संघ और भाजपाः ये रिश्ता क्या कहलाता है?

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rssimage11111राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी। एक परिवार के दो सदस्य। एक विचारधारा के दो पहलू। एक संगठन में व्यस्त है तो एक राजनीति में। इस नाते दोनों में एक गंभीर रिश्ता है। परंतु यह रिश्ता क्या है, इस पर काफी विवाद और संभ्रम है। मातृ संगठन संघ को कहें और भाजपा को उसकी अनुषांगिक इकाई या संघ को वटवृक्ष कहें और भाजपा को उसकी एक शाखा या संघ को कारखाना कहें और भाजपा को उत्पाद? यह एक बड़ा जटिल सवाल है। इसकी जटिलता से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, यदि यह किसी संगठन का एक अंदरूनी मामला होता। इससे फर्क इसलिए पड़ता है क्योंकि भाजपा देश की क्रमांक दो की पार्टी है और संघ देश का सबसे बड़ा संगठन। फर्क इसलिए भी पड़ता है क्योंकि देशहित में काम करने वाले जो दो-चार सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन हैं, उनमें सबसे अधिक राजनीतिक प्रभाव संघ का ही है। गायत्री परिवार और स्वाध्याय मंडल जैसे संगठन भी व्यक्ति निर्माण कर रहे हैं, परंतु उनका राजनीतिक प्रभाव शून्य है और इस कारण नीति-निर्माण तथा देश की दशा और दिशा नियत करने में उनकी भूमिका नगण्य है। इसलिए यदि रा.स्व.संघ जैसे संगठन का भटकाव होता है तो देश की आशाएं मद्धम पड़ने लगती हैं। यही कारण है कि अमर सिंह व मनमोहन सिंह जैसे संघविरोधी नेताओं और खुशवंत सिंह जैसे संघविरोधी स्तंभलेखकों को भी कहना पड़ा कि भाजपा का यह बिखराव देशहित में नहीं है। इसलिए आइए देखें, कि भाजपा और संघ में आखिर क्या रिश्ता है और इस रिश्ते से देश के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ रहा है?

पिछले कुछ दिनों से देश की क्रमांक दो की राजनीतिक पार्टी भाजपा भारी उथल पुथल के दौर से गुजर रही है। यूं तो वर्ष 2004 के आम चुनावों में मिली हार के बाद से ही भाजपा की परेशानियों का दौर शुरू हो गया था। यह एक तथ्य है कि भाजपा नेतृत्व चुनावी हार को कभी भी पचा नहीं पाया है। 1971 हो या 2004 हार से वे बुरी तरह बौखलाते रहे हैं। प्रमोद महाजन की हत्या और आडवाणी के जिन्ना संबंधी बयान के विवादों के बाद संकट और गहराया। परंतु इस समय तक भी पार्टी को 2009 के आम चुनावों से कुछ आशा थी। परंतु 2009 के आम चुनावों में हार होते ही पूरी पार्टी इस तरह बिखरने लगी है जैसे हल्की हवा चलने से ताश का महल ढहने लगता है। हार के बाद न केवल पार्टी की अंदरूनी गुटबाजी उभर कर सामने आयी, बल्कि अनेक वरिष्ठ नेता बगावती तेवर अपनाने लगे। जसवंत सिंह, यशवंत सिंह, अरूण शौरी, सुधींद्र कुलकर्णी आदि अनेक नेताओं ने आक्रामक रूख अपना लिया। पार्टी नेतृत्व काफी अक्षम, निष्प्रभावी, र्किकर्तव्यविमूढ़ और दिशाहीन दिखने लगा। संकट केवल सांगनिक स्तर तक होता तो भी ठीक होता, लेकिन कोढ़ में खाज की कहावत को चरितार्थ करते हुए एन मौके पर जसवंत सिंह ने जिन्ना की प्रशंसा में अपनी किताब पूरी करके छपवा दी। अब यह संकट वैचारिक भी हो गया और इस नाटक में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को उतरना पड़ा। उल्लेखनीय है कि अरूण शौरी ने कुछ दिन पहले एक टेलीविजन चैनल को साक्षात्कार में कहा कि भाजपा की स्थिति कटी पतंग जैसी हो चुकी है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को चाहिए कि वह इसका नियंत्राण अपने हाथ में ले ले। इससे ठीक पहले संघ से सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी एक टेलीविजन चैनल पर साक्षात्कार दिया था और उसमें उन्होंने भाजपा के मामलों से संघ को पूर्णत: निर्लिप्त बताया था और भाजपा पर संघ के नियंत्रण की किसी भी संभावना सिरे से खारिज कर दिया था। ऐसे में शौरी के इस बयान पर चर्चा होनी ही थी और चूंकि इसी समय में सरसंघचालक मोहन भागवत द्वारा एक संवाददाता सम्मेलन में किए जाने की सूचनाएं प्रसारित होने लगी जिससे अनायास ही सबका ध्यान संघ द्वारा भाजपा की समस्या के निराकरण हेतु किए जा रहे प्रयासों की ओर चला गया। मोहन भागवत के इस संवाददाता सम्मेलन की प्रचार पूरे एक महीने से किया जा रहा था। परन्तु मोहन भागवत ने इस पत्राकार वार्ता से एक बार फिर संघ के भाजपा में हस्तक्षेप की बात को नकारते हुए न केवल उस पर कुछ भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया, बल्कि यह संकेत भी दिया कि मांगे जाने पर ही संघ अपनी राय देगा अन्यथा नही।

