‘नित्य पठनीय एवं आचरणीय सर्वतोमहान धर्मग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश’

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मनमोहन कुमार आर्य

परमात्मा ने इस सृष्टि और मनुष्य आदि प्राणियों को बनाया है। परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति का अखिल विश्व में स्वतन्त्र अस्तित्व है। यह तीनों सत्तायें मौलिक, अनादि, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी गुणों वाली हैं। परमात्मा ने यह सृष्टि जीवों के कर्मों के सुख व दुःख रूपी फल प्रदान करने के लिये बनाई है। मनुष्य योनि वह योनि है जिसमें वह जीवात्मा उत्पन्न किये गये हैं जिन्होंने पूर्व जन्मों में आधे से अधिक शुभ व पुण्य कर्म किये हों। जिसके शुभ, पुण्य या अच्छे कर्मों का प्रतिशत 50 से जितना अधिक होता है, उन्हें इस मनुष्य जीवन में उतने ही अधिक सुख, ज्ञान व साधन आदि प्राप्त होते हैं। अन्य जीवात्माओं, जिनके अशुभ कर्मों का अनुपात शुभ कर्मों से अधिक होता हैं, उन्हें मनुष्येतर नीच योनियां प्राप्त होती हैं जहां वह दुःखों से मुक्ति के लिये मनुष्यों की तरह सन्ध्योपासना, यज्ञ, परोपकार, दान आदि शुभ नहीं कर सकते। मनुष्य का जीवन मिल जाने पर इसे समाजोपयोगी व देशोपयोगी बनाने के लिये ज्ञान प्राप्ति तथा ज्ञानानुरूप पुरुषार्थमय जीवन व्यतीत करने की आवश्यकता होती है। ज्ञान की प्राप्ति मनुष्यों को अपने माता-पिता, आचार्यों, पुस्तकों का अध्ययन, वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों के स्वाध्याय के द्वारा होती है। वर्तमान में देश देशान्तर में सत्य विद्याओं के ग्रन्थों की उपलब्धि न होने और भोले भाले मनुष्यों के अविद्यायुक्त मिथ्या मतों व उनके ग्रन्थों सत्यासत्य मिश्रित बातों में फंसे होने से सत्य ग्रन्थों के अध्ययन की अतीव आवश्यकता है। सत्य ग्रन्थों की परीक्षा करने के बाद पूर्ण प्रमाणिक ग्रन्थ ईश्वर से प्राप्त वेद ज्ञान की चार संहितायें सिद्ध होती हैं। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। वेद ज्ञान की इन संहिताओं समस्त ईश्वर प्रदत्त ज्ञान सम्मिलित है। सृष्टि की आदि में परमात्मा ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा के माध्यम से अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न सभी मनुष्यों को यही वेद ज्ञान प्रदान किया था। इससे वेदाध्ययन की परम्परा आरम्भ होकर ऋषि जैमिनी, ऋषि दयानन्द और उनके अनुयायियों तक चली आई है। वेदों को समझाने व इनका सरलीकरण करने के लिये समय-समय पर अनेक ऋषियों ने व्याकरण ग्रन्थों सहित अनेक विषयों के शास्त्र ग्रन्थों का प्रणयन किया। वर्तमान में दर्शन, उपनिषदादि ग्रन्थ परा विद्या के प्रमुख ग्रन्थों में आते हैं। इसके अतिरिक्त व्याकरण सहित आयुर्वेद, ज्योतिष, कल्प व शिल्प आदि अपरा विद्याओं के ग्रन्थों का अध्ययन कर मनुष्य अपने जीवन को दुःखों से मुक्त कर मरणोपरान्त जन्म मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त कर ईश्वर के सान्निध्य से उसके परमानन्द को भोग सकते हैं।जन्म मरण से मुक्ति सहित ईश्वर के परमानन्द की प्राप्ति के लिये मनुष्यों को सत्य व धर्म का आचरण करना होता है। इसके ज्ञान के लिये वेदों के बाद सबसे अधिक ज्ञानयुक्त ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश है। मनुष्य जीवन के लिये उपयोगी सभी विषयों व उनके सत्य अर्थों का विधान इस ग्रन्थ से प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ के समान महत्चवपूर्ण व उपयोगी अन्य कोई ग्रन्थ संसार में नहीं है। इस ग्रन्थ से मनुष्यों के कर्तव्यों के ज्ञान सहित उनके आचरण की प्रेरणा प्राप्त होती है। अकर्तव्यों व अशुभ कर्मों से होने वाली हानियों के ज्ञान के साथ उनसे दूर रहने की प्रेरणा भी यह ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश करता है। यदि यह ग्रन्थ देश के सभी मनुष्यों तक पहुंच जाये और स्कूलों आदि के द्वारा इसका अध्ययन कराया जाये तो मनुष्य अविद्याओं व मिथ्याचरणों में विचरण करने और अपनी आध्यात्मिक एवं शारीरिक हानि होने से बच सकता है। इसके प्रचार से मिथ्या मत-मतान्तरों