​सभ्यता और संस्कृति – बदलते परिप्रेक्ष्य में

sabhyataबी एन गोयल

 

सभ्यता और संस्कृति ऐसे दो शब्द हैं जो प्रायः एक साथ युग्म रूप में प्रयोग होते हैं की इन्हें समानार्थक मान लिया जाता है । लेकिन दोनों में अंतर है । दोनों ही शब्दों की विभिन्न विद्वानों ने विशद परिभाषाएं दी हैं लेकिन सीधे सामान्य तौर पर कहें तो संस्कृति का सीधा सम्बन्ध संस्कारों से है । संस्कार जो व्यक्ति अपने परिवार, समाज, जाति अथवा अपने समूह से विरासत के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी प्राप्त करता है, जो उस के आंतरिक व्यक्तित्व, गुण, आचार विचार, और सहज स्वभाव में परिलक्षित होते हैं । मैं यहाँ आप को दो ग्रंथों से उदाहरण देता हुं ।

पहले तेतरिय उ​पनिषद की चर्चा करूँ । जब शिष्य अपनी शिक्षा समाप्त कर लेता है तो गुरु उसे दीक्षा देते हैं – जिसे आजकल आप ग्रेजुएशन सेरेमनी कहते हैं। ​ गुरु पहला सूत्र देते हैं – मातृ देवो ​भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव,  तथा अतिथि देवो भव।​ इस का अर्थ हैं – माता को देवस्वरुप  मानो, पिता को देव स्वरुप मानो, गुरु को देव स्वरुप मानो और अतिथि को देव स्वरुप मानो | यहाँ पश्चिमी देशों में फादर डे, मदर डे, अलग अलग मनाते हैं और इस में केवल माता और पिता का नाम है|

उपनिषद के सूत्र में गुरु और अतिथि सहित चारों का नाम है – यहाँ चारों ही देव समान हैं ।आगे ऋषि कहते हैं – सत्यम वद, धर्मं चर । अर्थात सत्य बोलो और धर्म का आचरण करो । आगे सत्य और धर्म की व्याख्या दी गयी है । सत्यम ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यमप्रियम । सत्य बोलो प्रिय य़ानी मीठा – बोलो लेकिन कभी कडवा सत्य मत बोलो । धर्म की व्याख्या व्यापक अर्थ में हैं । इन दो सूत्रों में माता  पिता गुरु, अतिथि तथा सत्य [i]बोलने के दो सूत्रों में भारतीय संस्कृति के एक आयाम को देखा जा सकता है ।

दूसरा प्रकरण केनोपनिषद का है । बालक नचिकेता और यमराज की बातचीत । इस में नचिकेता अपनी शंका समाधान करने पर ही सन्तुष्ट होता है।

ये दो प्रकरण भारतीय संस्कृति की जीवंत परिभाषा हैं । और भी ऐसे प्रकरण हैं . इन में आंतरिक शुद्धता की बात हैं, आचरण की बात है – संयम और नियम का उपदेश हैं । केवल अपने शिष्य के लिए ही नहीं वरन पूरे समाज के लिए है । इन मैं संस्कारों की बात है – संस्कार अर्थात सदगुणों को बढाना एवं दोषों को घटाना, संस्कारित करना, अच्छी आदतें सीखाना और बुरी आदतें निकाल कर फेंकना । संस्कृति का सीधा सम्बन्ध हमारे संस्कारों से है ।

ऋषियों ने १६ संस्कारों की बात कही – संस्‍कारों के हमारे जीवन में दो पक्ष है – सैद्धान्तिक और व्‍यवहारिक। व्‍यवहारिक पक्ष देशकाल की प्रवृत्तियों के अनुसार परिवर्तित हो सकता है परन्‍तु सिद्धान्‍त वही रहता है। प्राचीन काल में संस्‍कारों का समावेश जीवन में वैदिक मंत्रों तथा यज्ञों का आयोजन कर किया जाता था और आज परिवारजनों व इष्‍ठ मित्रों को बुलाकर सामान्‍य पूजा पाठ करके पूरा किया जाता है। भारतीय जीवन दर्शन व मूल्‍यों में संस्‍कार अभिन्‍न अंग है।

