आदर्श परिवार निर्माण में युवाओं की भूमिका

डॉ. मनोज चतुर्वेदी 

भारतीय संस्कृति में ही अपना कुटुंब है कि अवधारणा रही है, पर पाश्चात्य संस्कृति ने यौन संबंधों द्वारा पति-पत्नी, पुत्र, पुत्री को ही परिवार माना है। यह कहां तक सही है, इस पर विचार करने की जरूरत है। क्या स्वयं में ‘मैं’ ही परिवार हूं? क्या पुरूष और स्त्री का एक साथ रहना ही परिवार है? क्या पुरूष-स्त्री से पैदा हुए संतान ही परिवार है? यह बिडबंना है कि हम आदर्श परिवार की उपरोक्त अवधारणा को पाश्चात्य विचारों के परिप्रेक्ष्य में ही जानने का प्रयास करते हैं, जो कि किसी भी तरह से ठीक नहीं है। भारतीय की अवधारणा प्रासंगिक हैतथा रहेगी। हिंदू जीवन-दर्शन ने यह स्पष्ट कहा है कि व्यक्ति को परिवार, जिला, राज्य राष्ट्र, एवं संपूर्ण मानव जाति के उत्थान के लिए प्रयास करना चाहिए। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वह परिवार को ही अपना सर्वस्व मान लें। भारत ने इसलिए 16 संस्कारों के द्वारा व्यक्तिनिष्ठ को समाजनिष्ठ बनाने का दर्शन प्रतिपादित किया। उसने देखा कि व्यक्ति की निष्ठा को परिवार के प्रति केंद्रित तो रखा जाए। लेकिन वह परिवार तक ही सीमित नहीं रहे। 16 संस्कारों के द्वारा संस्कारित युवक-युवतियां एक-एक कदम आगे बढ़े तथा वे समाज निर्माण में योगदान करें। यही विचार भारतीय जीवन-दर्शन की महत्वपूर्ण पीठिका है। यही विचार आदर्श परिवार वही परिवार है, जहां हिन्दव: सोदरा: सर्वे’ अर्थात् सारे हिंदू भाई- भाई हैं। कुछ सज्जन कह सकते हैं कि इसमें सांप्रदायिक संकीर्णता है, लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि हिंदू मात्र नामवाचक नहीं है। यह तो कर्म तथा जीवन दर्शन है। इसमें संपूर्ण भारत ही नहीं विश्व के मत-पंथ आ जाते हैं। आदर्श परिवार एवं समाज निर्माण के वाहक युवा होते हैं। कहा भी जाता है – ‘चाइल्ड इज द फादर ऑफ ए मैन’ अर्थात् एक बच्चा ही एक मनुष्य का पिता होता है। इसलिए उपर 16 संस्कारों की बात की गई है। मनुष्य जन्म से निम्न हो सकता है पर संस्कार के द्वारा ही वह ‘ब्राह्मण'(श्रेष्ठ) बनता है। विश्व के जितने भी व्यक्ति हुए हैं, उन्होंने संघर्षों द्वारा श्रेष्ठ स्थान को प्राप्त किया है और वे समाज में पूजनीय हैं।

वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण की प्रकि’या ने संपूर्ण सामाजिक जीवन को प्रभावित किया है। जिस परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची तथा अन्य कुटुंबी एक छत के नीचे रहा करते थे वे एक साथ संपूर्ण सामाजिक क्रियाकलापों को संपादित किया करते थे। वो आज स्वप्न तो नहीं लेकिन छिन्न- िन्न तो जरूर हुआ है। आज युवा पीढ़ी पर ही इसका दायित्व है कि वे किस तरह परिवार को संगठित कर सकते हैं, क्योंकि संगठन में ही शक्ति है तथा विघटन में सामाजिक पारिवारिक मूल्यों का पतन। युवाओं तुम्हारें पास तो अपने पूर्वजों की वह सुदृढ़ परंपराओं का अकूत भंडार है, जिसमें से हम बहुत कुछ ले सकते हैं तथा आदर्श परिवार और समाज का गठन कर सकते हैं।

