ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायी अनेक विद्वानों ने वेदभाष्य का अविस्मरणीय कार्य किया

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मनमोहन कुमार आर्य

               ऋषि दयानन्द गृह त्याग कर देश भर के हिन्दू तीर्थ स्थानों पर गये। वहां उन्होंने विद्वानों व साधुओं से सम्पर्क कर अपनी शंकाओं का समाधान करने का प्रयास किया और उनसे ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न किया। वह अनेक योगियों के भी सम्पर्क में आये और योग में कृतकार्य हुए। गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से उन्होंने आर्ष व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य का अध्ययन कर आर्ष ग्रन्थों में प्रवेश करने की योग्यता प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने अपने गुरु की प्रेरणा से वेद प्रचार का कार्य किया और अनेक ग्रन्थों के प्रणयन सहित वेदभाष्य भी किया। उनका ऋग्वेद (आंशिक) तथा यजुर्वेद का भाष्य सृष्टि के ज्ञात इतिहास व वैदिक साहित्य में अपूर्व है। ऋषि दयानन्द ने वेदों के लोकोपयोगी एवं लाभकारी अर्थ िकये हैं जिससे मनुष्य को आध्यात्मिक एवं भौतिक सभी प्रकार के लाभ होते हैं। विरोधियों के षडयन्त्रों के कारण वह विषपान से मृत्यु  को प्राप्त हुए जिससे उनके वेदभाष्य एवं वेद प्रचार आदि के अनेक कार्य आगे न बढ़ सके। दिनांक 30 अक्टूबर, सन् 1883 को उनकी अजमेर में मृत्यु होने के बाद उनके अनुयायी अनेक विद्वानों ने वेदों के भाष्य करने की योग्यता प्राप्त की और उनके अवशिष्ट कार्य को पूरा किया। इन वेदभाष्यकारों में हम पं. आर्यमुनि, पं. तुलसीराम स्वामी, स्वामी ब्रह्मुनि परिव्राजक, पं. क्षेमचन्द्र दास त्रिवेदी, पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ, पं. हरिश्चन्द्र विद्यालंकार आदि अनेक भाष्यकारों को सम्मिलित कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द जी के बाद पहली व दूसरी पीढ़ी में जो वेद भाष्यकार हुए हैं उनकी विशेषता यह रही है कि अध्ययन के लिए इन्हें गुरुकुलों वातावरण संस्कृत का अध्ययन प्राप्त न होने पर भी इन्होंने स्वयं को वेदभाष्यकार के योग्य बनाया और एक ऐसा महान कार्य किया जिसे महाभारतकाल से पूर्व का तो किसी को ज्ञान नहीं, परन्तु महाभारत काल के बाद वेदों के सत्य अर्थ करने का श्रेय ऋषि दयानन्द सहित उनके अनुयायी इन विद्वानों को प्राप्त हुआ। जब हम इन विद्वानों के विद्याव्यस्न और ऋषि भक्ति को देखते हैं तो हमारा सिर उनके चरणों व उनकी स्मृति में झुकता है। अतः हमें यह विचार आया कि ऐसे ऋषि भक्त विद्वान वेदभाष्यकारों को भी स्मरण करना आवश्यक है। इसी का परिणाम इस लेख की कुछ पंक्तियां हैं।

