साथ जो छोड़ कर चले जाते !

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(मधुगीति १७०११४ ब)

साथ जो छोड़ कर चले जाते, लौटकर देखना हैं फिर चहते;
रहे मजबूरियाँ कभी होते, वक़्त की राह वे कभी होते !

देखना होता जगत में सब कुछ, भोग संस्कार करने होते कुछ;
समझ हर समय कोई कब पाता, बिना अनुभूति उर कहाँ दिखता !
रहते वर्षों कोई हैं अपने बन, विलग वे होते कभी सपने बन;
बुन के ताने व बाने आ जाते, जब भी प्रारब्ध उनके मिल जाते !

रहते परियोजना प्रभु की सब, कूदते फाँदते सकल जीवन;
कभी ना दूर वे आत्म उपवन, नज़र उनकी ही रहे वे त्रिभुवन !
लिये आनन्द नाचते ‘मधु’ वन, वेणुका सुनते रहे हैं निधि-वन;
जो भी जाते हैं पक के जग आते, सुहाने सलौने श्याम लगते !

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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