक्षा के लिए पालन करनेवाले के समीप दौड़कर आवें कि यह हमारी रक्षा करेगा। जिसके मरे पर चमड़ा भी कण्टक आदि से रक्षा करे, जंगल में चरके अपने बच्चे और स्वामी के लिए दूध देने के नियत स्थान पर नियत समय पर चलें आवें, अपने स्वामी की रक्षा के लिए तन-मन लगावें, जिनका सर्वस्व राजा और प्रजा आदि मनुष्य के सुख के लिए है, इत्यादि शुभगुणयुक्त, सुखकारक पशुओं के गले छुरों से काटकर जो मनुष्य अपना पेट भर, सब संसार की हानि करते हैं, क्या संसार में उनसे भी अधिक कोई विश्वासघाती, अनुपकारक, दुःख देने वाले और पापी मनुष्य होंगे? 

ऋषि दयानन्द गोरक्षा व गोहत्या बन्द कराने के आद्य प्रवर्तक थे। आज देश के बड़े नेता जब गोरक्षा के समर्थन में बोलते हैं तो वह गोरक्षा के समर्थक राजनीतिक व सामाजिक नेताओं के नाम तो लेते हैं परन्तु जाने व अनजाने ऋषि दयानन्द के गोरक्षा के लिए योगदान की उपेक्षा करते हैं। ऋषि दयानन्द ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में गोरक्षा की बात तब की थी और आन्दोलन भी किया था जब किसी के मन में गोरक्षा का विचार भी नहीं आया था। हम ऋषि दयानन्द के इस महान कार्य को स्मरण उन्हें सश्रद्ध नमन करते हैं। 

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