सूचना का अधिकार और पारंपरिक जनसमाज

लेखिका- डा. स्मिता मिश्र

लोकतांत्रिक व्यवस्था को समृद्ध और सुरक्षित बनाने के लिए नागरिकों के अधिकारों में एक और अधिकार जुड़ गया है; `सूचना पाने का अधिकार।´ इसका अर्थ है कि प्रत्येक नागरिक को अपने जीवन के लिये जरूरी सूचना प्राप्त करने का अधिकार है। ऐसा माना जा रहा है, इस अधिकार से जहां शासन की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता आने की संभावना है वहीं नागरिकों की लोकतांत्रिक सक्रियता बढ़ाने का सर्वाधिक कारगर उपाय भी सिद्ध होगा।

भारतीय पारंपरिक ग्रामीण जनसमाज जहां सूचना का अधिकार तो दूर की बात है `अधिकार´ शब्द की ही व्याप्ति नहीं है। और यदि है तो वह प्रभुता संपन्न लोगों तक ही सीमित है। तो यह सोचने की बात है कि `सूचना का अधिकार´ नामक कानून किस तरह उन लाखों-असंख्य लोगों तक पहुंचेगा और वे लोग किस प्रकार इससे लाभान्वित हो सकेंगे! लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि कस्बों और गांवों के लोग नगरों या महानगरों से जागरूक नहीं होते। कस्बों और गांवों से ही अनेक नेता निर्वाचित होकर शहरों में आते हैं, विचार मंथन में शिरकत करते हैं और उसका प्रभाव लेकर वापिस गांव या कस्बे लौटते रहते हैं तो उन्हें भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए वहां के लोगों में विचार-मंथन निष्कर्षों को संप्रेषित करते रहना पड़ता हैं। ग्रामीण शैक्षिक संस्थाओं के व्यक्ति पुस्तकों, समाचार-पत्रों, शहरी संपर्कों के द्वारा नयी चेतना से संपन्न होते रहते हैं। तीसरे पंचायतों में भी अब शिक्षित, विवेकवान लोग शामिल होते हैं। वे भी नये विचारों के संवाहक हो सकते हैं। इनके ही द्वारा जनता की पारंपरिक विचार जड़ता को तोड़ा जा सकता है। और विचार मंथन के क्षेत्र में जो कुछ नया हो रहा है उसकी सूचना से उसे जोड़ा जा सकता है।

अब विचारणीय है कि यह कार्य किस-किस स्वरूप में हो सकता है। ज़ाहिर है कि उपदेश या आदेश का प्रभाव स्थाई नहीं होता। जरूरत इस बात की है कि जनता को प्रीतिकर ढंग से नवचेतना की ओर उन्मुख करना है। और इस कार्य के लिये वे माध्‍यम अधिक कारगर होंगे जो जनता की पारंपरिकता से जुड़े हों। इनमें सर्वप्रथम मैं लोकगीतों की भूमिका को रूपायित करना चाहूंगी। लोकगीतों का लोकजीवन में अत्यंत व्यापक महत्व है। इनमें उनके सुख-दु:ख, अभाव-संघर्ष, समस्याएं, वर्गचेतना, वर्णचेतना, नर-नारी की अद्भुत प्रभावशाली व्याप्ति दिखाई पड़ती है। ये लोकगीत जीवन के सुख दु:ख, उल्लास-विषाद्, ऋतु मौसम, क्रिया-कलाप आदि अनेक संदर्भों से जुड़े होने के कारण संवेदना और रूप के वैविध्‍य से आभोक्ति होती है। ऐसे शक्तिशाली माध्‍यम का उपयोग नये कानून, नयी चेतना के विकास के लिये निश्चित रूप से किया जा सकता है। यहां सरकार और एनजीओ की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है कि वह लोगगायकों को फैलोशिप आदि देकर नयी चेतना के गाने बनाये और उनका प्रसार करे। जैसे एक लोकगीत में बांझ स्‍त्री अपने बांझपन के कारण घर-परिवार और समाज से प्रताडित होती है। और आत्महत्या करने के लिये नदी, बाघिन, आग आदि के पास जाती है और प्रार्थना करती है कि वे उसे मार दे किन्तु सभी यह कहकर मना कर देती हैं कि उसे मारने से वे भी बांझिन हो जाएंगी। अंत में धरती के पास जाती है। धरती तो मां है। वह उसे अपने में समा लेती है। अब यहां पर धरती के माध्‍यम से स्‍त्री की नयी ऊर्जा को जाग्रत करने का संदेश दिया जा सकता है कि धरती उस स्‍त्री को स्वाभिमान से जीने को प्रेरित करती है। बेटी ससुरा में रहिह तू चांद बनकर सबकि पुतरि के विचवा, पुरान बनकर भिनइ सबसे पहिले उठिह, ननद के मुंह से कबहु त लगिह ससुराजी के बाजे खरऊह, पानी लेके पहिले जइह। इस तरह के गीतों में जहां लड़की को ससुराल में मर्यादापालन सिखाया जा रहा है वहीं कर्तव्यबोध, आत्मसम्मान भी जाग्रत किया जा सकता है। इन गायकों के अनेक मंच हो सकते हैं। गांव-गांव में छोटे-छोटे कवि सम्मेलन, सरकार के अनुदाद से बाजार, हाट, मेला, उत्सव, स्कूल, पंचायत आदि में मजमा इकट्ठा कर अपनी बात कह सकते हैं। रेडियो, टीवी के माध्‍यम से इन गीतों को निरंतर प्रसारित किया जा सकता है। एक बहुत शक्तिशाली माध्‍यम है नुक्कड़ नाटक का। नाट्य मंडलियां जगह-जगह नुक्कड़-नाटक आयोजित कर नयी चेतना का प्रसार करती रहती है। ये मंडिलियां देहात जाकर नये अधिकार, नये कानून का प्रचार प्रसार करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इसी प्रकार कठपुतली या बंदरों का खेल तमाशा में लोककथा का प्रसार होता है। इस लोककथा के ढांचे भी पारंपरिक स्वर के स्थान पर नये स्वर को प्रमुखता दी जा सकती है। इसके लिये सरकारी तंत्र इन लोक कलाकारों को आर्थिक रूप से सहायता करके प्रचार माध्‍यम के रूप में प्रयोग कर सकती है। पंचायत का भी विभिन्न तरीकों से इस्तेमाल हो सकता है। पंचों को सरकार नयी सूचनाओं से अप-टु-डेट करे। उनके वर्कशॉप हों ताकि वही पंच गांव को नयी सूचनाओं से अप-टू-डेट कर सके। इस अवसर पर आगे-पीछे मनोरंजक माध्‍यमों का प्रयोग किया जा सकता है। यहां फिल्म भी दिखाई जा सकती है। फिल्म एक अत्यंत सशक्त माध्‍यम है। ऐसी फिल्में जहां ग्रामीणों ने, महिलाओं ने एकजुट होकर अपने हक की लड़ाई लड़ी हो चाहे वह मंथन हो, लगान हो या मिर्च मसाला।

