संघ की व्याप्ति, शक्ति और रीति

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मा. गो. वैद्य

संघ| मतलब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ| महाकवि कालिदास के शब्द का प्रयोग करे तो, यह एक अलोकसामान्य संस्था है| कारण, आज हमारे देश में या अन्यत्र भी जो अनेक संस्थाएँ कार्य कर रही है, उनके नमूने में संघ नहीं बैठता| काव्यालंकारों में ‘अनन्वय’ नाम का एक अलंकार है| जिसकी तुलना केवल उसी से ही हो सकती है, अन्य किसी से भी नहीं, ऐसा अनन्यत्व मतलब अद्वितीयत्व सूचित करनेवाला वह अलंकार है| उसका रूढ उदाहरण है :-

गगनं गगनाकारं सागर: सागरोपम:|

रामरावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव ॥ 

आकाश आकाश के समान ही है, समुद्र समुद्र के समान ही है, और राम-रावण युद्ध भी राम-रावण युद्ध के समान ही है| अनन्य| अद्वितीय|

अनन्यत्व

संघ कितना बड़ा, कितना व्यापक, यह बताते हुए, कोई भी संघ की शाखा कितनी, वह कितने स्थानों पर भारत में लगती है यह बताएगा| यह योग्य ही है| हालही में संपन्न हुई संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में जो आँकड़े प्राप्त हुए, उनके अनुसार २७९९७ स्थानों पर, संघ की ४०८९१ शाखा लगती है| अर्थात् यह नियमित लगनेवाली दैनिक शाखा है| सप्ताह में एक बार या माह में एक बार होने वाले मिलनों की संख्या ले तो उसमें और १५००० जोडने होंगे| तात्पर्य यह कि, ५५८९१ स्थानों पर, संघ के कार्यकर्ता नित्य एकत्र होते है| हिंदुस्थान या दुनिया में है ऐसी कोई संस्था, जिसके छ: लाख से अधिक स्वयंसेवक रोज निश्चित समय पर एकत्र आते है? मेरी जानकारी में नहीं| किसे पता हो तो मुझे बताए; मुझे मेरा अज्ञान दूर होने का आनंद होगा|

मौलिक संकल्पना

लेकिन, यह शाखा मतलब संघ की संपूर्ण व्याप्ति नहीं| वह केवल ‘पॉवर हाऊस’ मतलब ऊर्जा निर्मिती केन्द्र है| ऊर्जा वितरण के लिए ‘पॉवर हाऊस’ सक्षम, समर्थ और नित्य सिद्ध होना ही चाहिए| तब ही उस ऊर्जा से हमारें घरों में के ट्यूब और अन्य दिये जलेंगे, यंत्र चलेंगे, बड़ी बड़ी मिलें चलेंगी| इसलिए संघ की रचना में ‘पॉवर हाऊस’जैसी इन शाखाओं का बहुत महत्त्व है| उनमें की ऊर्जा लेकर समाज-जीवन के अनेक क्षेत्र आज प्रकाशित है|

एक मूलभूत संकल्पना नित्य ध्यान में रखनी चाहिए| वह यह कि, संघ संपूर्ण समाज का संगठन है| It is an organization ‘of’ the entire society; it is not an organization ‘in’ the society. ‘ऑफ’ और ‘इन्’ में का अंतर ध्यान में लेना चाहिए| कोई भी समाज, विशेष रूप में प्रगत समाज कभी भी एकसूरी नहीं होता| वह व्यामिश्र (complex) होता है| मतलब समाज-जीवन के कई विविध क्षेत्र होते है| राजनीति उसमें का एक| धर्म, शिक्षा, उद्योग, खेती, कारखाने अन्य कितने ही| एक एक क्षेत्र के भी अनेक उपविभाग| शिक्षा क्षेत्र में विद्यार्थी भी आते है, शिक्षा संस्थाएँ भी आती है, शिक्षक भी आते है, संचालक भी आते हे| उद्योग क्षेत्र में उद्योगपति के साथ ही मजदूर भी आते है| संघ के पॉवर हाऊस में से ऊर्जा लेकर संघ के स्वयंसेवकों ने यह सब क्षेत्र अपनी अपनी शक्ति के अनुसार प्रकाशित और प्रभावित किए है| कोई उन्हे आनुषंगिक संगठन कहते है, कोई विविध गतिविधि मानते है| कोई ‘संघ परिवार’ मानते है| किसी भी शब्द का प्रयोग करें लेकिन उसके मूल ऊर्जास्रोत का भान रखना आवश्यक है|

