सार्क देशों से प्रगाढ़ होते रिश्ते

-अरविंद जयतिलक-
saarc countries

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क यानी दक्षेस (दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित कर पड़ोसी देशों से रिश्ते सुधारने की दिशा में उल्लेखनीय पहल की है। अच्छी बात यह रही कि सार्क के सभी सदस्य देशों ने समारोह में शिरकत की और मिल जुलकर काम करने की इच्छा जतायी। गौरतलब है कि भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, मालदीव और अफगानिस्तान सार्क के सदस्य देश हैं। गौर करें तो मालदीव को छोड़ सभी देश भारतीय उपमहाद्वीप के अंग हैं और इनका आपस में ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक लगाव भी है। सार्क की स्थापना के तीन दशक बाद आज ये देश कृषि, ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य सेवाएं, दूरसंचार, विज्ञान एवं तकनीकी एवं सांस्कृतिक सहयोग के क्षेत्र में एकदूसरे के पूरक बन चुके हैं और उनके एजेंडे में दक्षिण एशिया से आतंकवाद का खात्मा, मादक द्रव्यों की तस्करी पर रोक और क्षेत्रीय विकास में महिलाओं की भूमिका बढ़ाना शीर्ष प्राथमिकता में हैं। अगर सार्क देशों के बीच घनिष्ठता बढ़ती है तो सीमा संबंधी विवादों को सुलझाने के अलावा क्षेत्र में शांति को बल मिलेगा और अर्थव्यवस्था गतिमान होगी। फिलहाल बदलते वैश्विक परिदृश्य में पाकिस्तान और अफगानिस्तान से रिश्ते सुधारना ज्यादा जरुरी है। अगर भारत-पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर समेत सभी विवादों के निराकरण की दिशा में आगे बढ़ एकदूसरे की संप्रभुता का सम्मान करते हैं और शिमला समझौते के प्रावधानों को लागू कर पूर्ण सार्वभौमिक परमाणु निःशस्त्रीकरण तथा परमाणु अप्रसार के उद्देश्यों पर सहमति जताते हैं तो यह दोनों देशों के हित में होगा। सकारात्मक बातचीत के अभाव में ही जम्मू-कश्मीर के अलावा सियाचिन, बगलिहार जल विद्युत परियोजना विवाद, तुलबुल नौ परिवहन योजना विवाद, किशन गंगा परियोजना विवाद का हल नहीं ढूंढ़ा जा सका है। यह शुभ संकेत है कि भारतीय प्रधानमंत्री और नवाज शरीफ के बीच आतंकवाद, 26/11 हमला, अफगानिस्तान में भारतीय वाणिज्य दूतावासों पर हमला जैसे गंभीर मसलों पर गहन चर्चा हुई। अब देखना दिलचस्प होगा कि नवाज शरीफ का रुख क्या रहता है। फिलहाल नरेंद्र मोदी ने संकेत दे दिया है कि पाकिस्तान से रिश्ते तभी सुधरेंगे जब वहां से आतंकवाद का तंबू उखड़ेगा। उचित होगा कि नवाज शरीफ दृढ़ता दिखाते हुए अपनी जमीन पर पसरे आतंकियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करें। अगर वे ऐसा करते हैं तो निष्चय ही दोनों देशों के बीच संबंध मजबूत होंगे और आर्थिक गतिविधियां तेज होगी। दोनों देश सुरक्षा बजट में कटौती कर सकेंगे जिससे शिक्षा-स्वास्थ्य का क्षेत्र सुधरेगा। पाकिस्तान के साथ अफगानिस्तान से भी रिश्ते प्रगाढ़ करना जरुरी है। इसलिए कि 2014 के अंत तक नाटो सेना अफगानिस्तान से निकल जाएगी और तालिबानी दहशतगर्द अफगानिस्तान में चलने वाली भारतीय परियोजनओं को नुकसान पहुंचाने के अलावा जम्मू-कश्मीर में अषांति फैलाने की कोशिश कर सकते हैं। मौजूदा समय में अफगानिस्तान में भारत की कई परियोजनाएं चल रही हैं। इनमें सलमा बांध पॉवर प्रोजेक्ट, संसद भवन का निर्माण, राष्ट्रीय टेलीविजन नेटवर्क का विस्तार के अलावा कृशि, शिक्षा, स्वास्थ्य, सौर उर्जा और वोकशलन ट्रेनिंग समेत 84 परियोजनाएं हैं। इसके अलावा भारत अफगानिस्तान से ईरान सीमा तक रसद ले जाने के लिए जारांज से देलाराम तक सड़क निर्माण कर रहा है और पुल-ए-खुमरी से काबुल तक पॉवर ट्रांसमिशन लाइन बिछा रहा है। अफगानिस्तान के पुनर्निमाण के लिए भारतीय सहायता राशि दो अरब डॉलर के पार पहुंच चुकी है। नाटो सेना के जाने के बाद अफगानिस्तान में भारत के लिए अपनी परियोजनाओं को सुरक्षित रखना और भारतीय दूतावासों और भारतीय अधिकारियों-कर्मचारियों को सुरक्षा करना एक महत्वपूर्ण चुनौती होगी। ऐसी स्थिति में अफगानिस्तान को विश्वास में लेना जरुरी है। हालांकि आतंकियों ने हेरात में भारतीय दूतावास पर हमला कर हामिद करजई को भारत आने से रोकने की कोशिश की लेकिन उसका असर नहीं पड़ा। पाकिस्तान-अफगानिस्तान के अलावा भारत की नई सरकार को बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, मालदीव मॉरीसश और श्रीलंका से भी संबंध सुधारने होंगे। विगत दशकों में इन देशों से भारत के संबंध खराब हुए हैं।