इस दौरान विभिन्न भाजपा नेताओं की मोहन भागवत से भेंट वार्ता जारी थी। प्रकाश जावेड़कर, वरूण गांधी, वैंकैया नायडू, अनंत कुमार, अरूण जेटली, सुषमा स्वाराज, रामलाल आदि नेताओं के अलावा लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की मोहन भागवत से कई बार भेंट हुई। परंतु इस पूरे घटनाक्रम के दौरान संघ के लोग भाजपा की समस्या से अपनी निर्लिप्तता भी जताते रहे। पूर्व संघ प्रवक्ता बार बार यही कहते रहे कि भाजपा नेताओं से ये मुलाकातें अनौपचारिक हैं और इनका भाजपा के वर्तमान झमेले से कुछ भी लेना देना नहीं है। स्वाभाविक ही है कि ऐसी स्थिति में कोई भी केवल अनुमान ही लगा सकता है कि वास्तव में संघ और भाजपा के बीच क्या संबंध हैं? उनके नेता जब मिल रहे हैं, तो वे आपस में क्या बातें कर रहे हैं? उनकी इन मुलाकातों और वार्ताओं के दौर से क्या परिणाम होने वाले हैं? ऐसे अनुमानों से संभ्रम और बढ़ता ही है।

बहरहाल, संघ और भाजपा के बीच संबंधों का संभ्रम केवल देश की मीडिया या फिर संघ परिवार से बाहर के लोगों में ही व्याप्त हो, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। संघ परिवार में भी इस बारे में पर्याप्त संभ्रम विद्यमान है। जमीनी स्वयंकसेवकों, कार्यकर्ताओं और अधिकारियों के अलग अलग स्तर पर संघ और भाजपा के संबंधों के बारे में अलग अलग धारणाएं हैं। देखा जाए तो संघ की पूरी कार्यप्रणाली में एक अंतर्द्वन्द्व दिखता है जो अक्सर समाज जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगों पर संघ के कार्यकर्ताओं को निर्णयात्मक भूमिका में आने में बाधा बनता है। उसका यह अंतर्द्वन्द्व राजनीतिक कार्यों को लेकर है। संघ का राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना चाहिए या नहीं? यही अंतर्द्वन्द्व है जिसके कारण अनेक महत्वपूर्ण प्रश्नों पर संघ अपनी भूमिका, स्थिति, सोच और नीति स्पष्ट नहीं कर पाता। इससे समाज में और स्वंय संघ के स्वंयसेवकों में भांति-भांति के भ्रम पैदा होते हैं। यह प्रश्न संघ के सामने देश के स्वाधीन होने के साथ ही खड़ा हुआ था और इस प्रश्न के उत्तर में ही संघ और भाजपा के संबंधों की वास्तविकता भी छुपी है।

हांलाकि कम्युनिस्टों के प्रचार के बाद संघ पर यह आरोप लगता रहा है कि उसका देश के स्वाधीनता संग्राम से कोई लेना-देना नहीं रहा है, लेकिन यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि संघ संस्थापक डा. हेडगेवार अपने बाल्यकाल से ही देश की स्वाधीनता के लिये प्रयत्नशील रहे थे और संघ की स्थापना के पीछे उनका प्रमुख उद्देश्य भी यही था। संघ की स्थापना से पूर्व वे क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति और बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सक्रिय रहे थे। 1920 के खिलाफत आंदोलन और उसके बाद हुए मोपला विद्रोह में मुस्लिम अलगाववादियों के उत्पात और महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों को देखने के बाद उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया। क्रांतिकारिओं के सामर्थ्य की अल्पता से भी वे परिचित थे और उनका स्पष्ट मानना था कि देश सशस्त्रा क्रांति का वातावरण ही नहीं है। इसलिए काफी चिंतन-मनन के बाद उन्होंने स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये एक नया रास्ता तलाशने का विचार किया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। संघ की स्थापना के बाद भी वे कुछ दिनों तक कांग्रेस में सक्रिय रहे। संघ की स्थापना का मूल उद्देश्य भारत की स्वाधीनता ही थी। इस तथ्य को इस बात से भी समझा जा सकता है कि 15 अगस्त 1947 से पहले तक संघ की प्रतिज्ञा जो हरेक वयस्क स्वयंसेवक को लेनी होती थी, में भारत को स्वाधीन कराने का संकल्प हुआ करता था। इसलिए संघ में ‘याचि देहि याचि डोला’ का मुहावरा प्रचलित हुआ था। यानी इस देह में इन्हीं आंखों से संघ का कार्य पूर्ण करना है, यह सपना डा. हेडगेवार का था। यही कारण था कि जब 1939 में डा. हेडगेवार अस्वस्थ थे और यूरोप में महायुद्ध शुरू हो गया तो वे अत्यंत परेशान हो गए। उन्हें लग रहा था कि अंग्रेज अभी कमजोर हो रहे हैं, उन पर हमला करने का यह सर्वोत्तम समय है, परन्तु वे संघ की स्थिति उतनी मजबूत नहीं पाते थे। स्वयं भी अस्वस्थ थे। उनके सर्वाधिक अधिकृत जीवनीकार ना.ह. पालकर ने लिखा है कि उन दिनों सन्निपात की अस्वस्थ में वे अक्सर बड़बड़ाया करते थे, ”यह देखो 1940 भी जा रहा है। हम अभी कुछ नहीं कर पाए। आज हम परतंत्र हैं पर स्वतंत्र होकर ही रहेंगे।” आदि-आदि। दुर्भाग्यवश 1940 में डा. हेडगेवार की मृत्यु हो गई। उसके बाद श्रीगुरूजी सरसंघचालक बने और यहीं से संघ के अंतर्द्वन्द्व का प्रांरभ हुआ।