संघ की व्याप्ति 

अ. भा. प्रतिनिधि सभा में, जिन्होंने अपना वृत्त-निवेदन किया, ऐसी संस्थाओं की संख्या ३५ थी| लोगों को केवल भाजपा और विहिंप ही दिखती है| जरा दृष्टि व्यापक की, तो वनवासी कल्याण आश्रम, राष्ट्र सेविका समिति, विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, स्वदेशी जागरण मंच भी नज़र आ सकते है| लेकिन विश्व विभाग नज़र आएगा? और राष्ट्रीय सिक्ख संगत, या सेवा भारती, विद्या भारती, सीमा जागरण, पूर्व सैनिक परिषद, इतिहास संकलन समिति, प्रज्ञा प्रवाह और जिनके नाम के अंत में ‘भारती’ शब्द है वह संस्कृत भारती, सहकार भारती, आरोग्य भारती, लघु उद्योग भारती, क्रीडा भारती का स्मरण होगा? इनकी ही पहेचान नहीं होगी, तो नेत्रहीनों को नेत्र पूर्ति करनेवाली ‘सक्षम’, स्वदेशी विज्ञान, साहित्य परिषद, सामाजिक समरसता मंच, और एक विशेष नाम लेना हो, तो ‘आयसीसीएस्’ कितने लोगों को ज्ञात होगी?

आयसीसीएस 

क्या है यह आयसीसीएस्? वह है International Center for Cultural Studies इस संस्था का हालही में ४ से ७ मार्च २०१२ को हरिद्वार में संमेलन हुआ| जिन्होंने ईसाई मत का प्रसार होने के पूर्व की अपनी संस्कृति अभी भी संजोए रखी है| ऐसी ५० संस्कृति-परंपराओं के ४०० प्रतिनिधि वहॉं आये थे| उनमें न्यूझीलंड के माओरी थे, अमेरिका में के मायन और नॅव्जो थे| यूरोप में जिनकी ‘पेगन’ मतलब ‘झूठे देवताओं की पूजा करनेवाले’ कहकर अवहेलना की जाती है, वे थे| लिथुयानिया में के रोमुवा, उसी प्रकार बाली में के हिंदू थे| २००२ में दिल्ली में मुझे इस समूह में के एक लेखक फ्रेडरिक लॅमण्ड मिले थे| उन्होंने मुझे उनकी ‘Religions without Beliefs’ यह पुस्तक भी भेट दी थी| वे यूरोप में के ऑस्ट्रिया देश के निवासी थे| संघ की ओर से इन संस्कृति-परंपराओं का रक्षण और संवर्धन किया जा रहा है| हिंदू संस्कृति-परंपराओं से उनका कितना साम्य है, यह उनके ध्यान में आया है| यह एक प्रकार से संघ का विश्वविक्रम ही है|

