साख पर आंच!

अपनी कौस्तुभ जयंती मनाने की ओर अग्रसर भारतीय गणतंत्र की पीड़ा तो उसकी आत्मा ही समझ सकती हैं। हां उसकी पीड़ा वे भी शिद्दत से महसूस करते होंगे जिन्हे उस पर हमेशा से नाज रहा है।
उसकी पीड़ा अनायास नहीं है। हालांकि उसे अपनी पीड़ा तब तक सह रही जब तक यदा-कदा देश के आमजन उसकी अवहेलना करते अथवा उस पर प्रहार करते नजर आये।
कालांतर में जब उसके दोनो अंगों विधायिका व कार्यपालिका ने कुछ मौको पर अपनी सीमायें लंाघ डाली उसे बेहद पीड़ा हुई। सन् ७५ की पीड़ा तो लाइलाज बन चुकी है।
उसे अपने तीसरे अंग की अनुशासनशीलता व मर्यादा पर इतना नाज था कि वो फ ूला नहीं समाता था। कारण कि इसी के चलते उसे पूरी दुनिया सम्मान/आदर देती रही है पर उसकी ६८वीं वर्षगाठ के ठीक पहले उसने जिस तरह अपनी लड़ाई सड़क पर ला दी उससे उसकी आत्मा को इस कदर ठेस पहुंची है कि वो उस दिन से वो सहज नहीं हो पाया हैं।

