आर्यभाषा हिन्दी के प्रचार व प्रसार में ऋषि दयानन्द का योगदान

0
915

hindiमनमोहन कुमार आर्य
महर्षि दयानन्द (1825-1883) का जन्म गुजरात राज्य के मोरवी जिलान्तर्गत टंकारा नामक कस्बे में 12 फरवरी, सन् 1825 को हुआ था। अतः स्वाभाविक रूप से गुजराती उनकी मातृभाषा थी। ईश्वर व सत्य ज्ञान की खोज में वह देश के अनेक भागों में गये और वहां विद्वानों व योगियों के सम्पर्क से उन्होंने योग व शास्त्रीय ग्रन्थों का परिचय प्राप्त करने के साथ गहन अध्ययन भी किया। उनके मुख्य विद्या गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती थे जिनसे उन्होंने मथुरा में सन् 1860 से 1863 तक आर्ष संस्कृत व्याकरण एवं वेदादि शास्त्रों आदि का अध्ययन किया था। स्वामी दयानन्द जी वार्तालाप, उपदेश व प्रवचन आदि में संस्कृत का ही प्रयोग करते थे। हिन्दी बोलने व लिखने का उनको अभ्यास नहीं था। उनको हिन्दी बोलने वा हिन्दी में उपदेश करने का परामर्श बंगाल में ब्राह्म समाज के नेता श्री केशव चन्द्र सेन ने दिया। देश के अधिकांश लोगों द्वारा बोली व समझी जाने वाली भाषा हिन्दी होने के कारण ऋषि दयानन्द जी ने इस प्रस्ताव को तत्काल स्वीकार कर लिया और इसके बाद हिन्दी में उपदेश देने का अभ्यास कर हिन्दी में ही उपदेश करना आरम्भ कर दिया था। उनके अनेक ग्रन्थों में से प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि व आर्याभिविनय हैं जो सभी हिन्दी में ही हैं। उन्होंने अनेक लघु ग्रन्थ भी लिखे हैं और चारों वेदों पर संस्कृत के साथ-साथ हिन्दी में भाष्य करने का भी उपक्रम किया जिसके अन्तर्गत उन्होंने सम्पूर्ण यजुर्वेद भाष्य किया। ऋग्वेद का भाष्य चल रहा था परन्तु सितम्बर, 1883 में उन्हें विष दिये जाने और कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो जाने के कारण ऋग्वेद वेदभाष्य का कार्य बीच में ही रुक गया। बाद में उनके अनेक शिष्यों ने इस अवरुद्ध कार्य को पूरा किया। इससे अनुमान कर सकते हैं कि स्वामीजी हिन्दी को अपने जीवन में कितना महत्व देते थे। यहां यह भी बता दें कि इतिहास में पहली बार वेदों पर हिन्दी में भाष्य करके महर्षि दयानन्द जी द्वारा हिन्दी को गौरवान्वित किया गया। न केवल वेद भाष्य ही अपितु धर्माधर्म विषय के अपने सभी ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि को हिन्दी में लिखकर उन्होंने हिन्दी के गौरव में चार चान्द लगायें हैं।

स्वामी दयानन्द जी ने अपने सार्वजनिक जीवन में जो पत्रव्यवहार किया, उसका संग्रह, सम्पादन व प्रकाशन का कार्य समय-समय पर पं. लेखराम जी, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. भगवद्दत्त जी और पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने मुख्यतः किया। इनके साथ ही पत्रों के संग्रह का कार्य महाशय मामराज जी ने जिस श्रद्धा व अनेक कष्टों को सहन करते हुए किया, उनका भी ऋषि के पत्रों के संग्रह में महत्वपूर्ण योगदान है। आर्यजनता का सौभाग्य है कि ऋषि दयानन्द के महान शिष्यों के पुरुषार्थ के कारण आज उनका प्रायः समस्त व अधिकांश पत्रव्यवहार चार भागों में उपलब्ध है। स्वामी जी के पत्रव्यवहार से उनके अनेक कार्यों, विचारों व भावनाओं पर प्रकाश पड़ता है। आर्यभाषा हिन्दी के लिए किए गये उनके कार्यो पर भी उनके पत्र एवं विज्ञापनों से प्रकाश पड़ता है। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने सन् 1980 में प्रकाशित पत्र और विज्ञापन के तीसरे संस्करण के प्रथम खण्ड के प्राक्कथन में स्वामीजी के हिन्दी के प्रचार व प्रसार में किये गये प्रयत्नों व कार्यों पर प्रकाश डाला है। उसे ही हम इस लेख में पाठकों के ज्ञानार्थ साभार व धन्यवाद सहित प्रकाशित कर रहे हैं।

पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी लिखते हैं कि ‘आर्य भाषा (हिन्दी) के प्रचार प्रसार में ऋषि दयानन्द ने कितना प्रयत्न किया था, इसे आर्य समाज के सभासद और अधिकारी भी भले प्रकार नहीं जानते। वे केवल इतना ही जानते हैं कि ऋषि दयानन्द ने मातृभाषा गुजराती और संस्कृत के पण्डित होते हुए भी अपने प्रायः सभी ग्रन्थ आर्यभाषा में लिखे, और उसी में उपदेश करते थे।

सन् 1882 में अंग्रेज सरकार ने डा. हंटर की अध्यक्षता में एक कमीशन नियुक्त किया था। इस का उद्देश्य राजकार्य में, जो उस समय प्रधानतया उर्दू फारसी तथा अग्रेजी भाषा में चल रहा था, के साथ आर्यभाषा (हिन्दी) को प्रवृत्त करना था। ऋषि दयानन्द इस उपयुक्त अवसर को हाथ से जाने देना नहीं चाहते थे। इस लिये उन्होंने राजकार्य में आर्यभाषा (हिन्दी) की प्रवृत्ति के लिये जो महान् प्रयत्न किया, उस पर ऋषि दयानन्द के इस पत्र-व्यवहार से ही प्रकाश पड़ता है, अन्य किसी स्रोत से प्रकाश नहीं पड़ता।

क–ऋषि दयानन्द 14 अगस्त 1882 को कालीचरण रामचरण को लिखे गये पत्र में लिखते हैं–

इस समय (आर्यभाषा के) राजकार्य में प्रवृत्त होने के अर्थ जो मेमोरियल (स्मृति-पत्र वा ज्ञापन) छपे हैं, सो शीघ्र भेजना। आप लोग जहां तक हो सके ……… आर्यभाषा के राजकार्य में प्रवृत होने के अर्थ प्रयत्न कीजिये।

ख–शुद्ध श्रावण शु. 3 सं. 1939 (17 अगस्त 1882) को बाबू दुर्गाप्रसाद को लिखे गये पत्र में ऋषि दयानन्द लिखते हैं–

दूसरी अतिशोक करने की बात यह है कि आजकल सर्वत्र अपनी आर्यभाषा के राजकार्य में प्रवृत्त होने के अर्थ (भाषा के प्रचारार्थ जो हंटर कमीशन हुआ है) उसको पंजाब आदि से मेमेारियल भेजे गये हैं। परन्तु मध्यप्रान्त (पश्चिम में गंगा से लेकर पूर्व में वाराणसी तक का प्रदेश), फर्रुखाबाद, कानपुर, बनारस आदि स्थानों से नहीं भेजे गये। और गत दिवस नैनीताल की सभा की ओर से इस विषय में एक पत्र आया है। उसके अवलोकन से निश्चय हुआ कि पश्चिमोत्तर देश (वर्तमान उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड) से मेमोरियल नहीं भेजे गये और हम को लिखा है कि आप इस विषय में प्रयत्न कीजिये। अब कहिये हम अकेले सर्वत्र कैसे घूम सकते हैं? जो यही एक काम (हमें करने को) हो तो चिन्ता नहीं। इसलिये आप को उचित है कि मध्यदेश (पश्चिम में गंगा से लेकर पूर्व में वाराणसी तक का प्रदेश) में सर्वत्र पत्र भेजकर बनारस आदि स्थानों से और जहां जहां परिचय हो, (उन) सब नगर वा ग्रामों से मेमोरियल भिवाइये। यह काम एक के करने का नहीं है। और अवसर चूके (तो) वह अवसर आना दुर्लभ है। जो यह कार्य सिद्ध हुआ तो आशा है कि मुख्य सुधार की नींव पड़ जायेगी।

ऋषि दयानन्द के आर्यभाषा के राजकार्य में प्रवृति कराने के इस अभियान का यह फल हुआ कि अकेले उत्तर प्रदेश से आर्य भाषा की राज्य कार्य में प्रवृत्ति हेतु 200 से ऊपर मैमोरियल हंटर कमीशन की सेवा में भेजे गये। हमें केवल मेरठ और कानपुर से भेजे गये दो मैमोरियल प्राप्त हुए हैं। इन दोनों में आर्यभाषा की उत्कृष्टता और उर्दू फारसी की न्यूनताओं को बड़े सशक्तरुप से उजागर किया है। ये दोनों मैमोरियल (पत्र और विज्ञापन ग्रन्थ के) द्वितीय भाग के परिशिष्ट 4 में उपलब्ध हैं।