का हानिकारक प्रभाव भी दूर हो सकता है और समस्त विश्व के सभी मनुष्य सत्य ज्ञान के अनुसरण कर अपना व दूसरों का उपकार कर श्रेय मार्ग के पथिक बन कर ईश्वर की कृपा के पात्र बन सकते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति सहित संसार से अविद्या का नाश और विद्या का प्रसार करने के लिये सच्चे ईश्वर भक्त ऋषि दयानन्द ने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया है। यह ग्रन्थ ज्ञान का सूर्य है जबकि इसके सम्मुख सभी मत-मतान्तरों की पुस्तकें अज्ञान के तिमिर से युक्त हैं। यहीं कारण हैं कि अनेक प्रमुख मतों के विद्वानों ने इसका अध्ययन करने व इसको समझने के बाद सत्य वैदिक मत का अनुयायी बन कर इसके प्रचार व प्रसार को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। इस ग्रन्थ की अनेक विशेषतायें हैं। इनमें से कुछ की चर्चा हम आगे करेंगे। पहले यह जान लेते हैं कि इस ग्रन्थ में किन विषयों को सम्मिलित किया गया है।सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में 14 समुल्लास वा अध्याय हैं। पूर्वाद्ध में 10 समुल्लास हैं तथा उत्तरार्ध में 4 समुल्लास हैं। अन्त में ऋषि दयानन्द ने अपने निजी मन्तव्यों जो वेदों की मान्यताओं के सर्वथा अनुरुप हैं, उन्हें स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश नाम से लिखा है। आरम्भ के दस समुल्लास मण्डनात्मक अर्थात् वैदिक सिद्धान्तों पर प्रकाश डालते हैं तथा उत्तरार्ध के 4 समुल्लास आर्यावर्त्तीय मत-मतान्तर, बौद्ध एवं जैन मत, ईसाई मत तथा इस्लाम मत की समीक्षा करते हुए लिखे गये हैं जिसका उद्देश्य लोगों को धर्म व मत का अन्तर समझाना व सत्य मत के निर्णय में सहयोग करना है। इसका उद्देश्य व वैश्विक लाभ यह हो सकता है कि विश्व में एक सत्य मत स्थापित हो सकेगा जिससे सभी मनुष्यों को अधिकतम सुख लाभ होगा। प्रथम समुल्लास में मुख्यतः ईश्वर के एक सौ से कुछ अधिक नामों की व्याख्या के साथ मंगलाचरण समीक्षा दी गई है। द्वितीय समुल्लास में बाल शिक्षा, भूत प्रेत आदि निषेध सहित जन्मपत्र तथा सूर्यादि ग्रहों के मनुष्य के जीवन पर प्रभावों की समीक्षा है। तृतीय समुल्लास में अध्ययन-अध्यापन विषय सहित गायत्री व गुरुमन्त्र की व्याख्या, प्राणायाम शिक्षा, सन्ध्याग्निहोत्र उपदेश, यज्ञ पात्र, उपनयन समीक्षा, ब्रह्मचर्य उपदेश, पठन-पाठन की विशेष विधि, प्रामाणित तथा अप्रामाणित ग्रन्थों का विषय सहित स्त्री-शूद्रों के अध्ययन की विधि दी गई है। सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में अनेक विषय हैं। कुछ मुख्य विषय हैं समावर्तन, विवाह, विवाहार्थ स्त्री व पुरुष की परीक्षा, अल्प-वय में विवाह निषेध, गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार वर्ण व्यवस्था, विवाह के लक्षण, स्त्री-पुरुष व्यवहार, पंच-महायज्ञ, पाखण्डों का तिरस्कार, प्रातः जागरण, पाखण्डियों के लक्षण, गृहस्थ धर्म, पण्डित के लक्षण, मूर्ख के लक्षण, पुनर्विवाह पर विचार, नियोग विषय तथा गृहाश्रम की श्रेष्ठता। इन विषयों पर सत्यार्थप्रकाश में वैदिक मान्यताओं को प्रस्तुत किया गया है।सत्यार्थप्रकाश के पंचम समुल्लास में वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम का उल्लेख, इनके स्वरूप सहित इनके कर्तव्यों, लाभों एवं इसके विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। यह दोनों आश्रम स्वाध्याय व सत्संग द्वारा ज्ञानार्जन करने सहित तप व पुरुषार्थ के साथ वेद प्रचार व भटक रहे लोगों को सच्चे अध्यात्म के स्वरूप का प्रचार करके उन्हें अविद्याओं से मुक्त करने के साधन हैं जिससे इन आश्रमों में रहकर साधना से मनुष्य मोक्ष के निकट पहुंचता है। छठे समुल्लास में राजधर्म, राज्य संचालन के लिए तीन सभाओं की आवश्यकता व उनका वर्णन, राजा व राज्य अधिकारियों के लक्षण, दण्ड व्यवस्था तथा राज्याधिकारियों के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला गया है। इसके साथ ही इस छठे अध्याय में अट्ठारह व्यस्नों का विषेध, मन्त्रियों, दूतों तथा राजपुरुषों के लक्षण, दुर्ग निर्माण व्याख्या, युद्ध करने के तरीके, राज्य की रक्षा की विधि, ग्राम