संघ की रीत 

अ. भा. वनवासी कल्याण आश्रम का नाम अब सर्वपरिचित है| वनांचल में, उसके द्वारा हजारों एकल विद्यालय चलाए जा रहे है| विहिंप, विद्यार्थी परिषद भी एकल विद्यालय चलाते है| लेकिन उसमें वनवासी कल्याण आश्रम का काम सबसे अधिक है| वनवासी कल्याण आश्रम के कारण ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण के आक्रमण पर लगाम लगी है| ईशान्य भारत में के अरुणाचल, मेघालय, असम, त्रिपुरा, नागालँड, मिझोराम, मणिपुर इन छोटे छोटे राज्यों में अनेक जनजाति (ट्राईब्स) है| उनकी अपनी कुछ विशेषताएँ है, तो कुछ साम्य भी है| इस साम्य का आधार लेकर अपनी परंपरा बचाए रखने के लिए उन्होंने अपनी संस्था भी बनाई है| विक्रमसिंह जमातीया उनके नेता है| यह सब वनवासी कल्याण आश्रम के माध्यम हुआ है| १ दिसंबर २०११ को अरुणाचल प्रदेश में के, ब्रह्मपुत्रा के किनारे पर के पासीघाट में ‘दोन्यीपोलो’ (मतलब चंद्र और सूर्य) एलाम केबांग (पारंपरिक धर्म-संस्कृति संगठन) इस संस्था का रजत जयंति समारोह संपन्न हुआ| कल्याण आश्रम के अध्यक्ष जगदेवराय उरॉंव और अरुणाचल के मुख्यमंत्री नाबम तुकी उपस्थित थे| वनवासी कल्याण आश्रम की व्याप्ति ऐसी है|

२७ दिसंबर २०११ से १ जनवरी २०१२ तक पुणे में ‘वनवासी क्रीडा महोत्सव’ का आयोजन कल्याण आश्रम ने किया था| उसमें २०३८ खिलाड़ियों ने भाग लिया| उनमें ७२५ महिलाएँ थी| ये सब खिलाड़ी ३४ राज्यों में से आये थे| कोई कहेगा कि इसमें विशेष क्या है? कोई भी क्रीडा स्पर्धा आयोजित कर सकता है| लेकिन यहॉं संघ की एक खास विशेषता प्रकट हुई| एक दिन पुणे में के १३०० परिवारों ने इन खिलाड़ियों के लिए अपने घर से भोजन लाकर दिया और आत्मीय बंधुता का परिचय दिया| इन परिवारों की केवल महिलाएँ ही भोजन लेकर नहीं आई थी| पूरा परिवार ही आया था और एक एक परिवार के साथ बैठकर वनवासी खिलाड़ियों मातृभोजन का आनंद लिया| यह संघ की विशेषता है| यह संघ की रीत है|

विश्व विभाग 

ऊपर विश्व विभाग का उल्लेख है| ३२ देशों में हिंदू स्वयंसेवक संघ की ५२८ शाखा है| अमेरिका (युएसए) में १४० तो यू. के. (इंग्लैंड) में ७० शाखा है| गत जनवरी माह में इस हिंदू स्वयंसेवक संघ की ओर से अमेरिका में ‘सूर्यनमस्कार यज्ञ’ का आयोजन किया गया था| उसमें १३१९१ स्पर्धकों ने भाग लिया और १० लाख ३८ हजार ८४२ सूर्यनमस्कार किये| अमेरिका में के एक राज्य के गव्हर्नर, दो कॉंग्रेसमन मतलब हमारी भाषा में सांसद और २० शहरों के महापौरों ने अधिकृत सूचना देकर इस यज्ञ को पुरस्कृत किया था| संघ के नाम में राष्ट्रीय शब्द है, लेकिन उसका विचार और संगठनचारित्र्य आंतरराष्ट्रीय बन गया है|