देवेंन्द्र स्वरूप का मानना है श्री गुरूजी के सरसंघचालक बनने के बाद संघ में सांस्कृतिक पुनरूत्थान, आजन्म कार्य करने जैसी शब्दावलियां शुरू हो गई। देवेन्द्र स्वरूप के अनुसार संघ की कार्यप्रणाली शाखा-पद्धति स्वयंसेवकों में राजनैतिक गुण व स्वभाव विकसित करती है जबकि गुरूजी ने संघ के कार्य को सांस्कृतिक दिशा में ले जाने का प्रयास शुरू किया। परन्तु संघ के स्वयंसेवकों का बड़ा वर्ग श्री गुरूजी से असहमत था। उनकी इस असहमति को और बल मिला, जब महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लग गया। प्रतिबंध समाप्त होने के बाद संघ के अधिकांश स्वयंसेवक अनुभव करने लगे थे कि अब संघ को पूरी तरह राजनीतिक कार्य में लग जाना चाहिए। इसी समय कांग्रेस में भी उथल-पुथल हो रही थी और कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों से असन्तुष्ट नेता हाशिये पर पहुंचा दिये जा रहे थे। इसमें से एक पंडित श्यामा प्रसाद मुखर्जी संघ के संपर्क में थे। वे पहले डा. हेडगेवार से भी मिल चके थे। उन्होंने हिन्दुत्व की विचारधारा पर आधारित एक राजनीतिक दल बनाने को विचार किया। संघ के अनेक कार्यकर्ता उनके सपंर्क में थे। इसके लिये वे तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरूजी से भी मिले थे परन्तु श्री गुरूजी किसी राजनीतिक दल की स्थापना में संघ की कैसी भी भूमिका के लिये तैयार नहीं थे। अत: उन्होंने डा. मुखर्जी को किसी भी प्रकार की कोई सहायता देने से स्पष्ट मना कर दिया। परन्तु जैसा कि ऊपर लिखा गया है, स्वयंसेवकों का एक बड़ा वर्ग डा. मुखर्जी से सहमत था। जब स्वयंसेवकों ने देखा कि संघ नेतृत्व संगठन के स्तर पर कोई पहल करने के लिये तैयार नहीं हैं तो उन्होंंने स्वयं पहल करना प्रारंभ कर दिया ओर इस तरह जनसंघ की अनेक राज्य इकाईयों का गठन होने लगा। सबसे पहले जालंधर में पंजाब इकाई का गठन हुआ। भाजपा के विवादास्पद पार्टी डाक्युमेंट के खंड छ: ‘भारतीय जनसंघ का इतिहास’ में लिखा है ”जैसा कि पहले बताया जा चुका है, भारतीय जनसंघ का निर्माण राज्य स्तर पर शुरू हुआ था, ओर जब अनेक राज्य इकाईयां गठित हो गईं तो राष्ट्रीय पाटी का गठन किया गया। इस दिशा में सबसे पहले पंजाब-दिल्ली इकाई का गठन हुआ था। इस इकाई में संघ कार्यकर्ताओं के साथ-साथ वैसे लोग भी थे जो सीधे संघ से नहीं जुड़े थे लेकिन उसकी विचारधारा और सोच के काफी निकट थे।” यही बात वैद्य गुरूदत्त ने अपनी पुस्तक ‘भाव और भावना’ में इन शब्दों में लिखी है, ”अब जनसंघ की स्थापना होने लगी थी तो जनसंघ के जन्मदाता, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख अधिकारी इसकी स्थापना के पक्ष में नहीं थे। कुछ स्वयंसेवक एवं कार्यकर्ता थे जो एक राजनीतिक दल के निर्माण के पक्ष में थे। इनमें प्रमुख थे श्री बसंत राव ओक सामान्य स्वयंसेवकों, विशेषरूप में उत्तारी भारत के स्वयंसेवकों में राजनीतिक दल स्थापित करने की उत्कट अभिलाषा थी। श्री वंसतराव ओक ने उनका नेतृत्व किया और डा. मुखर्जी से राय करने लगे।

…कुछ लोगों ने, जो डा. मुखर्जी के धड़े के विरोधी थे, जालन्धर में बिना डा. साहब को आमंत्रित किए जनसंघ की स्थापना कर दी और पंजाब के एक विख्यात नेता महात्मा हंसराज के सुपुत्र श्री बलराज भल्ला को नेता मान लिया।

परन्तु वे स्वयंसेवक जो जनसंघ की स्थापना एवं उन्नति के लिये सत्य हृदय से इच्छुक थे, इससे प्रसन्न नहीं हुए। इस कारण जालंधर की कार्यवाही को रद्द कर पुन: दिल्ली में भारतीय जनसंघ की डा. मुखर्जी के नेतृत्व में स्थापना की गई। इसके महामंत्री श्री वसन्तराव ओक बनाए गए।”