पाकिस्तान की तरह बांग्लादेश भी भारत के लिए अहम देश है। दोनों देशों के बीच तीस्ता नदी जल बंटवारा समझौता एक पेचीदा मामला है। यह समझौता दोनों देशों के आपसी सूझबूझ से ही फलित होगा। इस समझौते से दोनों देशों के तकरीबन 250 मिलियन लोगों का भला होगा। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बांग्लादेश यात्रा के दौरान इस विवाद के सुलझने की उम्मीद थी लेकिन पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने टांग फंसा दिया। तीस्ता नदी जल बंटवारा समझौता के अलावा विवादित एन्क्लेव को सुलझाना भी दोनों देशों के लिए जरुरी है। भारत और बंगलादेश के बीच कुल 162 एंक्लेव का आदान-प्रदान होना है जिसके तहत भारत को 17000 एकड़ और बंगलादेश को 7500 एकड़ जमीन अपने कब्जे से छोड़नी होगी। लेकिन इस पर अभी अंतिम फैसला लिया जाना बाकी है। आज की तारीख में बंगलादेश भारत की सबसे गतिषील मंडियों में से एक है। भारत ने उसे कई सेक्टरों की वस्तुओं के आयात पर टैरिफ रियायतें दी है। अगर बांग्लादेश से संबंध मजबूत होते हैं तो भारत में घुसपैठ की समस्या और पूर्वोत्तर में आतंकवाद की समस्या से निपटने में मदद मिलेगी। सुरक्षा के लिहाज से भारत के लिए मॉरीशस, नेपाल और भूटान भी अति संवेदनशील देश हैं। लेकिन तीन दशकों के दौरान भारत और इन देशों के संबंधों में काफी उतार-चढ़ाव आए हैं। इसके लिए पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार की अदूरदर्शीपूर्ण नीतियां ही जिम्मेदार हैं, जिसकी वजह से इन दोनों देशों में भारत की भूमिका सीमित हुई है और चीन की दखल बढ़ी है। चीन की नेपाल में बढ़ती दखलअंदाजी को कम करने के लिए नेपाल को भरोसे में लिया जाना आवश्यक है। सदियों से भारत और नेपाल का सामाजिक और सांस्कृतिक ताना-बाना, धार्मिक मूल्य और परपराएं एक समान रही है। नेपाल के विकास कार्यों में भारत सबसे अधिक धन लगाता है। दोनों देश चीनी, कागज, सीमेंट जैसे औद्योगिक साझा उद्यम में मिलकर काम कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेपाल जाने की इच्छा प्रकट कर अच्छा संदेश दिया है। नेपाल की तरह भारत की नई सरकार को भूटान को भी विश्वास में लेना होगा। गत वर्ष भूटान के संसदीय चुनाव से ठीक पहले भारत सरकार ने केरोसिन और रसोई गैस की सब्सिडी पर रोक लगाकर भूटान को नाराज किया था। हालांकि बाद में रोक हटा ली गयी। लेकिन भूटान की नाराजगी दूर नहीं हुई है। लेकिन मोदी ने भूटान के राष्ट्राध्यक्षों को अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रिक कर संबंधों में शहद घोल दी है। भारत और म्यांमार का रिष्ता पुराना है। म्यांमार में लोकतंत्र के उदय में भारत की अहम भूमिका रही है। वह इन देशों के साथ कृशि, वानिकी, पर्यटन, होटल, दूरसंचार जैसे अनगिनत परियोजनाओं पर मिलकर काम कर रहा है। भारतीय प्रधानमंत्री ने श्रीलंकाई राष्ट्रपति से भी तमिल मसलों पर गहन विमर्ष किया है। निश्चित रुप से इसका सकारात्मक असर देखने को मिलेगा। भारत के क्षेत्रीय दलों को भी समझना होगा कि श्रीलंका सिर्फ भारत का पड़ोसी ही नहीं, बल्कि भारत के लिए सामरिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। उसे दूर रखने से चीन को उसके निकट आने का मौका मिलेगा और यह भारत के हित में नहीं होगा। फिलहाल भारत की नई सरकार ने सार्क देशों से मजबूत रिश्ता जोड़ने की शानदार पहल की है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

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