शिवशरण त्रिपाठी

२६ जनवरी १९५० को देश में देश का अपना संविधान लागू हुआ था तब से इस दिन को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाये जाने की शुरूआत हुई।
६८ वर्षो में देश में देश का गणतंत्र कितना सफ ल रहा  इस पर लम्बी बहस की यहां तो गुजाइंश नहीं है पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि ‘गणतंत्रÓ अपने उद्देश्यों में पूरी तरह सफ ल नहीं रहा।
गणतंत्र को सफ ल व मजबूत बनाने में सबसे बड़े बाधक उसके अपने ही बनते रहे है। आपसी मतभेदों, टकराव के बजाय यदि विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका ने अपने-अपने कर्तव्यों का पूरी ईमानदारी, निष्ठा व समर्पण के साथ पालन किया होता तो निश्चित ही स्थिति कुछ और होती।
विधायिका, न्यायपालिका के बीच वैसे तो मतभेद व टकराव की अब तक अनेक घटनायें घट चुकी है पर प्रथम बड़ा टकराव १९७५ में तब सामने आया था जब स्व० राजनारायण की याचिका पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति स्व० जगमोहन लाल सिन्हा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व० इन्दिरा गांधी के चुनाव को रद्द कर दिया था।
न्यायमूर्ति सिन्हा ने सारे दबाव को दरकिनार कर, सारे प्रलोभनों को ठुकराकर जिस साहस व दृढ़ता से अपना निर्णय तत्कालीन शक्तिशाली प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी के खिलाफ  सुनाया था उससे भारत की निष्पक्ष न्यायपालिका की पूरी दुनिया कायल हो गई थी। नि:संदेह इस निर्णय से ‘गणतंत्र का मस्तकÓ गर्व से ऊचा हो उठा था। पर किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि स्व० सिन्हा के उस ऐतिहासिक निर्णय का खामियाजा पूरे देश को आपातकाल के रूप में भुगतना पड़ेगा।
समय साक्षी है कि २६ जून १९७५ को विधायिका व न्यायपालिका का टकराव चरम पर जा पहुंचा। २६ जून की आधी रात प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। नतीजतन नागरिकों की संविधान प्रदत्त आजादी पर अंकुश लग गया। अनुच्छेद २१, २२ को खत्म कर देने से किसी को भी हिरासत में लिया जा सकता था। २७ जून को प्रेस सेंसरशिप लागू करके अखबारों का गला घोट दिया गया।
विधायिका व न्यायपालिका के बीच दूसरा ऐतिहासिक टकराव १९८५ में देश के सामने तब आया जब मध्य प्रदेश की तलाक से पीडि़त एक मुस्लिम महिला शाहबानों को गुजारा भत्ता दिये जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने २३ अप्रैल १९८५  को उसके पक्ष में निर्णय सुना दिया। उस पर तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम तुष्टीकरण की सारी हदें पार करते हुये मुस्लिम महिला अधिनियम १९८६ (तलाक पर अधिकार संरक्षण) पारित कर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को ही पलट दिया था। यहां यह भी गौरतलब है कि अपनी ही सरकार के उक्त फै सले के विरोध में तत्कालीन गृहराज्य मंत्री आरिफ  मोहम्मद खान ने अपने पद से इस्तीफ ा दे दिया था।
उपरोक्त दो ऐतिहासिक घटनाओं के अलावा कई अन्य अवसरों पर विधायिका व न्यायपालिका के बीच टकराव की घटनायें घट चुकी है। १९७२ में केशवानंद भारती के मामले में सुप्रीम कोर्ट की १३ न्यायाधीशों की पीठ ने साफ -साफ  कहा था कि विधायिका सर्वोच्च नहीं है और वो कोई ऐसा बदलाव/संशोधन नहीं कर सकती जिससे संविधान का मौलिक ढांचा प्रभावित होता हो। इनसे अंतत: गणतंत्र को ही नुकसान पहुंचा है।
विधायिका व न्यायपालिका के बीच टकराव से आहत गणतंत्र की साख को न्यायपालिका के आपसी टकराव ने भी भारी क्षति पहुंचायी है।
१९७५ में जब इन्दिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू करके लोगो के मूल अधिकारों पर प्रतिबंध लगा दिया था तो इसके विरोध में सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गई याचिका पर चार न्यायाधीशों ने जहां सरकार के पक्ष में फ ैसला सुनाया था वहीं न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना ने इनका विरोध किया था। कालांतर में उसकी उन्हे भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। वरिष्ठता के  क्रम में शीर्ष पर होने के बावजूद उन्हे मुख्य न्यायधीश न बनाकर दूसरे स्थान पर रहे न्यायमूर्ति एमएच वेग को मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया था। जिससे आहत होकर विरोध स्वरूप न्यायमूर्ति खन्ना ने पद से ही त्याग पत्र दे दिया था।
उसके बाद भी न्यायपालिका में आपसी मतभेद बंद नहीं हुये। अतीत की जाने भी दे तो बीती १२ जनवरी को जिस तरह चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने अपने ही मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ  पत्रकार वार्ता बुलाकर लोकतंत्र को ही खतरें में बता डाला था उससे हर कोई सकते में आ गया था। वहीं पूरा देश स्तब्भ रह गया था। यहीं नही उसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनाई दी थी। अपने शानदार अतीत के लिये जानी जाने वाली भारतीय न्यायपालिका पर अनेक किन्तु परन्तु जैसे प्रश्न भी लगे थे।
विधायिका व न्यायपालिका के बीच बढ़ते टकराव का यह नतीजा कहा जायेगा कि आमलोगो में इन पर से विश्वास कम होना शुरू हो गया। न्यायपालिका के बढ़ते आपसी विवादों ने स्थिति को और गंभीर बना डाला। परिणामत: आयेदिन न्यायपालिका के निर्णायों को चुनौतियां दी जाने लगी। कानून का मखौल उड़ाया जाने लगा।
जिस तरह फि ल्म निर्माता संजय भंसाली की फि ल्म पद्मावत (पहले पद्मावती) को लेकर करणी सेना के लोग सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद न चलने देने की बार-बार घोषणायें ही नहीं कर रहे है वरन् जगह-जगह तोडफ़ ोड़ करके सरकारी व निजी सम्पत्तियों को क्षति पहुंचा रहे है उनसे क्या यही अर्थ नहीं निकलता कि लोगों में सर्वोच्च अदालत के फ ैसलों के प्रति नफ रमानी की कुछ ज्यादा ही हिम्मत आती जा रही है। इसके लिये क्या विधायी ताकतें ही जिम्मेदार नहीं है।
प्रश्न उठता है कि जब इस फि ल्म को संवैधानिक संस्था सेंसर बोर्ड ने दिखाने की अनुमति दे दी थी तो उसी समय से इस        फि ल्म को क्यों नहीं दिखाने दिया गया। माना की इसके विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया गया पर फि र जब सर्वोच्च न्यायालय ने भी हरी झंडी दे दी तो फिर किन्तु परन्तु के साथ फि ल्म को न दिखाये जाने पर कुछ प्रदेश सरकारें ही क्यों अड़ी है। जबकि देश की सभी सरकारों को सर्वोच्च अदालत के आदेश का हर हाल में पालन करने, करवाने की संवैधानिक जिम्मेदारी है। यदि सर्वोच्च अदालत के        फ ैसलों का सड़क पर विरोध शुरू हो गया और सम्बन्धित सरकारें मुंक दर्शक बनी रहे तो फिर देश के गणतंत्र का भगवान ही मालिक है।
हम सभी को ध्यान में रखना चाहिये कि यदि हमारा गणतंत्र मजबूत न रहा तो कालांतर में संवैधानिक अराजकता की आशका से इंकार भी कैसे किया जा सकता है।