इस बात को देवेंद्र स्वरूप कुछ इन शब्दों में कहते हैं, ”भारतीय जनसंघ का जन्म 1951 में किसी एक नेता के आह्वान पर न होकर भारतीय राष्ट्रवाद के वैचारिक अधिष्ठान पर नीचे से ऊपर की ओर हुआ था। बहुत कम लोगों को पता है कि जनसंघ की इकाइयां पहले जिला स्तर पर बनीं, फिर प्रादेशिक समितियां बनीं और अंत में उन प्रादेशिक समितियों ने एकत्र होकर अखिल भारतीय इकाई का निर्माण किया और उसका अध्यक्ष चुना। मैं उस प्रक्रिया का साक्षी हूं। मैं उस समय प्रयाग नगर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूर्णकालिक कार्र्यकत्ता (प्रचारक) था।

…संघ नेतृत्व पर बाहर और अंदर दोनों ओर से दबाव पड़ा कि भारतीय राष्ट्रवाद की रक्षा के लिए उसे राजनीति में हस्तक्षेप करना चाहिए। संघ में उस समय बहुत आंतरिक बहस चली। तत्कालीन सरसंघचालक मा.स.गोलवलकर की मूल प्रवृत्ति आध्यात्मिक थी और सत्ता राजनीति से घोर वितृष्णा थी। वे संघ को राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में रचनात्मक कर्म के द्वारा सांस्कृतिक भूमिका निभाने के पक्ष में थे। वे संघ की प्रारंभिक शाखा पद्धति के माध्यम से मनुष्य निर्माण को ही प्रमुखता देते थे। किंतु राजनीतिक घटनाचक्र के कारण चारों ओर से दबाव पड़ने पर उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में सीमित हस्तक्षेप करना स्वीकार किया। संघ के संगठन तंत्र को राजनीति से पूर्णतया अलग रखते हुए उन्होंने नये राजनीतिक दल के निर्माण की प्रक्रिया में संघ के सहयोग की अनुमति प्रदान कर दी।”

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि अलग अलग प्रेक्षकों ने जनसंघ की स्थापना का जो वर्णन किया है, उसमें थोड़ा बहुत विरोधाभास होते हुए भी कई समानताएं हैं। पहली समानता है कि राजनीतिक दल की स्थापना के लिए संघ नेतृत्व यानी कि श्रीगुरूजी बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। उन्हें यह अनुमति मजबूरी में देनी पड़ी। दूसरी बात यह है कि संघ के स्वयंसेवकों ने उनकी अनुमति मिलने से पूर्व ही इकाइयों का गठन प्रारंभ कर दिया था। अखिल भारतीय संगठन बाद में बना। विरोधाभास केवल इतना है कि संघ नेतृत्व ने राजनीतिक कार्य की अनुमति मजबूरी में दी या योजनापूर्वक। परंतु इस सवाल का उत्तर हमें आगे के कुछ घटनाक्रम से मिल जाता है। वैद्य गुरूदत्त लिखते हैं, ”श्री वसन्तराव ओक उत्तरी भारत में आर.एस.एस. के प्रमुख थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने को जनसंघ से पृथक करने के लिये श्री ओक को जनसंघ से पृथक रखना चाहते थे। परन्तु जब श्री ओक ने राजनीतिक कार्य में अपनी अभिरूचि प्रकट की तो उन्हें आर.एस.एस. से पृथक कर दिया गया।

यहां तक सब युक्तिसंगत ही था, परन्तु इतने से संतोष न कर जनसंघ के प्रथम अधिवेशन कानपुर में जब श्री वसन्तराव ओक को महामंत्री बनाने का प्रस्ताव हुआ तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उच्चाधिकारियों से आज्ञा मिली कि श्री वसन्तराव ओक के स्थान पर श्री दीनदयाल उपाध्याय को महामंत्री बनाया जाए।

यह था संघ का वह अंग जो स्वयं राजनीति में नहीं आना चाहता था, परन्तु जनसंघ को अपने अंगूठे के नीचे रखना चाहता था। इस मनोवृत्ति का सार्वजनिक प्रदर्शन उस समय हुआ, जब डा. मुखर्जी परमिट सिस्टम की अवज्ञा कर कश्मीर के लिये चले।

मुझे डा. साहब के साथ जाने के लिये कहा गया और मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। डा. साहब चाहते थे कि कोई युवक भी साथ चले। मुझे और डा. साहब को बताया गया कि श्री टेकचन्द शर्मा हमारे साथ चलेंगे। यात्रा आरंभ हुई। जब हम पानीपत पहुंचे और वहां सार्वजनिक सभा हो रही थी तो जनसंघ के एक प्रमुख सदस्य मेरे पास आए और कहने लगे कि मैं श्री टेकचन्द शर्मा को कह दूं कि वह वहां से दिल्ली लौट जाएं। मैंने श्री टेकचन्द शर्मा को कहा। श्री शर्मा का कहना था कि वह श्री बसन्तराव ओक के विचारों के हैं, इसी कारण दीनदयाल ग्रुप को पसंद नहीं। उन्होंने यह भी कहा है कि वह अपने मित्रों और घरवालों को कहकर आए हैं कि सत्याग्रह करने जा रहे हैं, इस कारण अब लौटेंगे नहीं। मैंने यह बात उस जनसंघ अधिकारी तक पहुंचा दी, जिसने मुझे श्री टेकचन्द को लौट जाने के लिये कहा था।