युवाओं! आदर्श परिवार एवं समाज के लिए जरूरी है कि हम समाजनिष्ठ बनें। कोई पूछ सकता है कि हम किस प्रकार समाजनिष्ट बनें। क्यों बने? यह इसलिए कि हम सभी प्रभु के अंश हैं। जिनके लिए हमने इस संसार में जन्म लिया है तथा हमारे जीवन का भी कुछ लक्ष्य है। भारतीय समाज में जातिवाद, छुआछूत, दहेज, पश्चिमी अंधानुकरण, ग्रामीण गुटबंदी इत्यादि व्याप्त है। हमें यह सोचना होगा कि किस प्रकार इसे दूर किया जाए तो इसके लिए एकमात्र जो जरूरी हैं। वह है निरंतर संवाद की प्रकिया। संवाद के द्वारा तुम जातिवाद-छुआछूत, दहेज, ग्रामीण विवाद, सफाई की समस्या, दहेज इत्यादि समस्त समस्याओं का समाधान निकाल सकते हैं। हां, पर जरूरी है सकारात्मक सोच की। नकारात्मक सोच रखकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते हो। अपने मन में संवाद की सकारात्मक और सूक्ष्म दृष्टि का विकास करोगे। तब सबकुछ धीरे-धीरे ठीक हो जाएगा। परिवार में किसी भी प्रकार के मत भेद, मन भेद या मनमुटाव की स्थिति में तुरंत संवाद ही वह माध्यम है कि उपरोक्त समस्याओं का समाधान निकल जाता है। ज्यों ही हम एक साथ मिलना, बैठना तथा बातचीत करेंगे, मन के सारे मैल दूर हो जाते हैं तथा संपूर्ण समस्याओं का समाधान निकल जाता है।

मित्रों। आदर्श परिवार एवं समाज के गठन के लिए यह जरूरी है कि हम गांव को ही परिवार मानकर चलें। एक बात यह मानकर चलना होगा क जिस धरती पर हम पैदा हुए हैं, इसी पर हम बड़े होंगे तथा इसी मिट्टी में हम सभी मृत्यु के पश्चात् दफनाएं भी जाएंगे। अर्थात् धरती ही मेरी माँ है तथा मैं इस धरती माता का ही पुत्र हूं। तो हुई न बात। जब हम सभी ग्रामवासी इस प्रकार के विचारों का विकास करेंगे तो वह ग्रामीण परिवार ही तो हुआ। चीटियां तथा दीमकों के घरों से यह अंदाल लगाया जा सकता है कि वे सभी अपने घरों को बनाने के लिए मिल-जुलकर तथा एक कतार में काम करती है। युवाओं माता-पिता ही परिवार नहीं है। हमें उपरोक्त बातों पर ध्यान रखते हुए गांव को एक परिवार, जिला को एक परिवार, राज्य को एक परिवार, देश को एक परिवार तथा संपूर्ण विश्व को एक परिवार मानने की प्रकि’या का विकास करना है।

आज संपूर्ण मानव जाति में अधिकार के लिए सभीी जागरूक हैं तथा रहना भी चाहिए। यह उचित भी है। लेकिन हमारा दायित्व भी होता है। युवाओं! अधिकार के साथ कर्तव्य भावना जरूरी है; क्योंकि यदि हमारा अधिकार खाना-पीना, सोना पढ़ना-लिखना तथा अन्य कार्यों का है तो हमारा दायित्वों का निर्वाह भी करें। आज की युवा पीढ़ी को इस पर विचार करने की जरूरत है। प्राय: यह देखा जाता है कि आज का पढ़ा-लिखा नौजवान यह बार-बार कहते हुए सुना जाता है कि मेरा अमुक अधिकार है। मुझे परिवार एवं समाज से यह चाहिए। शिक्षित और जागृत युवाओं! तुम्हारा अधिकार के साथ दायित्व भी है कि तुम आदर्श परिवार एवं समाज के निमार्ण में अपना योगदान दिया करो।

तुम्हारा अधिकार है परिवार से सहयोग लेना तो तुम्हार दायित्व भी है परिवार को सहयोग देना। आपातकाल में यदि तुम्हारा अधिकार है कि तुम्हारी कोई सेवा-सहायता करे तो तुम्हारा दायित्व है कि तुम भी वैसा करो। यह इसलिए कि तुम परजीवी नहीं हो। तुम तो पैदा ही हुए हो संवाद, सहमति एवं सहकार्य के लिए।

एकता मात्र प्रवचन की बात नहीं है। पारिवारिक एवं सामाजिक एकता के अलग-अलग माध्यम है। इस समस्त माध्यमों से गुजरकर ही पारिवारिक एकता सं व है। इसके लिए जरूरी है कि सभी परिवार के सदस्य साथ-साथ बैठकर भोजन करें। यदि रोज-रोज संभव नहीं हो तो सप्ताह में एक-दो बार तो ही सकता है; क्योंकि एकता के जितने भी रास्ते हैं, वे सभी भोजन से तो नहीं जाते हैं पर उसमें से अधिक का संबंध भोजन से है। जरूर घर के एक-एक सदस्यों के रूचि के अनुसार भोजन बनाना ताकि उसे बांटकर खाना भी परिवार के संगठन की पहली विशेषता है। ठीक इसी प्रकार माह-दो माह में दो-चार परिवारों के बीच खान-पान के कार्यक्रमों का आयोजन जरूरी है, जिससे समाज और परिवार में एकता के सूत्रों का विकास होता है। खान-पान में मादक पदार्थों का प्रयोग सदा वर्जित रहना चाहिए। आज की युवा पीढ़ी में, इस प्रकार के खान-पान की प्रवृत्तियों का विरोध यही नौजवान कर सकते हैं। वे यह बताए कि सात्विक जीवन के द्वारा दीर्घायुष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