इसी प्रकार समाचार पत्रों की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण है। जैसे कुछ वर्ष पहले मध्‍यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले की पीपरा बिमारी ग्राम पंचायत की अनुसूचित जाति की सरपंच गुंदिया बाई को वहां के प्रभावशाली लोगों ने स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराने से रोकने पर वहां समाचार पत्रों ने इस घटना को भरपूर प्रचारित किया। परिणामस्वरूप आगामी स्वतंत्रता दिवस पर मुख्यमंत्री ने स्वयं गुंदिया बाई के हाथों टीकमगढ़ जिला मुख्यालय पर झंडा फहरवाया। इस दिशा में कथित राष्ट्रीय समाचार पत्रों की अपेक्षा छोटे पत्र-पत्रिकाएं बेहतर सिद्ध हो रहे हैं। यहां एनजीओ की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। कई एनजीओ के द्वारा छोटी-छोटी जगहों से बेहतर समाचार-पत्र-पत्रिका निकाल रहे हैं। जैसे मध्‍यप्रदेश में देवास जिले से एकलव्य संस्था – `पंचतंत्र´ पत्रिका, पीआईआई `ग्रासरूट´ निकालती है। `खबर लहरिया´ समाचार पत्रा को `चमेली देवी´ पुरस्कार मिला। तब इसकी संपादक मीरादेवी व संवाददाता दुर्गा मिथिलेश आज के पत्रकारों की तरह नहीं हैं, न इनके शरीर पर ग्लैमरस ड्रेस पोशक है न मेकअप। उप अपनी जमीन की भाषा में समाचार प्रस्तुत करने का जो अंदाज देवगांव वह बड़े-बड़े समाचारपत्रों में नहीं दिखाई पड़ती। आज हमारे अखबारी भाषा में जो तेवर गायब होते जा रहे हैं वे यहां पूरी ताकत के साथ मौजूद हैं। इनके विषयों में जहां विकासमूलक, स्थानीय मुद्दे हावी रहते हैं, वहीं राष्ट्रीय स्तर की हलचलों से भी ये नावाकिफ नहीं रहते। इसे वायन की सहायता से भी प्रस्तुत किया जा सकता है। एफएम पर इसे डाला जा सकता है। गांववालों की ही आवाज में गांव से जुड़े मुद्दों पर सूचना प्राप्त करने, उनपर विश्लेषण करने तथा राय बनाने में ये अखबार महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसके अतिरिक्त धार्मिक सत्संग, अभियान जत्था, स्वयं सहायता ग्रुप आदि भी सूचना के अधिकार को ग्रामीणों तक पहुंचाने में अत्यंत सहायक सिद्ध होंगे। ये नारी संबंधी मुद्दे जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, अधिकार, स्वरोजगार आदि पर जागरूकता लाने के काफी कारगर सिद्ध होंगे।

आखिर में एक कविता से बात खत्म करूंगी। आकाश से बहती है एक नदी और ऊपर ही ऊपर पी लेता कोई उसे, धरती प्यासी की प्यासी रहती है और कहने को आकाश से नदी बहती है। यदि सूचना का अधिकार नामक कानून आकाश से उतरकर प्यासी धरती तक पहुंचेगा तभी लोकतंत्र की सही पहचान होगी अन्यथा कागजी कानूनों की सूची में एक कानून और जुड़कर रह जाएगी।

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यलय मे लेक्चरर और मीडिया विश्लेषक हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here