यह सुन उस अधिकारी ने कह दिया कि उसकी यात्रा का खर्च (रेल टिकट इत्यादि) जनसंघ नहीं देगा। यह मैंने श्री टेकचन्द को बताया तो वह पानीपत नगर में से अपने किसी परिचित से पचास रूपये उधार ले आए और अपना टिकट लेकर अमृतसर की ओर जाने के लिये गाड़ी में आकर बैठ गए। किसी ने टिकट एग्ज़ामिनर से उनका टिकट चैक करने के लिये कहा और वह श्री शर्मा का टिकट देखने आ गया। श्री शर्मा के पास अमृतसर का टिकट था। अमृतसर में बात डा. साहब तक पहुंची। डा. साहब ने मुझसे पूछा तो मैंने पूर्ण घटना का वृतान्त बता दिया। मुझे यह बताया गया था कि श्री टेकचन्द शर्मा जी के स्थान पर श्री अटल बिहारी वाजपेयी को भेजा रहा है।

जब डा. साहब को पता चला कि यह संघ का आभ्यंतरिक विवाद है तो उन्होंने श्री अटलबिहारी को मना कर दिया और श्री टेकचन्द हमारे साथ चलते गए। मेरे विचार से यह सब इस कारण हो रहा था कि आर.एस.एस. का वह विभाग जो स्वयं राजनीति में तो नहीं आना चाहता था, किन्तु जनसंघ पर हावी रहना भी चाहता था।

यह बात अगले ही वर्ष स्पष्ट हो गई। जनसंघ का अधिवेशन बम्बई में होना निश्चित हुआ था। पं. मौलीचन्द्र शर्मा, जो डा. साहब के निधन के उपरान्त कार्यवाहक प्रधान घोषित हुए थे, जनसंघ के यूनिटों से आगामी वर्ष के लिये प्रधान चुने गए। पं. मौलीचन्द्र शर्मा ने घोषणा कर दी कि वे अमुक तारीख को बम्बई पहुंच रहे हैं और वहां बैठकर अपना अध्यक्षीय भाषण लिखेंगे। भाषण छप चुका था कि एकाएक श्री दीनदयाल की ओर से घोषणा हो गई कि बम्बई जनसंघ अधिवेशन के प्रधान श्री उमाशंकर त्रिवेदी होंगे और वह अमुक तारीख को बम्बई पहुंच रहे हैं।

श्री मौलीचन्द्र शर्मा ने इस समाचार का प्रतिवाद छपवा दिया। झगड़ा बढ़ता गया तो श्री त्रिवेदी ने घोषणा कर दी वह प्रधान नहीं बन रहे। अत: श्री मौलीचन्द्र शर्मा अखिल भारतीय जनसंघ के प्रधान बन गए। इसका परिणाम एक अन्य रूप में प्रकट हुआ। 1955 में दिल्ली म्युनिसिपल कमेटी के चुनाव हो रहे थे। दिल्ली प्रदेश जनसंघ की कार्यकारिणी ने एक निर्वाचन बोर्ड बना दिया। उसमें पांच सदस्य थे। श्री कंवरवाल गुप्ता थे मंत्री और मैं उसका प्रधान था। पचास प्रत्याशी घोषित करने थे। बोर्ड ने अपनी एक मीटिंग में प्रथम दस की सूची तैयार की। इस पर आर.एस.एस. के एक अधिकारी का टेलीफोन आया कि वह सूची घोषित न की जाए। उसमें आर.एस.एस. की सहमति चाहिए। श्री कंवरलाल ने टेलीफोन पर पूछा कि सहमति कैसे प्राप्त हो सकेगी? क्या प्रत्याशियों की विचारित सूची उनके पास भेज दें? वहां से आज्ञा आई कि उनके दो प्रतिनिधि हमारे निर्वाचन बोर्ड में बैठकर राय देंगे।

आर.एस.एस. के दो प्रतिनिधि अगले दिन आए और तैयार सूची पर पुन: विचार आरम्भ हुआ। दस में दो नाम बदले गए और सूची प्रेस में भेजने के लिये तैयार हो रही थी कि आर.एस.एस. के कार्यालय से पुन: आज्ञा आई कि अभी ठहरा जाए और सूची प्रसारित न की जाए। हमने एक दिन और ठहर जाना स्वीकार किया। परन्तु रात के बारह बजे श्री दीनदयाल उपाध्याय की आज्ञा से दिल्ली प्रदेश जनसंघ की कार्यकारिणी, प्रतिनिधि सभा और निर्वाचन बोर्ड भंग कर ‘एडहाक’ कमेटी बना दी गई।”