अभी तक मैंने जो  बात की – उस से आप को लगेगा की मैं शायद  सतयुग, द्वापर या त्रेता युग की बात कर रहा हूँ । आज हम कलियुग में रह रहे हैं । इस युग की अपनी विशेषताएं हैं – सीमायें हैं । अभी १३ वर्ष पहले हमने २१ वीं शताब्दी में कदम रखा है – २० वीं शताब्दी क समय उथल पुथल का समय रहा है । दो  विश्व युद्ध हुए – भारत ने सत्य और अहिंसा के बल पर स्वतंत्रता प्राप्त की।  शीत युद्ध चला । सुपर पावर बनी और बिगड़ी । धर्म के आधार पर विभाजन का सिद्धांत फेल हो गया।  समाज में परिवर्तन आते हैं ।  भारत में इन  परिवर्तनों की गति गत  पांच दशकों में काफी तेज रही है – आज हमारे पास कम्पूटर है – इंटरनेट, I-Pad है – palm top  आदि । अब आदमी के हाथ में पूरे विश्व की कुंजी हैं ।  वसुधैव कुटुम्बकम की भावना साकार हो गयी है । अब हम ग्लोबल गाँव की बात करते हैं  ।

लेकिन मैं महत्वपूर्ण तत्व  लूंगा – भाषा का । हिंदी भाषी लोगों की मानसिक स्थिति का । आज हिंदी भाषी व्यक्ति एक दोराहे पर है । वह जो हिंदी बोलता है – लिखता तो नहीं है – क्या वह हिंदी होती है। उसे अब हिंगलिश का नाम दिया गया है – अर्थ हिंदी और इंग्लिश का मिला जुला रूप – लेकिन उस में हिंदी तो  कहीं होती नहीं – अंग्रेजी का भी बुरा हाल होता है ।  हमारे यहाँ भारत में एक धारणा बन गयी है की हिंदी बेकार भाषा है – सिर्फ अंग्रेजी ही पढनी चाहिए । अंग्रेजी के बगैर जीवन बेकार है । वास्तविकता यह है की हिंदी या अपनी भाषा के साथ अंग्रेजी भी आनी चाहिए।

इस समय मुझे १९९६ का वह दिन याद आता है जब इंग्लॅण्ड के SOAS  के निदेशक हिंदी के प्रोफ़ेसर  डा० रुपर्ट स्नेल से मेरी पहली बार भेंट हुई ।  आदतन मैंने अंग्रेजी में बात शुरू की –  how are you  से । जवाब देने की  अपेक्षा उन्होंने पहली भेंट में ही मीठी झिड़क से कहा – आप हिंदी में क्यों नहीं बात करते – मेरे मुंह से फिर आदतन निकला – ओह सॉरी । फिर अंग्रेजी में – उन्होंने फिर झिड़का । मैं चुप हो गया ।

सोचता रहा कि  एक गोरे – इंग्लॅण्ड में जन्में, अंग्रेजी वातावरण में पले व्यक्ति की ऐसी हिंदी भक्ति । उस के बाद उन से अनेक बार बात हुई । किस भारतीय व्यक्ति की तरह  कुर्ता – पजामा पहने उन्हें कभी भी दिल्ली की सड़कों पर मिला जा सकता है ।  बोलते समय लगता जैसे की दिल्ली – इलाहाबाद का कोई पुराना देसी आदमी बोल रहा है. यही स्थिति बीबीसी के संवाददाता मार्क टली की है । शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिंदी बोलता है और हमारे देशवासियों को हिंदी बोलने में संकोच होता है।

अनेक ऐसे विदेशी विद्वान हुए हैं जिन्हें हिंदी ही नहीं संस्कृत के प्रति अटूट प्रेम है। मेक्स मूलर, शापन्हावर के नाम तो आप सब जानते हैं -इसी कड़ी में डेविड फाउलर यानी वामदेव शास्त्री हैं जो आज भी उतने ही सक्रिय हैं – इस सबको भारतीय शास्त्रों वेदों और उपनिषदों में दक्षता थी और है । डॉ  कामिल बुल्के  की इंग्लिश – हिंदी डिक्शनरी को कौन नहीं जानता।