सिर्फ  कानून की किताब बनकर रह गया ‘संविधानÓ

संविधान न जानना न भी अनेक समस्याओं की जड़ है। हालत यह है कि देश के अधिसंख्य बुद्धजीवियों के साथ विधि व्यवसाय से जुड़े लोग ही संविधान के बारे में नहीं जानते हैं तो फि र आम आदमी से संविधान के बारे में जानकारी होने की अपेक्षा करना ही बेमानी है। इससे भी अधिक विडम्बना व चिंता की बात और हो भी क्या सकती है कि जिस विधायिका के सदस्यों पर कानून बनाने की जिम्मेदारी होती है उन्हे ही या तो संविधान की जानकारी ही नहीं होती या फि र आधी अधूरी जानकारी ही होती है।
इसके लिये निश्चित ही हमारी सरकारों के साथ वे अनेक संस्थायें जिम्मेदार हैं आजादी के बाद जिनके कंधों पर लोगो को देश के संविधान के बारे में जानकारी देने की जिम्मेदारी थी। कदाचित इस प्रश्न का उत्तर खोजने की भी कभी जरूरत नहीं महसूस की गई कि आखिर संविधान लागू होने वाली तिथि को संविधान दिवस के रूप में मनाये जाने की बजाय गणतंत्र दिवस के रूप में मनाये जाने की परम्परा क्यों शुरू की गई। काश! ऐसा हुआ होता निश्चित ही संविधान के बारे में आमजन की अनभिज्ञता इतनी दयनीय न ही होती।
कोई यह तो अपेक्षा नहीं करता कि देश का हर व्यक्ति संविधान विशेषज्ञ ही हो पर उसे संविधान की मूल बातें तो मालूम होनी ही चाहिये। खासकर संविधान में दिये गये मौलिक अधिकारों एवं मौलिक कर्तव्यों के बारे में संविधान लागू होने के ६८ वर्षो में भी ऐसा हो न पाना देश के लोगो के साथ छल ही तो हैं।
यदि ऐसा हुआ होता तो निश्चित ही राष्ट्र की तस्वीर कुछ और ही होती। क्या सरकारें मनमाने निर्णय व मनचाहा व्यवहार कर पाती और क्या कोई अन्यान्न कारणों से स्वार्थवश राष्ट्रीय सम्पत्तियों को क्षति पहुंचाना तो दूर क्षति पहुंचाने की सोचता भी!
‘जब जागो तभी सवेरा की कहावत के परिप्रेक्ष्य में खासकर गणतंत्र दिवस पर पूरे देश में संविधान की जानकारी देने हेतु गोष्ठियों का आयोजन किया जाना चाहिये। बच्चों को संविधान की जानकारी देने हेतु पाठ क्रमों में संविधान की मूल बातें शामिल करना चाहिये ताकि बचपन से ही उनमें अपने संविधान के प्रति निष्ठा का भाव जागृत हो सके  और वे अपने अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति सजग हो सके और यह बात जितना जल्द हो सके शुरू कर देना चाहिये।
दो वर्षो बाद संविधान लागू होने के ७ दशक हो जायेंगे। बेहतर हो इस वर्ष को ‘संविधान के प्रचार-प्रसार का वर्ष निर्धारित करके वे तमाम उपाय तय किये जाये जिससे जन-जन को आसानी से अपने संविधान के बारे में जानकारी हो सके।

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