इस लंबे उद्धरण से संघ और जनसंघ के संबंधों और संघ की राजनीतिक कार्यों में संलिप्तता या निर्लिप्तता का पता चलता है। वास्तव में प्रारंभ से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नेपथ्य राजनीति करता रहा है। इसका मूल कारण यह है कि शाखा पद्धति से उपजे हुए कार्यकर्ताओं में स्वाभाविक रूप से राजनीतिक अभिरूचि विकसित होती है, जबकि संगठनात्मक उद्देश्यों को राजनीति से पृथक रखा गया है। उद्देश्य और स्वभाव की इस विषमता से ही संघ के इस अंतर्द्वन्द्व का जन्म हुआ है। संघ के इस अंतर्द्वन्द्व के कारण न तो वह खुल कर राजनीति कर पाया और न ही उससे पृथक रह पाया। माया और राम का यह अंतर्द्वन्द्व इतना बढा कि आज समाज को उसकी सारी बातें दोहरी प्रतीत होने लगी हैं। समस्त आचरण दोहरा प्रतीत होने लगा है। परिणामस्वरूप उसके कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा है, उनकी प्रामाणिकता और वैचारिक ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न खड़े हो गए हैं। एक पुराने स्वयंसेवक की प्रतिक्रिया है, ”संघ और भाजपा के बीच के संबंध सबको पता हैं। इसे नकारना केवल वाग्जाल मात्र ही है। इनके ऐसे दोहरे बयानों से ही स्वयंसेवकों की श्रद्धा को चोट पहुंचती है।” इस अंतर्द्वन्द्व से निकलने के लिए चित्रकूट में एक बैठक हुई और वहां संघ नेतृत्व ने कुछ नियम बनाए। वहां यह तय किया गया कि भाजपा के सांगठिनक और चुनावी मामलों में संघ हस्तक्षेप नहीं करेगा। परंतु इसके बावजूद न केवल हस्तक्षेप जारी रहा, बल्कि दिल्ली के एक अत्यंत वरिष्ठ संघ कार्यकर्ता ने टिप्पणी की कि ”जब दरियां बिछानी थी और भीड़ जुटाना था, तब तो हम लगे और अब जब मलाई खाने का समय आया है तो हम सब छोड़ दें? यह संभव नहीं है।”

संघ के इस अंतर्द्वन्द्व के कारण जनसंघ में भी एक गहरा अंतर्द्वन्द्व पैदा हुआ। यह अंतर्द्वन्द्व था संघ से संबंध और जनसंघ पर उसके नियंत्रण का। प्रारंभ में ही इसको लेकर जो समस्या शुरू हुई थी, उसका पता पंडित मौलीचंद्र शर्मा और वैद्य गुरूदत्त के उपरोक्त वर्णन से चल जाता है। परंतु यह बात यहीं नहीं रूकी। यह विवाद बढता गया और इस पर बैठक तक बुलानी पड़ गई। देवेंद्र स्वरूप लिखते हैं, ”भाजपा और संघ परिवार के बीच गर्भ-नाल संबंध हैं। इस समय भी भाजपा के अधिकांश नेता संघ प्रक्रिया से राजनीति में आये हैं। संघ के अनेक प्रचारक भाजपा में संगठन मंत्री के नाते संघ की विचारधारा और आदर्शवाद के प्रतिनिधि माने जाते हैं। यह संबंध ही भाजपा में वैचारिक निष्ठा और आदर्शवाद का स्रोत है। पर, यही भाजपा के अन्तर्द्वंद्व का कारण भी है।” इस अंतर्द्वन्द्व का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं, ”1971 के लोकसभा चुनावों में जनसंघ को अपेक्षा से बहुत कम सीटें मिलीं। पराजय की कारण-मीमांसा के लिए दिल्ली के ढांसा रेस्ट हाउस में दो दिन की आत्मालोचन बैठक आयोजित की गयी, जिसमें जनसंघ का षिखर नेतृत्व सम्मिलित हुआ। स्व. श्री के.आर.मलकानी और मुझे भी आर्गेनाइजर तथा पाञ्चजन्य के सम्पादक के नाते उसमें सम्मिलित होने का अवसर मिल गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से स्व. बापूराव मोघे और स्व.दत्तोपंत ठेंगड़ी उपस्थित थे। उस बैठक में एक पर्चा प्रस्तुत किया गया, जिसमें संघ के साथ रिष्ते को जनसंघ की पराजय का एक कारण बताया गया। अटल जी ने उस बैठक में प्रश्न उठाया कि जनसंघ को निर्णय करना होगा कि वह राजनीति में मात्र एक सैद्धांतिक दबाव गुट बनकर रहे या सत्ता प्राप्ति को लक्ष्य बनाये। कौन कह सकता था कि किसी भी राजनीतिक दल का उद्देश्य सत्ता प्राप्ति नहीं होना चाहिए? पर, क्या सिद्धांतनिष्ठा और सत्ता प्राप्ति परस्पर विरोधी हैं? क्या सिद्धांतवाद को तिलांजलि देकर सत्ता प्राप्ति करना उचित होगा? यहां से जनसंघ के सामने सिद्धांतवाद और सत्ता के बीच समन्वय बैठाने की समस्या पैदा हो गयी।”