मैं हिंदी की ही नहीं भारत की दूसरी भाषाओँ की भी बात कहता हूँ -​मेरा निवेदन है की जिस दिन आप अपनी भाषा से रूठ जायेंगे उस दिन आप अपनी संस्कृति से विमुख हो जायेंगे । आप की भाषा आप को अपनी संस्कृति से जोडती है । अपनी भाषा के लिए आवश्यक नहीं की आप पढ़े लिखे ही हों । किसी अनपढ़ ग्रामीण व्यक्ति से बात कर के देखें वह अपनी बात चीत आप को कहावतें, मुहावरें  लोकोक्तियाँ सुना देगा । अतः आप को सोचना होगा की नए परिप्रेक्ष्य में आप की क्या भाषा होनी चाहिए ​।

समाज में होने वाले परिवर्तनों की छाप सभ्यता और संस्कृति पर पड़ती है । पिछले ६०/७० वर्षों में हमारे देश ने काफी प्रगति की है । लोकतंत्र की जड़ें गहरी हुई हैं जीवन आयु (longevity) बढ़ी है, रोज़गार के साधन बढे हैं । गरीबी की रेखा पर नेताओं में झगडे होते रहते हैं । शिक्षा में नए प्रतिमान  बने हैं ।  देश की युवा पीढ़ी ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर  पर अपनी धाक जमाई है लेकिन फिर भी हम कहीं कुछ छूटता सा अनुभव करते हैं । हम अलग प्रकार के संकट से ग्रस्त महसूस करते हैं । आज आप के सामने मैं​ दो बहुत ही महत्वपूर्ण संकट ​की चर्चा करूँगा जो सीधे तौर पर हमारी सभ्यता और संस्कृति से जुड़े हैं । लेकिन इस से पहले मैं चर्चा करूँगा एक समाचार की।

​इसे आप उपनिषदों के उपरोक्त प्रकरणों के संदर्भ में देखें । ​न्यूयार्क के पत्र वाल स्ट्रीट जर्नल ने अपने 18 अंगस्ट के अंक में दिल्ली के युवाओं के मानसिक स्थिति का सर्वे  किया । ​इस में कुछ दृश्य हैं – एक में एक ३० वर्षीया महिला है जिसके पास महँगी बड़ी दो गाड़ियाँ ​हैं – सभी सुख सुविधाएँ है, काफी पैसा है लेकिन मानसिक  शांति नहीं है – जीवन में नीरसता है । दूसरा दृश्य – चार युवा  होटल में बैठे हैं  पार्टी हो रही है – बिल आता है – भुगतान करने वाला युवा बिल देखता है और चिहुंक कर कहता है – बस सिर्फ ६० अर्थात सिर्फ ६०००० रुपये ।  आप इस सर्वे के परिणामों की तुलना उपनिषद में चर्चित के शिष्य अथवा नचिकेता से कर सकते हैं । दोनों की शिक्षा दीक्षा, रहन सहन, पारिवारिक सोच, उनकी घरेलु पृष्ठभूमि आपके सामने है ।

समय के साथ साथ परिभाषाएं बदल गयी और  ​​वर्गीकरण बदल गया ।  पहले जिसे modern सोसायटी कहा जाता था वो अब post modern ​हो गया है जैसे मध्यम वर्ग अब न्यू मध्यम वर्ग हो गया है –  धनी वर्ग अब न्यू धनी कहलाता है । आज के जीवन की नीरसता अथवा खालीपन को मैं एक सांस्कृतिक संकट  मानता हूँ । इन संकटों की जड़ में है संवादहीनता । या यूँ कहे की यह संकट है   भाषा का ।