प्रधानों का वर्णन, कर प्रणाली, युद्धों के प्रकार तथा व्यापार आदि में राज्यकर, साक्षी के कर्तव्य, झूठी साक्षी देने पर दण्ड सहित चोरों के दण्ड विषयक विधानों का वर्णन है। सातवें समुल्लास में भी अनेक महत्वपूर्ण विषय सम्मिलित हैं। कुछ प्रमुख विषय हैं ईश्वर, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना, ईश्वर का ज्ञान व उसके प्रकार, ईश्वर की सत्ता, ईश्वर के अवतारों का निषेध, जीव की स्वतन्त्रता, जीव व ईश्वर की पृथक सत्ताओं का वर्णन, ईश्वर के सगुण व निर्गुण होने का कथन तथा वेद विषय विचार आदि। आठवें समुल्लास में सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय का वर्णन, ईश्वर से भिन्न सृष्टि के उपादान कारण प्रकृति का वर्णन, सृष्टि विषयक नास्तिक मत का निराकरण, मनुष्यों की आदि सृष्टि के स्थान का निर्णय, आर्य-मलेच्छ आदि की व्याख्या तथा ईश्वर का जगत को धारण करने का विषय व इनकी व्याख्या है। नवम् समुल्लास में विद्या, अविद्या, बन्धन तथा मोक्ष का वर्णन हैं। दशवें समुल्लास में आचार, अनाचार, भक्ष्य तथा अभक्ष्य आदि का वर्णन है। इस ग्रन्थ के उत्तरार्ध के ग्यारह से चौदह समुल्लासों के विषयों का उल्लेख हम उपर्युक्त पंक्तियों में कर चुके हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ में उन विषयों को सम्मिलित किया गया है जिस पर विज्ञान भी समुचित प्रकाश नहीं डालता। इसमें जो बातें कहीं गई हैं उनका आधार स्वयं वेदज्ञान देने वाला परमात्मा व आप्त श्रेणी के साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों को समाधि अवस्था में प्राप्त ज्ञान है। इसके साथ ही ऋषि दयानन्द ने अपने तर्क व युक्तियों के आधार पर इन सभी विषयों की सूक्ष्म परीक्षा कर इन्हें प्रस्तुत किया है। वैदिक धर्म के अनुयायियों को यह भी स्वतन्त्रता है कि वह अपनी इच्छा के अनुसार उचित व हितकर को अपनायें और जहां आशंका हो, वहां विद्वानों से शंका समाधान कर सत्य का ग्रहण व असत्य को स्वीकार कर सकते हैं।सत्यार्थप्रकाश को हम सर्वतोमहान ग्रन्थ इस आधार पर कह रहे हैं कि यह ग्रन्थ ईश्वरीय ज्ञान पर आधारित है और इसमें सभी वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों को सरल हिन्दी भाषा में प्रस्तुत किया गया है जिसे साधारण मनुष्य भी समझ सकता है। सत्यार्थप्रकाश के अंग्रेजी सहित विश्व की अनेक भाषाओं सहित उर्दू व अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी उपलब्ध है। आर्य विद्वानों ने अध्येताओं व साधकों की सुविधा के लिये उपनिषद, 6 दर्शन, मनुस्मृति, बाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि को भी हिन्दी में अनुवाद व टीकायें करके प्रस्तुत किया है। इन ग्रन्थों में जहां कहीं प्रक्षेप व बुद्धि एवं तर्क विरुद्ध बातें थी, विद्वानों द्वारा उनका समाधान करने सहित प्रक्षेपों को हटाया भी गया है। सत्यार्थप्रकाश में ऐसी अनेक बातें हैं जो विश्व के सभी मत-मतान्तरों में नहीं हैं। ईश्वर व जीवात्मा सहित जड़ प्रकृति का सत्य स्वरूप, ईश्वर की उपासना की सत्य व यथार्थ विधि, दुःख के कारणों व उनके निवारण के उपाय, बन्धन, मोक्ष, शिक्षा, अध्ययन-अध्यापन, भक्ष्य व अभक्ष्य, विवाह विषयक गुण व दोष आदि अनेकानेक विषय ऐसे हैं जो सत्यार्थ प्रकाश से ही जाने जाते हैं। इसके बाद वेदों को पढ़ना व समझना सरल हो जाता है। ऋषि दयानन्द की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने वेदों के सत्य व सरल अर्थ संस्कृत व हिन्दी में किये हैं। इनके स्वाध्याय से आत्मा की पिपासा व क्षुधा शान्त हो जाती है। कोई विषय ऐसा नहीं बचता जिसका ज्ञान सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से न होता हो और जो तर्क व युक्ति की कसौटी पर खरा न हो। हम अनुभव करते हैं कि यदि सारी दुनियां के लोग सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करेंगे तो इससे विश्व में सुख एवं शान्ति स्थापित होगी और मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकेंगे। लेख का और अधिक विस्तार न कर इस चर्चा को यहीं विराम देते हैं।

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