यह मामला यहीं नहीं रूका। विषय उठा तो भाजपा में संघ के राजनीतिक हस्तक्षेप पर काफी चर्चा हुई। इस पर वरिष्ठ भाजपा नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने 1979 में एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने संघ द्वारा जनसंघ की गतिविधियों में हस्तक्षेप पर सवाल खड़े किए। संघ को अनेकानेक उपदेश भी दिए। देवेंद्र स्वरूप लिखते हैं, ”भारतीय जनसंघ का नेतृत्व अभी भी जनता पार्टी के भीतर दोहरी सदस्यता के विवाद से जूझ रहा था। जनसंघ के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने 2 अगस्त 1979 को इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा जिससे ध्वनित होता था कि वे दोहरी सदस्यता के प्रश्न पर संघ से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। इस लेख में संघ के अनुषांगिक संगठनों (विद्यार्थी परिषद् व मजदूर संघ आदि) की राजनीतिक गतिविधियों पर आपत्ति उठाई गई। संघ को मुस्लिमों के लिए दरवाजे खोलने का उपदेष दिया गया। हिन्दू राष्ट्र की जगह भारतीय राष्ट्र शब्द प्रयोग अपनाने को कहा गया। इसी सोच में से 5 अप्रैल 1980 को 3500 प्रतिनिधियों के मुम्बई सम्मेलन में जनता पार्टी से अलग एक नये दल के निर्माण की घोषणा की गयी। भारतीय जनसंघ से उसकी भिन्नता दिखाने के लिए भारतीय जनता पार्टी जैसा नया नाम अपनाया गया। जनसंघ के भगवे झंडे की जगह भगवे के साथ हरा रंग जोड़कर नया झंडा बनाया गया। यहां तक कि दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद की जगह गांधीवादी समाजवाद को नई पार्टी की अधिकृत विचारधारा घोषित किया गया। और नई पार्टी के सेकुलर चरित्र को प्रदर्शित करने के लिए कांग्रेस से आए सिकंदर बख्त को राष्ट्रीय महामंत्री बनाया गया।”

स्पष्ट है कि भाजपा का जन्म ही उस अंतर्द्वन्द्व से उबरने के लिए हुआ था। लेकिन पार्टी का यह प्रयोग सफल नहीं रहा। उसके बाद हुए आम चुनावों में उसकी करारी हार हुई। हालांकि हार के कारण दूसरे थे, परंतु इससे यह सिद्ध हो गया कि इन परिवर्तनों से उसे फायदे की बजाय नुकसान ही होने वाला है। परिणामस्वरूप पार्टी ने पुन: संघ का दामन थाम लिया। हिन्दुत्व का राग अलापा जाने लगा। परंतु अब हिन्दुत्व भाजपा के लिए सिद्धांत नहीं, बल्कि एक रणनीति थी, जिसके बल पर उसे चुनाव जीतना था। इसलिए जब तक राम मंदिर और धारा 370 वोट दिलाते रहे, वे पार्टी के एजेंडा में रहे और जब उससे वोट मिलने की आस नहीं रही, बल्कि उसके छोड़ने से सत्ता मिलती दिखी तो वे मुद्दे एजेंडा से गायब हो गए। वर्ष 1992 से वर्ष 2004 तक देश की जनता और संघ के स्वयंसेवकों ने यह सारा तमाशा देखा। वर्ष 2004 में भाजपा की करारी हार के बाद यह सिद्ध हो गया कि भेड़िया आया भेड़िया आया का खेल बार बार नहीं खेला जा सकता।

वर्ष 2004 और 2009 में भाजपा की हार को देवेंद्र स्वरूप सत्ता राजनीति की विडंबना के रूप में प्रस्तुत करते हैं। परंतु सवाल यह है कि संघ की क्या मजबूरी है? वह विचारधारा से समझौता करने के लिए क्यों विवश हो रहा है? क्या उसे भी भाजपा के सत्तासीन होने से मिलने वाले सुखों की चाट लग गई है? यदि नहीं तो सत्तामोह में फंसे और विचारधारा से भ्रष्ट भाजपा नेतृत्व के प्रति उनकी आसक्ति क्यों है? वरिष्ठता के नाम पर विचारभ्रष्ट लोगों को वह क्यों सहन कर रहा है? एक आम और साधारण स्वयंसेवक के मन में आज एक ही सवाल है। क्या संघ राजनीति करता है? यदि नहीं तो भाजपा से संघ का क्या संबंध है? यदि संबंध हैं जोकि हैं ही, तो उसे नकारने का क्या कारण है? समस्या यह भी है कि संघ का भाजपा में हस्तक्षेप सांगठनिक और वैयक्तिक ही बना रहा है। वैचारिक स्तर पर उसने आज तक कभी भी कोई हस्तक्षेप नहीं किया। इसके विपरीत विचारधारा से भटकाव को चुनावी राजनीति की विवशता के रूप में व्याख्यायित करने की कोशिश करता रहा है। वास्तव में यह दोहरा व्यवहार ही चुनावों में उसकी बेरूखी का मुख्य कारण बना और जिसके कारण भाजपा की अप्रत्याशित हार हुई।

बहरहाल, संघ नेतृत्व के सामने प्रश्न यही है कि वह भाजपा के साथ अपने संबंधों को स्वीकारने की हिम्मत दिखाए। भाजपा में सांगठनिक व वैयक्तिक हस्तक्षेप और परिवर्तनों की बजाय वैचारिक परिवर्तन करने का साहस प्रदर्शित करे। जब तक वह यह हिम्मत नहीं दिखाता, संघ नेतृत्व के साथ-साथ आम स्वयंसेवकों को भी दुविधाओं का सामना करना पड़ता रहेगा और इस दुविधा का खामियाजा पूरे देश को भोगना पड़ेगा। पिछले दो आम चुनावों में संघ के स्वयंसेवकों की निष्क्रियता ने यह सिद्ध कर दिया है कि उच्चादर्शों पर चलने वाले स्वयंसेवकों को विचारभ्रष्ट भाजपा नेतृत्व स्वीकार नहीं होगा।