सीमा जागरण

‘सीमा जागरण’ नाम के संगठन का भी ऊपर उल्लेख किया है| हमारे देश की सीमा शत्रुराष्ट्रों की ओर से खतरे में आई है| उसकी रक्षा के लिए हमारे सैनिक सिद्ध है| लेकिन, जैसे सैनिक सिद्ध है, वैसे ही उस सीमावतीं प्रदेश में की जनता भी है| सैनिकों के साथ स्नेहबंध और जनता में धैर्यबंध यह महत्त्वपूर्ण काम यह सीमा जागरण मंच करता है| गत वर्ष सीमा पर की ५०० चौकियों पर रक्षाबंधन का कार्यक्रम हुआ| उसमें १३ हजार जवानों को राखियॉं बांधी गई| इस स्नेहबंध कार्यक्रम में २५०० पुरुष और १८०० महिलाओं ने भाग लिया| सेना में भरती होने के लिए इस मंच द्वारा युवकों को प्रेरित करने के साथ कुछ प्रशिक्षित भी किया जाता है| पंजाब, जम्मू-कश्मीर और राजस्थान की सीमा पर प्रतिवर्ष सेना भरती कोचिंग कॅम्प आयोजित किए जाते है| लोगों में जागृति निर्माण हो और कायम रहे इसके लिए ‘सीमा सुरक्षा चेतना यात्रा’ भी निकाली जाती है| गत नवंबर माह की १५ और २५ तारीख के दरम्यान दो यात्राएँ निकली| एक जम्मू-कश्मीर के पूँछ प्रदेश से निकली, तो दूसरी कच्छ के नारायण सरोवर से| २५ नवंबर को राजस्थान के बिकानेर जिले के खाजूवाला में दोनों यात्राओं का संगम हुआ| इन यात्राओं ने तीन हजार किलोमीटर दूरी पूरी की| ६१ ‘सीमा सुरक्षा संमेलन’ हुए| दो हजार गॉंवों में सभाएँ हुई| तीन सौ से अधिक शालाओं में प्रदर्शनी लगाकर विद्यार्थींयों के बीच सीमा सुरक्षा के बारे में जागृति निर्माण की गई| और भविष्य में हमारी सीमाएँ सिकुडने नहीं देंगे, ऐसा संकल्प लोगों के मन में पिरोया गया| सागरी सीमा पर भी मंच का काम चल रहा हे| पश्चिम और पूर्व सागर किनारे से सटे ६२ जिले है| उनमें से ४६ जिलों में सीमा जागरण का कार्य चल रहा है|

केवल राष्ट्र के लिए 

संघ के कार्यकर्ताओं ने, ‘पॉवर हाऊस’से ऊर्जा लेकर समाजजीवन के जो जो क्षेत्र प्रकाशमान किए, उन सब का समग्र परिचय करा देने की बात सोचे, तो एक बड़ा ग्रंथ ही बनेगा| वैसा ग्रंथ बनाने में भी आक्षेप नहीं हो सकता| लेकिन संघ प्रेरित कार्य प्रचार के भरोसे नहीं चलते| प्रसिद्धि तो छोड दे, जान की परवाह किए बिना, यह कार्यकर्ता अपने सेवा के क्षेत्र में मजबूती से खड़े है| किसलिए? स्वयं के लिए? मंत्रिपद प्राप्त करने के लिए? या समाचारपत्रों में नाम आने के लिए? नहीं| उनकी कोई व्यक्तिगत आकांक्षा ही नहीं| अपना देश, अपना राष्ट्र, अपना समाज – और राष्ट्र मतलब समाज ही होता है – (People are the Nation)मजबूत बने, एकसंघ बने, परस्पर सामंजस्य और सहयोग से बर्ताव करनेवाला बने और इस रीति से अपने एकराष्ट्रीयत्व की मुहर सब के अंतरंग में बने इसके लिए यह सब प्रयास है| इस नि:स्वार्थ प्रयास को ईश्‍वर का अधिष्ठान है और आशीर्वाद भी है| इसलिए सफलता ही उसकी नियति है| यह सब संघ की शक्ति है| संघ द्वेष्टा कॉग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह जो कहते है कि, संघ पर बंदी लगाना संभव नहीं, वे किसी भी उद्देश्य से कहते हो, सही ही कहते है| क्या संपूर्ण हिंदू समाज पर बंदी लगाना संभव है? नहीं! फिर संघ पर भी नहीं लगाई जा सकती|