               इन विद्वानों के बाद अनेक वेदभाष्यकार और हुए हैं। पं. विश्वनाथ वेदालंकार, डॉ. रामनाथवेदालंकार, पं. जयदेव विद्यालंकार, पं. वैद्यनाथ शास्त्री, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार, डॉ. सत्यप्रकाश सरस्वती, पं. दामोदर सातवलेकर, स्वामी जगदीश्वरानन्द शास्त्री जी आदि को भी हम वेदभाष्यकार के रूप में जानते हैं। संस्कृतव्याकरण एवं आर्ष ग्रन्थों की रक्षा व प्रणयन की दृष्टि से पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, पं. राजवीर शास्त्री, महात्मा बलदेव, पं. विशुद्धानन्द शास्त्री, डॉ. रघुवीर वेदालंकार आदि का नाम भी उल्लेखनीय है। अनेक नाम ऐसे हैं जो हमें ज्ञात नहीं है। वेदभाष्यकार तथा व्याकरण के शीर्ष विद्वानों के महत्व को जानने के लिये हमें वेदों के महत्व को जानना आवश्यक है। वेदों का महत्व ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में प्रस्तुत किया है। इसके आधार पर वेद वह ज्ञान है जो इस सृष्टि के रचयिता सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, अनादि, नित्य, सर्वज्ञ और सृष्टि के निमित्त कारण ईश्वर ने सृष्टि की आदि में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा को दिया था। यह चार नाम ऋषियों के नाम हैं। अग्नि वह ऋषि हैं जिन्हें ईश्वर ने ऋग्वेद का ज्ञान दिया था। इसी प्रकार वायु, आदित्य तथा अंगिरा वह ऋषि हैं जिन्हें परमात्मा ने यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। यह ज्ञान ईश्वर द्वारा दिये जाने से स्वतः प्रमाण है। वेदों का यह ज्ञान सूर्यवत् है। जिस प्रकार प्रकाश में हम सभी पदार्थों को देख सकते हैं परन्तु सूर्य को देखने के लिये हमें किसी अन्य प्रकाश के साधन की आवश्यकता नहीं होती। इसी प्रकार से वेद वह ज्ञान है जो स्वप्रकाशमान है। वेदों की बातों व कथनों की प्रामाणिकता के लिये किसी अन्य ग्रन्थ व लेखक की पुस्तक की आवश्यकता नहीं है। हम वेदों को तर्क व युक्ति की तुला पर तोल कर परख सकते हैं। सृष्टिक्रम के अनुकूल ज्ञान ही सत्य यथार्थ ज्ञान होता है। वेद इस तुला पर सत्य सिद्ध होते हैं। ऋषि दयानन्द ने वेदों की तर्क के आधार पर परीक्षा की और इसे सर्वत्र सत्य पाया। उन्होंने अपने समय में सभी विद्वानों को इस बात का भी अवसर दिया कि वह अपनी वेद विषयक किसी भी शंका का समाधान जानने के लिये उनके पास आ सकते हैं। किसी विद्वान का कोई आक्षेप व आरोप नहीं है जिसका उत्तर ऋषि दयानन्द और आर्य विद्वानों ने न दिया हो। इस दृष्टि से वेद का ऋषि दयानन्द विषयक दृष्टिकोण व मान्यतायें पूर्ण सत्य सिद्ध होती हैं।

               संसार में हम ईश्वर, परमात्मा और परमेश्वर आदि अनेक नामों की चर्चा करते हैं वह ज्ञान वेदों से ही समस्त सृष्टि वा भूमण्डल पर विस्तीर्ण हुआ हैं। वेदों की परमात्मा से प्राप्ति से मनुष्य ने भाषा को बोलना सीखा व ऋषियों ने समाधि में साक्षात्कर कर देवनागरी लिपि का आविष्कार किया, ईश्वर से उसे प्राप्त किया एवं अन्यों को उपलब्ध कराया। यदि ईश्वर ने वेदज्ञान न दिया होता तो मनुष्य बोलना भी नहीं जान सकते थे। इसका कारण यह है कि बोलने के लिये हमें भाषा का ज्ञान होना चाहिये। ज्ञान बिना भाषा के नहीं होता। ज्ञान भाषा में ही निहित होता है। अतः मनुष्य ने जो बोलना व लिखना आदि सीखा है वह सब वेद व वेद के ऋषियों से सीखा है। वेद न होते तो न ज्ञान होता न भाषा, ऐसा विचार करने पर विदित होता है। वेद सत्य ज्ञान है और यह जीवात्मा व प्रकृति सहित मनुष्य को उसके सभी कर्तव्यों का बोध कराता है। ईश्वर का ध्यान करने, प्रार्थना करने व उपासना सहित अग्निहोत्र करने, विवाह आदि कर धर्म पूर्वक सन्तान को जन्म देने व उनका करने सहित माता-पिता-आचार्य-राजा आदि की आज्ञाओं का पालन, उनकी सेवा करने की शिक्षा भी हमें वेद से मिलती है। ऋषि दयानन्द ने वेदों का अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला है कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं तथा वेद का पढ़ना-पढ़ाना व सुनना-सुनाना सब आर्यों व मनुष्यों का परम धर्म है। धर्म और अधर्म पर विचार करें तो यह ज्ञात होता है कि जो वेद विहित व वेदानुकूल है वही धर्म और जो वेद विरुद्ध है वह अधर्म है। धर्म पुण्य है और अधर्म पाप है। धर्म से मनुष्य का कल्याण व उन्नति होती है और अधर्म से दुःख व भय प्राप्त होता है। अधर्म से परजन्म में भी मनुष्य मनुष्य न बनकर ईश्वर की व्यवस्था से पशु आदि निम्न योनियों को प्राप्त होता है। यह सब ज्ञान वेदों का अध्ययन कर प्राप्त होता है।