-रवि शंकर

फोटो-दै.भास्‍कर से साभार

5 COMMENTS

  1. जैसे श्री कृष्ण परामर्श दाता और अर्जुन योद्धा , जैसे चाणक्य प्रशिक्षक और चंद्रगुप्त राज्यकर्ता, जैसे रामदास संगठक,दिग्दर्शक और शिवाजी राजा,बस उसी प्रकार संघ और भा. ज. पा. के संबंधको मैने पढा है, स्वयंसेवक के नाते अनुभव किया है। और मानता हूं,कि भारतके और सारे भारतीयों के अन्ततोगत्वा कल्याणके लिए यही एक सही रास्ता है। अन्य शॉर्ट कट सत्ता दिला सकते हैं, पर दीर्घ कालीन कल्याण करनेमे अक्षम सिद्ध होनेकी अधिक संभावना है। यह सत्ताके विभाजनकी आदर्श प्रणाली है। जिसके पास ऋषि (धर्म अर्थात न्याय) सत्ता है, वोह कुटुंबके मोह माया और प्रलोभनोंसे अलिप्त (भागवतजी आजीवन प्रचारक)है। उनके निर्णय स्वार्थसे प्रेरित नही हो सकते।न उन्हे कोई सिंहासन या कुरसी पानी है। निश्चितहि संघके स्वयंसेवकभी जो भा.ज. पा. मे लगे हुए हैं, वे भी मानवीय दुर्बलताओंसे अछूते नहीं है, न यह अपेक्षित है।राज सत्ता सभीको भ्रष्ट करनेकी क्षमता रखती है। इसी लिए संघको परामर्शदाता का दायित्व एक पारिवारिक दृष्टिसे निर्वाह करना ही चाहिए। अब ये कैसे किया जाए यह तो भागवत जी पर छॊड दे। पारिवारिक परामर्श निजी हुआ करता है। उसे प्रकाशित करने पर परामर्श देनेवाला वरिष्ठ और लेनेवाला कनिष्ठ समझा जाएगा; शायद इस प्रकारके अर्थ घटनसे से बचनेके लिए उसे ऐसे निजी स्तरपे करना होता है। आप अपनी गृहिणीको भी सभीके सामने,उनकी गलतीयां नहीं बताते।मै तो मानता हूं, इस गतिविधिके पश्चात भा ज पा और संघ दोनो भारतके हितमे अधिक सक्षम होंगे। इश्वर करे ऐसाहि हो। आप जैसे विद्वान यह कैसे समझ नही पाए?

  2. आलॆख अछा हॆ. रवि जि नॆ सचायि छुपानॆ का प्रयास किया हॆ.लॆख तॊ बरा हॆ पर कुछ छुत गया हॆ.दरअसल आजकल सघ ऒर भाजपा दॊनॊ मॆ राजनितिक मह्त्वाकाछा का विस्तार हुआ हॆ. कुछ ऒर कहता पर अभि समय नहि आया हॆ.

  3. ”राष्ट्र्भक्ति,परिश्रमशीलता,समर्पण,अनुशासन,यह समाज दॆवता है और मै उसीकॆलिऎ जीनॆ मरनॆ वाला उसका उपासक,राष्ट्र सङ्घटित और बलशाली वैभवसम्पन्न हॊ यही मॆरा सुख धन ,पद, मानप्रतिष्ठा नही |इसका दिखावायुक्त गम्भीर‌ चॆहरा लॆकर नही बल्कि खॆल‍कूद‌ मस्तीसम्पुट हमारा जीवनलक्ष्य सदा प्रच्छन्न हमारॆ मनमॆ धधकता रहॆगा”ऐसॆ सहज सन्स्कारयुक्त व्यक्तियॊका निर्माण इस युगमॆ सङ्घ‌कॆ अतिरिक्त और् किसनॆ किया ? आश्चर्य है कि लॆखक सङ्घपरिचयमॆ इतनॆ छिछलॆ कैसॆ रह गयॆ ?’किम् कर्म किम् अकर्मॆति कवयॊप्यत्र मॊहिता:’|
    राजनीति सहित राष्ट्रजीवनकॆ सभी आयामॊकॊ राष्ट्रभक्ति‍अनुप्रॆरित करनॆका उदात्त कार्य हाथमॆ लियॆ हुऎ सङ्घका कितना अवमूल्यनभरा असत्य वर्णन लॆखकनॆ किया है |कुछ पुस्तकीय आलॆखॊकॆ आधारपर ? धिक्कार है |

  4. गुरुदत्त जी ने बहुत सुंदर ढंग से आर एस एस और जनसंघ के बारे मैं व्याख्या की थी . आज संघ और भाजपा दोनों ही कायरों की भांति व्यव्हार कर रहे हैं .दोनों को ही अपने वैचारिक ढंग मैं परिवर्तन की आवसकता है साथ ही साथ नया तेज तर्रार और योग्य नेतृत्व भी चाहिए जो मोदी की भांति करिश्मा कर सके .

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