‘ऋषि दयानन्दभक्त पं. गुरुदत्त विद्यार्थी के कुछ प्रेरक प्रसंग’

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Pandit_Gurudatta_Vidyarthiमनमोहन कुमार आर्य

पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी का आर्यसमाज के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। आप बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न युवक थे। मात्र 26 वर्ष के अल्प जीवन काल में ही आपने वैदिक धर्म और आर्यसमाज की जो सेवा की है उसका मूल्याकंन करना अतीव कठिन कार्य है। दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूल व कालेज की स्थापना में आपने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आप ऋषि दयानन्द के बाद आर्यसमाज के प्रमुख विद्वानों में से एक होने के साथ प्रमुख लोकप्रिय वक्ताओं व प्रचारकों में भी आर्यसमाज के आदर्श थे। गुरुकुल कांगड़ी के संस्थापक स्वामी श्रद्धानन्द और ऋषि दयानन्द की आद्य खोजपूर्ण जीवनी के संग्रहकर्ता व लेखक रक्तसाक्षी पं. लेखराम भी आर्यसमाज की प्रमुख हस्तियां रही हैं और यह दोनों ही आपके समकालीन व सहयोगी थे। महात्मा हंसराज जी और लाला लाजपत राय भी आपके सहपाठी और मित्र थे। पंडित गुरुदत्त विद्याथी वैदिक व्याकरण एवं प्रायः समस्त वैदिक साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे। अंग्रेजी भाषा पर आपका पूर्ण अधिकार था। आपके जीवनकाल व उससे पूर्व पाश्चात्य विद्वानों द्वारा वेद एवं वैदिक संस्कृति पर किए गए प्रहारों का आपने योग्यतापूर्वक उत्तर दिया। आपने लेखन, सम्पादन एवं व्याख्यानों द्वारा देश के अनेक स्थानों पर जाकर प्रचार किया। आपके निकटस्थ मित्र श्री जीवनदास पेंशनर ने आपकी श्रद्धा से भरे हुए शब्दों में जीवनी लिखी है। आज इसी जीवनी से हम पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी जी के कुछ प्रसंगों को प्रस्तुत कर रहे हैं।

श्री जीवनदास पेंशनर ने लिखा है कि सन् 1888 का वर्ष पण्डित गुरुदत्त के जीवन में बड़ा ही स्मरणीय समय था। इसी साल उन्होंने मोनियर विलियम्स की ‘‘इण्डियन विजडम” पर दोषालोचनात्मक व्याख्यान दिए, स्वर विद्या का अध्ययन किया, वेदमन्त्रों के उच्चारण करने की शुद्ध रीति जारी की। यह एक ऐसा काम था, जिसके परिणाम की कल्पना करना सुगम नहीं। यदि वे कोई और काम न भी करते तो केवल इतना कार्य ही उन्हें अपने समय के महापुरुषों में उच्च स्थान दिलाने के लिए पर्याप्त था।

लेकिन सबसे बढ़कर बहुमूल्य काम जो उन्होंने किया, और जिस के लिए हम सब को उनका कृतज्ञ होना चाहिए, वह उनका वैदिक धर्म्म का प्रबल प्रतिपादन है। उन दिनों वैदिक धर्म्म को ब्राह्मणों ने बहुत कुछ कलंकित कर रखा था। पश्चिमीय विचारों से प्रभावित शिक्षित लोग आर्यसमाज के सिद्धान्तों पर असंख्य प्रश्न करते थे। इन लोगों का उन्हीं के शस्त्रों से मुकाबला करने के लिए धर्म्म के एक बड़े ही प्रबल व्याख्याता की आवश्यकता थी। एक ऐसा विद्वान चाहिये था जो विपक्षियों की आपत्तियों का युक्तिसंगत रीति से खण्डन कर सके और संशयात्मक लोगों के अनुरागहीन प्रश्नों का आदर और सहानुभूति के भाव के साथ युक्तियुक्त वा समुचित उत्तर भी दे सके। इसके साथ ही वह विद्वान ऐसा होना चाहिये था कि जो अन्य धर्मों से वैदिक धर्म की सर्वश्रेष्ठता का भी समर्थन कर सके। ऐसा मुनष्य जगदीश्वर ने पण्डित गुरुदत्त के रूप में समाज को प्रदान किया था। उन्होंने बड़ा ही उत्कृष्ट कार्य किया। उनके निर्भय होकर सत्य का प्रकाश करने के लिए उनके विपक्षी भी उनकी प्रशंसा करते थे।

