सबकुछ बिकेगा, खरीदार कहां?

14incरिपोर्ट चौंकाने वाली है। ‘द हिंदू’ की एक रपट ने आज की हकीकत का खुलासा करते हुआ बताया है कि भारत में फिलहाल सबकुछ ‘सेल’ पर है! एयरपोर्ट, सड़क, बंदरगाह, स्टील प्लांट, सीमेंट कारखाने, रिफायनरी, मॉल, कॉरपोरेट पार्क, लैंड बैंक, कोयला खान, तेल ब्लॉक, एक्सप्रेस हाईवे, वायु तरंगें, फार्मूला वन टीम, होटल, प्राइवेट जेट से लेकर कॉरपोरेट मुख्यालयों की बिल्डिंग सभी की बिक्री लगी है या लगेगी। यही नहीं कंपनियां पूरी की पूरी बिकने को तैयार हैं। मतलब सरकार के विनिवेश कार्यक्रम में पता नहीं कुछ बिके या नहीं मगर भारत के प्राइवेट क्षेत्र के बड़े कॉरपोरेट घराने बहुत कुछ बेचने को तैयार हैं। इन्हें बेचना होगा। इसलिए कि इन पर इतना कर्ज चढ़ा हुआ है कि जैसे भी हो इन्हें अपनी संपदा, पूंजी याकि ऐसेट बेच कर अपने को विजय माल्या बनने से बचाना है।

रिजर्व बैंक ने सरकारी बैंकों पर डंडा किया है कि वे अपनी बैलेंस शीट ठीक करें। जिन्हें कर्ज दिया उनसे या तो पैसा वसूलें या उनकी संपदा बेच पैसा वसूलें। दरअसल भारत के दस आला औद्योगिक घरानों ने बैंकों से कोई पांच लाख करोड़ रु का कर्ज लिया हुआ है। इसमें से इस साल कम से कम दो लाख करोड़ रु की बैंकों को वसूली करनी है। इसलिए इतनी कीमत का माल इन दस घरानों को बेचना ही होगा।

इसमें नंबर एक पर अनिल अंबानी का रिलायंस ग्रुप है। इस ग्रुप पर बैंकों का एक लाख 21 हजार करोड़ रु का कर्ज है। इस ग्रुप की आयकर लायक 9,848 करोड़ की आय के आगे सालाना ब्याज की देनदारी ही कोई 8 हजार 299 करोड़ रु बनती है। सो ग्रुप ने कोई 44 हजार करोड़ रु की संपदा बिक्री के लिए निकाली हुई है। इसमें 22 हजार करोड़ रु के संचार टॉवर सहित रिलायंस कम्युनिकेशन की और भी संपदा बेची जानी है। ऐसे ही रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर पर कर्ज 25 हजार करोड़ रु का है। इसने मुंबई के आसपास में बिजली जनरेशन, वितरण में 49 प्रतिशत शेयर बेचने की बात कही है। रिलांयस कैपिटल पर भी 24 हजार करोड़ रु का कर्ज है। जाहिर है अनिल अंबानी पर बैंकों के कर्ज की स्थिति पर गौर करें तो विजय माल्या का मामला हाथी के आगे चींटी माफिक दिखलाई देगा। अंबानी की तरह एस्सार ग्रुप पर भी कोई 1 लाख 1 हजार 461 करोड़ रु का कर्ज है। ग्रुप कर्ज के निपटारे के लिए एस्सार ऑयल के 25 हजार करोड़ रु के शेयर बेच रहा है तो स्टील और बंदरगाह, पॉवर के धंधे में भी हिस्सेदारी बेच कर कर्ज के निपटारे की कोशिश है।

देश का तीसरा बड़ा फंसा कर्जदार गौतम अदानी का अदानी ग्रुप है। कोई 96 हजार करोड़ रु का कर्ज है। ग्रुप नए कर्ज लेने या कमाई से चुकाने में असमर्थ है तभी एबॉट पाइंट कोयला खान, बंदरगाह, रेल प्रोजेक्ट सभी में हिस्सेदारी बेचने का दबाव बना हुआ है।