               यदि वेद होता तो मनुष्य की बुद्धि का विकास होता। जिस प्रकार से ईश्वर का दिया मनुष्य शरीर एवं इसका प्रत्येक अंग उपांग हमारे लिये महत्वपूर्ण है, उसी प्रकार ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान भी हमें प्रिय लाभप्रद है। महाभारत के बाद संस्कृत भाषा का प्रचार व व्यवहार न होने के कारण हम वेदों के सत्य ज्ञान से दूर हो गये थे। इसी कारण आर्यों व उनके विकृत नाम हिन्दुओं का घोर पतन हुआ। देश छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गया और पराधीन हो गया। विदेशी विधर्मियों ने हमें जी भर कर लूटा और हमारे पूर्वजों की आस्था के केन्द्र राम, कृष्ण, विश्वनाथ वा शिव आदि के मन्दिरों को लूटा, तोड़ा व उन पर जबरदस्ती कब्जा करके अपने इबादत के स्थान बनाये। ऐसी व अन्य सभी समस्याओं व दुःखों से सुरक्षित रहने का उपाय केवल वेदों का अध्ययन व उसकी शिक्षाओं का पालन है। हमारे वेद भाष्यकारों ने जिनमें महर्षि दयानन्द प्रथम स्थान पर हैं, उन सबका वेद भाष्य व आर्ष ग्रन्थ हमारे ऊपर ऋण हैं जिसे हम चुका नहीं सकते। यदि हम वेदों का अध्ययन नहीं करते तो हम वेद की शिक्षाओं से दूर होने के कारण उनका आचरण भी नहीं कर सकते और इससे हमें वह फल प्राप्त नहीं होते जो वेदाध्ययन व वेदाचरण से प्राप्त होते हैं। हमारे सभी वेदभाष्यकार हमारे व पूरे विश्व समुदाय के आदर व सम्मान के पात्र हैं। यह बात अलग है कि लोग इस तथ्य व रहस्य से अपरिचित हैं। ईश्वर सभी को प्रेरणा करें कि वह अपनी अविद्या व अविवेक को दूर कर इस सत्य व रहस्य को जानें और अपने कर्तव्य का निर्वाह करें।

               आज हमारे देश में लगभग एक सहस्र गुरुकुल हैं जहां संस्कृत भाषा का अध्ययन कराया जाता है। आज इन संस्थाओं के स्नातकों को वेदों का अधिकाधिक प्रचार करना चाहिये। ऐसा प्रतीत होता है वर्तमान में वेदों का प्रचार पूर्व की तुलना में न्यूनता को प्राप्त हो रहा है। आज के विद्यार्थी व स्नातक गुरुकुल में अध्ययन करने के बाद वेदों के विद्वान, प्रचारक, उपदेशक, वेदभाष्यकार तथा नये शास्त्रों की रचना में प्रवृत्त प्रायः नहीं होते। आर्यसमाज में अब तक एक भी विदुषी महिला ने सम्पूर्ण व किसी एक वेद का भाष्य करने का श्रेय नहीं लिया। हम यह भी अनुभव करते हैं कि गुरुकुलों में संस्कृत का अध्ययन करने के बाद यदि किसी स्नातक में वेदमंत्रों व अन्य शास्त्रों का सत्यार्थ करने की योग्यता नहीं आती और वह वेदों के प्रचार व उपदेश आदि में प्रवृत्त नहीं होता तो उसकी विद्या अधिक उपयोगी प्रतीत नहीं होती। हमारे सभी संस्कृत विद्वानों को चाहिये कि वह हमारे पूर्व समय के वेदों के विद्वानों से प्रेरणा लेकर उनके समान वेदों का प्रचार कर वेदों के कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ को सिद्ध करने में सहायक हां। यदि हमारे संस्कृत के विद्वान वेदों का मौखिक व लेखन द्वारा प्रचार नहीं करेंगे तो अतीत के समान वैदिक धर्म व संस्कृति के विलुप्त होने, अवैदिक मतों में वृद्धि, मिथ्या परम्पराओं का प्रचलन तथा देश के परतन्त्र होने का खतरा है। वेदों की रक्षा तभी सम्भव है जब यह अधिक से अधिक हमारे व देश की जनता के व्यवहार में होंगे। इसके लिये वेदों का स्वाध्याय व प्रचार अत्यन्त आवश्यक है। इसके लिये हमारी दृष्टि अपने गुरुकुलों के स्नातकों की ओर ही जाती है। वह किसी भी कार्य से अपनी आजीविका प्राप्त करें, परन्तु उसके साथ-साथ अपने समय शेष समय का सदुपयोग वेद प्रचार व वेदों की रक्षा के लिये अवश्य करें। ऐसा हम अनुभव करते हैं। ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायी सभी वेद सेवा करने वाले वेदभाष्यकारों व विद्वानों को सादर नमन। ओ३म् शम्।

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