दिसम्बर 1888 ईस्वी में जो व्याख्यान उन्होंने लाहौर आर्यसमाज के उत्सव पर दिया वह स्थायी रूप से संग्रह करने योग्य है। उन्होंने कहा कि “आधुनिक विज्ञान चाहे उसमें कितने ही गुण क्यों न हों, जीवन की समस्या पर कुछ भी प्रकाश नहीं डालता। वह मनुष्य के आत्मा में आन्दोलन पैदा करने वाले सबसे महान् और कठिन प्रश्न–मनुष्य जाति के आदि मूल और इसके अन्तिम भाग्य–के हल करने में कुछ भी सहायता नहीं करता। आधुनिक विज्ञानी चाहे प्रत्येक नाड़ी और हड्डी को चीर डाले, चाहे लहू की एक बून्द की अतीव प्रबल सूक्ष्म-दर्शक यन्त्र जो सम्भवतः उसे मिल सकता है, बड़ी सूक्ष्म परीक्षा कर लें, पर इस प्रश्न पर उस से कुछ भी बन नहीं पड्ता। वह जीवन के रहस्य को खोल नहीं सकता। वह चाहे शताब्दियों तक चीर फाड़ और परीक्षण करता रहे पर जीवन की समस्या के विषय में उनका ज्ञान कुछ भी बढ़ न सकेगा। यह समस्या वेदों की सहायता के बिना हल नहीं की जा सकती। वही केवल इस अद्भुत रहस्य का उद्घाटन कर सकते हैं और उन्हीं की ओर वैज्ञानिक लोगों को अन्त को आना पड़ेगा। इस प्रवृत्ति के चिन्ह पहले ही हैं। वेदों को प्राचीन ऋषि सब विद्याओं का स्रोत समझते थे और उनका यह विश्वास सत्य भी था। वे केवल उन्हीं के अध्ययन में लगे रहते थे, और उनके अन्दर भरी हुई सचाइयों का चिन्तन करते थे। उस समय आर्यावर्त में इतना सुख ओर इतनी स्मृद्धि थी कि उस के समान अब कहीं दिखाई नहीं देती। लोक और परलोक दोनों का ही सुख वेदों के अध्ययन का फल है। बड़े ही दुःख का विषय है कि आर्यावर्त्त वैदिक धर्म से पतित हो गया है। जिस रसातल को यह पहुंचा है वहां पहुंचने से यह बच नहीं सकता था। इसने अपने पैरों पर आप कुल्हाड़ा चलाया है। यद्यपि पिछली बातों पर विचार करके अंधकार या दीखने लगता है फिर भी भावी आशाएं आनन्द-दायक हैं। सचाई का वही नित्य सूर्य अर्थात् वेद पुनः प्रकट हो गया है। इसने मूढ़ विश्वास के बादलों की सर्वथा छिन्न-भिन्न कर दिया है। संसार पर छाया हुआ अशुभ अंधकार दूर हो गया है और भास्कर पहले के से तेज के साथ पुनः चमक रहा है। यह सुखद अवस्था स्वामी दयानन्द के परिश्रम का ही फल है। उसी ने हमें उस प्रकाश के दर्शन कराए हैं जिसका कि प्राचीन ऋषि आनन्द लूटा करते थे। यद्यपि कई एक ने इस कृपा को देखा और इसका आदर किया है फिर भी बहुत से लोग, चिरकाल से अंधकार में रहने का स्वभाव होने के कारण या तो इसमें सन्देह करते है या उस प्रकाश में जाने से हठपूर्वक इनकार करते हैं। जिन लोगों की आत्माएं मूढ़ विश्वास के अन्धकार से बाहर निकल चुकी हैं उन सब का यह परम कर्तव्य है कि वे संशयात्मक लोगों के संशय की, और धर्मांध तथा दुराग्रही लोगों की धर्मान्धता तथा दुराग्रह की चिकित्सा करें। इसका केवल यही उपाय है कि उस संस्था की सहायता की जाए जहां कि आगामी पीढ़िया क्रमशः और अगोचर रीति से अन्ततः वहां जाने के लिए तैयार की जा रही हैं। वक्ता ने किसी संस्था का नाम नहीं लिया, जनता जानती थी कि किस संस्था की उन्हें सहायता करनी चाहिए। महाघोष करतल-ध्वनि में वक्ता बैठ गए।”

हमें लगता है कि पंडित गुरुदत्त जी ने जिस संस्था की सहायता करने का अनुरोध वा संकेत किया है, वह संस्था गुरुकुल कांगड़ी थी। हमारे इस लेख में पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी द्वारा पाश्चात्य विद्वान मोनियर विलियम्स की पुस्तक ‘‘इण्डियन विजडम” का खण्डन, स्वर विद्या का अध्ययन व प्रचार तथा आर्यसमाज लाहौर में दिया गया दुर्लभ, ऐतिहासिक, ज्ञानवर्धक एवं हृदयग्राही व्याख्यान है। लेख को विराम देने से पूर्व हम यह भी बताना चाहते हैं कि पंडित गुरुदत्त जी के समस्त उपलब्ध कार्यों को Works of Pandit Gurudutt Vidyarthi एवं इसके प्रो. सन्तराम जी कृत हिन्दी अनुवाद को ‘गुरुदत्त लेखावली’ के नाम से प्रकाशित किया गया है। पंडित जी का लघु जीवनचरित उनके घनिष्ठ मित्र श्री जीवनराम पेंशनर ने लिखा था। एक जीवन चरित प्रसिद्ध क्रान्तिकारी व ऋषिभक्त लाला लाजपतराय ने लिखा है। आर्य विद्वान डा. रामप्रकाश और प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने भी उनके जीवनचरित लिखे हैं। प्रो. सन्तराम जी कृत हिन्दी अनुवाद अनेक स्थानों पर कुछ जटिलता लिए हुए है। हमारा अनुमान है कि इसका सरल अनुवाद श्री घूड़मल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी के श्री आर्यमुनि वानप्रस्थी जी ने कर दिया है जो प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी के प्रशसंक इसके प्रकाशनार्थ न्यास को आर्थिक सहायता प्रदान कर प्रकाशन करा सकते हैं। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

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