आला दस में से नंबर चार पर जेपी ग्रुप है। 75 हजार करोड़ रु का कर्ज बताया जाता है। सीमेंट यूनिट, थर्मल पॉवर प्लांट, हाईड्रोप़ॉवर प्लांट, एक्सप्रेसवे प्रोजेक्ट से ले कर भू बैंक सभी को सही कीमत पर बेचने की कोशिश हो रही है लेकिन कायदे के खरीदार नहीं मिल रहे हैं। पिछले साल मनोज गौड़ का जेपी ग्रुप 350 मिलियन डॉलर का कर्ज तय तारीख पर नहीं चुका पाया था। न ही ब्याज दे सकने की क्षमता सुधरी है।

जीएम राव के जीएमआर ग्रुप ने सबसे पहले हालात समझते हुए अपनी कंपनियों की हिस्सेदारी बेच कर कर्ज चुकाने का सिलसिला शुरू किया। सड़क, पॉवर, कोयला खान की संपदा में 11 हजार करोड़ रु की हिस्सेदारी बेच कर्ज चुकाया। बावजूद इसके मार्च 2015 में ग्रुप पर 47 हजार 738 करोड़ रु की कर्जदारी थी। एयरपोर्ट की हिस्सेदारी को भी ग्रुप बेच रहा है। मधुसूदन राव के लांको ग्रुप पर कोई 47 हजार करोड़ रु का कर्ज है और वह लगातार बढ़ता जा रहा है। पॉवर प्रोजेक्ट बेच कर 25 हजार करोड़ रु जुटाने की कोशिश हुई। वेणूगोपाल धूत के वीडियोकॉन ग्रुप ने मोजांबिक गैस फील्ड बेच कर कोई 15 हजार करोड़ रु का कर्ज चुकाया। बावजूद इसके कर्ज बढ़ 39 हजार करोड़ रु का है। जीवे कृष्णा रेड्डी के जीवीके ग्रुप पर कोई 34 हजार करोड़ रु का कर्ज है। एयरपोर्ट, रेल, पोर्ट के सभी धंधों में हिस्सेदारी बेच कर्ज को हल्का बनाने की कोशिश में ग्रुप है।

यों देश का नंबर एक कर्जदार ग्रुप शायद मुकेश अंबानी का रिलायंस ग्रुप है। रपट अनुसार कुल कर्ज 1 लाख 87 हजार करोड़ रु का है। मगर इस ग्रुप की खूबी है कि मूल कर्ज हो या ब्याज उसकी अदायगी ठीक समय पर करता है। टाटा ग्रुप में कोई सौ से ज्यादा कंपनियां हैं। इसे सर्वाधिक नुकसान ब्रिटेन के स्टील धंधे में हुआ। उसे अब ग्रुप बेच रहा है। कंपनी पर सितंबर 2015 में कोई 10.7 बिलियन डालर का कर्ज था।

ऐसे ही नवीन जिंदल के ग्रुप पर कोई 46 हजार करोड़ रु का कर्ज है। यह पॉवर प्लांट बेच रहा है तो डीएलएफ कंपनी किराए के धंधे की हिस्सेदारी बेच रही है। भारत की सबसे बड़ी चीनी उत्पादक कंपनी रेणुका शुगर भी संपत्ति बेचने को मजबूर है तो सहारा ग्रुप में तो सबकुछ बिकने की स्थिति है।

इस पूरे ब्योरे का अर्थ है कि कंपनियों का धंधा, मुनाफा सुधर ही नहीं रहा है जिससे ये सोचें कि बिना संपत्ति बेचे कर्ज उतर सकेगा। मगर न इन्हें कायदे के खरीदार मिल रहे हैं और न बैंक इनके लिए ब्याज घटा सक रहा है। सो तय मानें अगले दो साल उद्योग धंधे बढ़ेंगे नहीं बिकेंगे!

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