अनुशासन का रहस्य 

संघ की एक खास रीत भी है| अनुशासन उसकी खास विशेषता है| संघ में यह सर्वज्ञात है| लेकिन उसके लिए दण्डात्मक प्रावधान (punitive sanctions) नहीं है| मैं प्रवक्ता था उस समय एक विदेशी पत्रकार ने मुझे संघ में के अनुशासन का रहस्य क्या ऐसा प्रश्‍न पूछा था| मैंने बताया, हमारे यहॉं अनुशासन भंग करने के लिए सजा का देन की व्यवस्था नहीं है| शायद यह, उसका कारण हो सकता है! उस पत्रकार को इसमें का कितना समझ आया होगा, पता नहीं! एक पुरानी बात बताता हूँ| १९५२-५३ की| उस समय गौहत्या बंदी के लिए संघ ने हस्ताक्षर संग्रह किया था| तब अनेक गौभक्त तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी से मिलने आते थे| एक बार लाला हरदेव सहाय के साथ एक साधू आये थे| उन्होंने गुरुजी से कहा, ‘‘आप ऐसा एक आदेश निकाले कि, संघ का कोई भी स्वयंसेवक अपने घर ‘डालडा’ का प्रयोग नहीं करेगा|’’ उस समय ‘डालडा’ नया नया ही बाजार में आया था| गुरुजी ने कहा, ‘‘ऐसे आज्ञा निकालने की संघ की पद्धति नहीं|’’ उस साधू को बहुत अचरज हुआ| वह बोला, ‘‘आप यह क्या कह रहे है? मैं जहॉं जहॉं जाता हूँ, वहॉं मुझे यही उत्तर मिलता है कि संघ की आज्ञा होगी, तो हम ऐसा करेंगे|’’ इस पर गुरुजी ने कहा, ‘‘ऐसी आज्ञा के लिए हमारे पास कौनसी दण्डशक्ति (सँक्शन) है? किसी ने आज्ञा का पालन नहीं किया, तो हम क्या दण्ड दे सकते है?’’ साधू ने पूछा, ‘‘फिर आपके संघ में इतना अनुशासन कैसे है?’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘हम रोज संघस्थान पर एकत्र आते है| हमारी पद्धति से कबड्डी आदि खेलते है| उससे अनुशासन निर्माण होता है|’’ ऐसा लगा कि उस साधू का समाधान हो गया| मुझे इसके साथ और एक कारण जोडना है| वह है संघ में के श्रेष्ठ अधिकारियों का व्यवहार| एक सामान्य मुख्य शिक्षक ‘दक्ष’ कहता है और सरसंघचालक से लेकर सब ज्येष्ठ श्रेष्ठ अधिकारी हाथ-पॉंव जोडकर सीधे खड़े हो जाते हैं| वे सब शिबिरों में सब के साथ रहते हैं| सब जो भोजन लेते है, वही वे भी लेते है| सब के समान गणवेश परिधान करते है| आचरण के इस सर्वसाधारणत्व से एक अलग वातावरण निर्माण होता है| वह समता का होता है| उससे अनुशासन निर्माण होता है| वह स्वयं ने स्वीकार किया अनुशासन होता है| वह भय से निर्माण हुआ नहीं होता| संघ में का अनुशासन देखकर अज्ञानी और/या पूर्वग्रहदुष्ट लोगों को संघ फॅसिस्ट लगता है| यह तो एक बड़ा विनोद ही है| यह अनुशासन स्वाभाविक बनने के कारण वह संघ की रीति बन गई है| कार्यक्रम शुरू होगा मतलब समय पर ही शुरू होगा| कई लोगों को देर से आने में प्रतिष्ठा अनुभव होती है| संघ में अलग ही वातावरण होता है| इतने बड़े संगठन में क्या कभी अनुशासन भंग हुआ ही नहीं होगा? लेकिन किसी के विरुद्ध अनुशासन भंग की कारवाई होने की बात किसी ने सुनी है? नहीं| कारण यह अनुशासन स्वयंस्वीकृत है| यह संघ की रीत है|