सात्विक जीवन से मनुष्य के सतोगुणी प्रवृत्तियों में वृध्दि तथा राजसिक व तामसिक जीवन में राजस एवं तामसिक प्रवृतियां बढ़ जाती है। हमारे संपूर्ण महापुरूषों का जीवन सात्वि रहा है। हमारे जीवन का लक्ष्य भोग नहीं। हम सभी हिंदू तो जीने के लिए खाते हैं ना कि खाने के लिए जीते हैं। तुम्हें अपने मित्रों एवं साथियों को बताना होगा कि गीता के 17वें अध्याय के निम्नाकिंत श्लोकों को पढ़ें तथा समझें।

”आयु: सत्वबलारोग्य सुखप्रीति-विवर्ध्दना:।

रस्या: स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहारा: सात्विकप्रिया॥” 

अर्थात् आयु, सत्व, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले उससे और धृत से युक्त अपने रसांश से बहुत काल तक देह में रहनेवाले और हृदय के हितकारी आहार सात्विक लोगों को प्रिय होते हैं।

”कटवम्ललवणात्युष्णतीक्ष्ण रूद्र विदाहिन:।

आहारा राजसयेष्टा दु:खशोकायमप्रदा:॥” 

अर्थात् कड़वे, खट्टे नमकीन अत्यंत गर्म और जलन उत्पन्न करने वाले आहार रजोगुण वालों को प्रिय लगते हैं। इनके सेवन से दु:ख अप्रसन्नता और रोग उत्पन्न होते हैं।”

”यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।

उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्” 

अर्थात् इस प्रहर के पहले जो पकाया गया हो , जिसका रस सुख गया हो, जो दुर्गंधयुक्त हो, वासी, उच्छिस्ट और अपवित्र हो, ऐसे भोजन तामसी प्रवृत्ति वालों को रूचता है।

मित्रों! यह समाज को बताने की जरूरत है कि सात्विक जीवन में ही संपूर्ण सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं वैश्विक समस्याओं का समाधान है। हमारा जीवन ज्यों ही सात्त्वि बल संपूर्ण समस्याओं का समाधान निकाल देगा। इस पर तो एक पुस्तक लिखा जा सकता है कि किस प्रकार सात्त्वि जीवन द्वारा वह सब कुछ किया जा सकता है, जिसे हम सभी युवा असं व समझते हैं।

भूमंडलीकरण ने भारतीय परिवारों को छिन्न- भिन्‍न तो किया है पर इसमें भी एकता के सूत्र को खोजना जरूरी है। भारतीय जीवन-दर्शन ने अर्थ को ही सबकुछ नहीं माना लेकिन उसने अर्थ को त्याज्य भी नहीं माना है। युवाओं! तुम धन को जरूर कमाओ, लेकिन इनकी तीन गति है-पहला दान, दूसरा भोग, तीसरा नाम। कमाए हुए धन के उपयोग की उपरोक्त विधियों में किसी जरूरतमंद को एक छोटी सी राशि सहयोग रूप में दे देना, अनाथालय चिकित्सालय एवं विद्यालयों की स्थापना हो तथा धन को खाने-पीने एवं विवादों में बर्बाद करना ही नाश है। अपने यहां त्यागपूर्ण भोग का विधान है। नवयुवकों को अपने सामाजिक एवं पारिवारिक दायित्वों का पालन करते हुए यह प्रयास होना चाहिए कि अर्जित धन का दशमांश समाजोपयोगी तथा लोकोपयोगी कार्यों के लिए ट्रस्टों या फाउंडेशनों में जमा करा दें क्योंकि हो सकता है कि हमारे परिवार का ही कोई व्यक्ति अपंग, संक्रामक रोग से ग्रसित हो जाए। यदि नहीं भी तो हम, हमारी संपत्ति तथा हमारा शरीर समाज के लिए है। हम सभी सामाजिक प्राणी हैं तो हम समाज के लिए काम तो करेंगे न। इस समाज ने ही हमें चलना बोलना तथा तरह-तरह के संस्कारों से संस्कारित किया है। अर्थात् सामाजिक प्राणी होकर हम समाज के णी किया हैं। अर्थात् सामाजिक प्राणी होकर हम समाज के ऋणी हैं। इस समाज के ण को उतारना ही होगा।