उत्तरवर्ती आर्यजनों के द्वारा हिन्दी भाषा के प्रति जो उपेक्षा बरती गई, उस का जो परिणाम हुआ, उसका निर्देश भी इस प्रसंग में कर देना हम उचित समझते हैं।

1- हिन्दी साहित्य के जो भी इतिहास लिखे गये उन में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आदि के (योगदान के) विषय में पर्याप्त लिखा गया, परन्तु ऋषि दयानन्द के (योगदान के) विषय में प्रायः 5-7 पंक्तियां ही लिखी गईं। (इसे हम इन इतिहास लेखकों का ऋषि दयानन्द व आर्यसमाज के प्रति उपेक्षा का भाव, पक्षपात व पूर्वाग्रह ही कह सकते हैं-मनमोहन आर्य)।

2- नागरी प्रचारिणी सभा (वाराणसी) की ओर से केन्द्रीय शासन को सहायता से जो कुछ वर्ष पूर्व हिन्दी का विश्वकोष कई भागों में निकला है, उस में हिन्दी भाषा की सेवा के रूप में स्वामी दयानन्द का कहीं उल्लेख नहीं है। केवल पं. बालकृष्ण भट्ट के प्रसंग में इनके दयानन्द की विचारधारा से प्रभावित होने का उल्लेख मिलता है। (यह पंक्तियां पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी के वेदतर साहित्य के व्यापक अध्ययन की परिचायक हैं अन्यथा वह यह टिप्पणी नहीं कर सकते थे। -मनमोहन)

जिस नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से यह विश्वकोष छपा है, उस के आद्य प्रतिष्ठापक तीनों व्यक्ति ऋषि दयानन्द के अनुयायी थे। (यदि पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी इन तीनों व्यक्तियों के नाम भी लिख देते तो हमें लाभ होता। यह नाम हमें ज्ञात नहीं हैं, अत हम चाह कर भी पाठकों को अवगत नहीं करा पा रहे हैं-मनमोहन आर्य)

ये तो तीन विषय हमने निदर्शनार्थ उपस्थित किये है। ऐसे अनेक प्रसंग ऋषि के पत्रों से विदित होते हैं, जिन पर किसी अन्य स्रोत से कुछ भी प्रकाश नहीं पड़ता। इस विषय में श्री पं. भगवद्दत जी द्वारा लिखित भूमिका द्रष्टव्य है।’

यहां पं. मीमांसक जी का उद्धरण समाप्त होता है। हम पाठकों से आग्रह करेंगे कि वह ‘रामलाल कपूर ट्रस्ट, रेवली (सोनीपत-हरियाणा)’ से ऋषि दयानन्द सरस्वती के पत्र और विज्ञापन (चार भागों में) मंगा कर इसका अध्ययन करें। यह न केवल पठनीय हैं अपितु संग्रहणीय भी हैं। यदि यह समाप्त हो गये तो फिर यह किसी मूल्य पर भी प्राप्त न हो सकेगा, क्योंकि भविष्य में इनके पुनर्मुद्रण होने की आशा नहीं की जा सकती।

पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी के उपर्युक्त लेख में स्वामी दयानन्द जी की आर्यभाषा को अंग्रेजी शासन काल में ही राजकार्य में प्रवृत्त कराने की दृढ़ इच्छा व भावना ज्ञात होती है जिसके लिए उन्होंने हिन्प्दी भाषा के इतिहास में अपूर्व प्रयत्न किये थे। हिन्दी के लिए महर्षि दयानन्द व उससे पूर्व ऐसा संगठित प्रयत्न का उदाहरण इतिहास में नहीं मिलता। यहां यह कहते हुए हमें दुःख होता है कि महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के योगदान के लिए इतिहास में इन्हें उचित स्थान न देकर आर्यसमाज से इतर हिन्दी प्रेमियों ने उनके साथ न्याय नहीं किया है। यहां हमें ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश की भूमिका मे लिखे वह शब्द स्मरण हो आये जिसमें वह कहते है कि मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला हाता है परन्तु अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्या आदि कारणों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। 14 सितम्बर, 2016 को हिन्दी दिवस को सम्मुख रखकर हमने यह लेख लिखा है। अभी हम ऋषि दयानन्द के हिन्दी के प्रचार व प्रसार के कार्यों को रेखांकित करने वाले एकाधिक लेख और प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here