सरकार्यवाह का चुनाव 

दि. १७ को सरकार्यवाह के पद के लिए चुनाव हुआ| चुनाव कहने पर, अन्यत्र, तनाव, संभाव्य प्रत्याशियों की चर्चा, कौन पीछे कौन आगे – ऐसा धूमधाम का वातावरण होता है| लेकिन संघ में ऐसा प्रकार नहीं होता| अपना तीन वर्ष का कालावधि पूर्ण होने के कारण श्री भय्याजी जोशी ने एक संक्षिप्त निवेदन किया| सहयोग के लिए सब के प्रति आभार प्रकट किया और वे मंच से नीचे उतरे| फिर पश्चिम क्षेत्र के संघचालक लातूर के विख्यात डॉक्टर श्री अशोक जी कुकडे को निर्वाचन अधिकारी घोषित किया गया| (तीन वर्ष पूर्व मैं निर्वाचन अधिकारी था|) उन्होंने संविधान के प्रावधान का उल्लेख कर सरकार्यवाह पद के लिए नाम सुझाने की सूचना की| दिल्ली के डॉ. बजरंगलाल गुप्त ने श्री भय्याजी का नाम सुझाया| केरल के श्री मोहनन् और बंगाल के श्री रणेन्द्रनाथ बंदोपाध्याय ने उसे अनुमोदन दिया| निर्वाचन अधिकारी ने, और नाम आने की कुछ देर प्रतिक्षा की| लेकिन अन्य किसी का भी नाम नहीं आया| भय्याजी जोशी अगले तीन वर्षों के लिए सरकार्यवाह निर्वाचित होने की घोषणा उन्होंने की| भय्याजी फिर मंच पर आये| सरसंघचालक जी ने उनके गले में हार डाला और कार्यक्रम संपन्न हुआ|

उसके बाद, भूतपूर्व सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी अपने स्थान से उठकर ध्वनिवर्धक के सामने आये और उन्होंने तृतीय सरसंघचालक श्री बाळासाहब देवरस जी ने स्वयं के बारे में बताया हुआ एक किस्सा सुनाया| एक आदमी स्टेशन आया इसलिए रेल के डिब्बे में से उतरने लगा| लेकिन वह डिब्बे की तरफ मुँह करके उतर रहा था| प्लॅटफॉर्म पर बहुत भीड थी और हर कोई डिब्बे में चढने की जल्दी में था| लोगों को लगा कि, यह उतरने वाला व्यक्ति डिब्बे में चढनेवाला है| इसलिए लोग उसे भीतर ढकेल रहे थे| आखिर गाडी छूट गई| उतरने वाला यात्री गाडी में ही रहकर यात्रा करने लगा| बाळासाहब ने कहा था, ‘‘ऐसी ही मेरी अवस्था है| हर कोई मुझे भीतर ही ढकेलता है और मैं बाहर निकल ही नहीं पाता|’’ सुदर्शन जी के इस किस्से पर सब खुलकर हँसे| लेकिन उसके बाद सहसरकार्यवाह श्री सुरेश जी सोनी ने और कमाल की| वे बोले, ‘‘वह उतरनेवाला यात्री मोटा होने के कारण, डिब्बे की ओर मुँह करके उतर रहा था| इस कारण वह न चाहते हुए भी भीतर ढकेला गया| भय्याजी जोशी मोटे नहीं है| वे हम सब को सरकार्यवाह चाहिए इसलिए उनका चुनाव किया गया है|’’ सभागृह फिर हँसी में डूब गया|

ऐसी ही यह सहज स्वाभाविक लगने जैसी संघ के जीवन में की एक घटना है| संघ में ऐसे ही होता है| यह संघ के कार्यकर्ताओं का स्वभाव ही बन गया है| ‘मैं नहीं तू ही’ – यह उनके सामने आदर्श रहता है; और उस आदर्श के अनुकूल संघ की सिधी, सपाट लेकिन स्नेहिल रीत है| यह रीत उसकी बहुत बड़ी शक्ति है| संपूर्ण समाज को प्रेम से अपने बाहों में भरकर जो उसकी व्याप्ती बढ़ी है, वही उसकी शक्ति का सुदृढ अधिष्ठान है| केवल बुद्धिग्राह्य तत्त्वज्ञान नहीं|

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी) 

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