​दूसरा आयाम है मीडिया का – पत्रकारिता से प्रारम्भ हो कर रेडियो, टी वी से होते हुए अब यह सोशल मीडिया और न्यू मीडिया के नाम से जानी जाती है । ​अब इसे सूचना क्रांति भी कहते हैं और यह सब से अद्यतन है ।  इस ने दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है । ​ भारत के नव निर्माण में मीडिया की अहम भूमिका रही है । स्वतंत्रता संग्राम के समय तत्कालीन प्रिंट मीडिया ने अपना काम किया  । उस समय पराड़कर जी, गणेश शंकर विद्यार्थी, सी वाई चिंतामणि बाल गंगाधर तिलक आदि ने समाचार पत्रों को एक अस्त्र के रूप में प्रयोग किया । स्वतंत्र भारत में भी मीडिया ने लोक तंत्र को मज़बूत करने में काम किया । लेकिन कुछ समय से यह भी बाजारवाद या भोगवाद से प्रभावित  दिखाई देता है ।अब यह सोशल नेट वर्क का युग है । वास्तव में मीडिया एक दुधारी तलवार है – यह जहाँ समाज के विकास में सहायक है वहीँ विध्वंस का कारण भी बन सकता है ।  विश्व के इन्टरनेट उपभोक्ताओं में भारत का स्थान अमेरिका और चीन के बाद तीसरा है । आवश्यकता है  इस का सही उपयोग करने की ।

भाषा  और संवाद  से ही जुडी एक और संस्था थी  – यह एक पारिवारिक सामाजिक और सांस्कृतिक संस्था थी  – यह है पत्र लेखन यानी चिठ्ठी पत्री की । सूचना  क्रांति के इस युग में यह इ- मेल के नए रूप में आयी है । बदलाव अच्छा है, हर प्रकार से सुविधा जनक है, इस से दूरियां समाप्त हो गयी है, लेकिन इस ने भाषा का रूप बिगाड़ दिया है – हिंदी या अपनी देसी भाषा ही नहीं वरन अंग्रेजी को भी विकृत कर दिया है । दूसरे इस में व्यक्तिगत अनुभूति की कमी भी खटकती है । पहले जो चिठ्ठी आती थी – उस के लिए डाकिये का रोज़ इंतज़ार होता था । चिठ्ठी आने पर उस लिखा पता देखा जाता था की किस की लिखाई है – उस से भेजने वाले का पता चलता था । उसी मन से चिठ्ठी पढ़ी जाती थी । चिठ्ठी पढना भी एक तरह से उत्सव जैसा होता था । फिर यह एक साहित्यिक विधा भी बन गयी थी । ‘बच्चन और पंतजी के २०० पत्र’,पुराने ‘ज्ञानोदय’ का  पत्र विशेषांक या ‘प्रेमचंद के अप्रकाशित पत्र’ मेरी अपनी  घरेलु लाईब्रेरी की शोभा हैं । अंग्रेजी में पंडित नेहरु के जेल से लिखे पत्रों  की पुस्तक  Letters to a Daughter मानव जीवन के विकास की कहानी है। क्या ये सब  इ – मेल में संभव है ।

अंत में यह कहना उचित होगा की इतनी प्रगति, बदलाव और परिवर्तनों के बाद भी भारतीय संस्कृति अक्षुण बनी रहती है । इसकी विशेषता है – समन्वय और सहिष्णु की क्षमता।सब को सुखी और निरोगी देखने की भावना । सर्वे भवन्तु सुखिनः  सर्वे सन्तु निरामयः सर्वे भद्राणि पश्यन्तुं – माँ कश्चित दुःख भागभवेत् ।

 

यह आनंद प्रधान संस्कृति है। निरंतर काम करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखने की प्रेरणा देती है ।

कुर्वन्ने एव इह कर्माणि जिजीविषेत शतं समाः ।

यहाँ  शक आये, कुषाण आये, हुण आये, ग्रीक आये, पारसी, यहूदी मुस्लिम आये – इस ने सबको अपना लिया। सबके गुणों को आत्मसात कर लिया । यही इस संस्कृति की शक्ति है – अल्लामा इकबाल ने कहा था –

 

युनानोमिस्रोरोमा सब मिट गए जहाँ से,

बाकी  मगर है अबतक नामों निशान हमारा ।

कुछ बात है हस्ती मिटती नहीं हमारी,

सदियों रहा है दुश्मन दौरे ज़मां हमारा ।  

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