युवाओं! भारत यदि विश्वगुरू है तो वह केवल इसलिए नहीं है कि व मात्र प्राचीन राष्ट्र है। यह इसलिए विश्वगुरू है कि इसने विश्व को अपना संदेश दिया है। इसके लिए संदेशों को आत्मसात् करके चोर, अपराधी, निर्दयी भी परहितकारी, निस्वार्थी तथा संवेदनशील बन गए। तथा उनका संपूर्ण जीवन जो तरह-तरह के प्रपंचों से युक्त था वो नैतिक मूल्यों से ओत-प्रोत हो गया। युवाओं! हम उनके वंशज है। उनका पवित्र रक्त हम सभी के धमनियों में प्रवाहित हो रहा है। उनके वीर्यों से पैदा हुए हम सर्वश्रेष्ठ वंशज हैं। हमारा जीवन भोग के लिए नहीं, बल्कि भोग तथा त्याग के सामंजस्य से हुआ है। युवाओं! इस प्रकार के पवित्र विचारों को ज्यों ही हम ग्रहण करेंगे तो समस्त दुर्गुणों का नाश हो जाएगा। हम नयी शक्ति, नई ऊर्जा के साथ उठ खड़े होंगे। ऋषियों के विचारों की खान है हमारे संपूर्ण आध्यात्मिक ग्रंथ। जिनको आत्मासात करके कितने ही महावीर, बुद्ध, ईसा, मुसा, पैगंबर, मुहम्मद, कबीर, रैदास तथा महान शक्तियों की उत्पत्ति हुई है। युवाओं इनके विचारों को पढ़ना, सुनना-सुनाना ही पड़ेगा। ज्यों ही सुनेंगे त्यों ही बड़े-बड़े पराक्रमी, सत्यनिष्ठ, दानी तथा वीर पैदा होंगे। जिससे आदर्श परिवार एवं समाज का निर्माण होगा।

अभ्यास एवं वैराग्य ये दो शब्द ऐसे हैं कि इनके योग से मनुष्य का संपूर्ण जीवन ही बदल जाता है। युवावस्था बरसाती नदी की वह लहर है, जो उमड़ती-घुमड़ती रहती है। कहा जाता है ‘अधजल गगरी, छलकत जाए’ यही चरितार्थ होता है। यही वह जीवन है जिसमें अध्यात्म का समन्वय करके मानव श्रेष्ठ बन जाता है तथा उसे आदर्श परिवार एवं आदर्श समाज का एक ऐसा मॉडल बन जाता है जो सुव्यवस्थित जीवन के द्वारा ही संभव है। यह आता कहां से है तो वह एकमात्र अध्यात्म द्वारा भारतीय संस्कृति में अभ्यास एवं वैराग्य के द्वारा बहुत बड़ा परिवर्तन दिखाई पड़ता है। वैराग्य से ओत-प्रोत व्यक्ति अपने जीवन का सदुपयोग करता है। उसका संपूर्ण जीवन परिवार, समाज, राष्ट्र एवं मानवजाति के लिए ही होता है। लेकिन हाँ, यह एक-दो दिनों में नहीं आता है। इसका निरंतर हमें अभ्यास करना होता है। इसके लिए जरूरी है कि हमारे घर में अध्यात्कि पुस्तकों का संग्रह हों। पारिवारिक वातावरण भी आध्‍यात्मिक हो अर्थात् समाज जीवन का संपूर्ण क्षेत्र अभ्यास एवं वैराग्य से ओत-प्रोत हो। तभी युवा पीढ़ी इसके तरफ झुकेगी।

अत: हम यह कह सकते हैं कि आदर्श परिवार एवं समाज निर्माण में युवा-पीढ़ी का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। युवा समाज एवं राष्ट्र के विष्य है। इस विष्य समाज निर्माण के लिए स्वस्थ, सुव्यवस्थित एवं सुदृढ़ बनाना जरूरी है। जिस प्रकार हम किसी फसल के बीज को विभिन्न कठिन परिस्थितियों में भी बहुत बारीकि से रखते हैं, ठीक उसी प्रकार हमें युवा पीढ़ी को बचाना होगा तथा उन्हें एक निश्चित दिशा की तरफ मोड़ना होगा। तभी सबल एवं सशक्त भारत का निर्माण हो सकेगा।

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