सबको आनन्द देने वाला परमेश्वर हम सब पर सब ओर से सर्वदा सुख की वृष्टि करे

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मनमोहन कुमार आर्य

परमेश्वर का भली-भांति ध्यान करने को सन्ध्या कहते हैं। सन्ध्या करने का समय रात और दिन के संयोग समय दोनों सन्धि-वेलाओं में है। इस समय सब मनुष्यों को परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्यमेव करनी चाहिये।

 

ऋषि दयानन्द जी के अनुसार सभी मनुष्यों को समाधिस्थ होकर योगियों की भांति परमात्मा का ध्यान अर्थात् सन्ध्योपासना करनी चाहिये। उनके द्वारा अन्य कुछ निर्देश निम्न हैं:

 

1-            पहले जलादि से शरीर की बाह्य शुद्धि करनी चाहिये।

2-            राग-द्वेष व असत्यादि के त्याग से भीतर अर्थात् अन्तःकरण की शुद्धि करनी चाहिए।

3-            कुशा वा हाथ से मार्जन करें।

4-            तत्पश्चात् शुद्ध देश, पवित्र आसन, जिधर की ओर का वायु हो, ऊधर को मुख करके नाभि के नीचे से मूलेन्द्रिय को ऊपर संकोच करके, हृदय के वायु को बल से निकाल के यथा शक्ति रोकें। यह एक प्राणायाम हुआ। इसी प्रकार कम से कम तीन प्राणायाम करें, नासिका को हाथ से न पकड़ें। इस समय परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना हृदय से करें।

5-            इससे आत्मा और मन की स्थिति का सम्पादन करें अर्थात् मन और आत्मा को बाह्य विषयों से हटाकर ईश्वर में लगायें व उसमें पूरी तरह मग्न हों जायें।

6-            इसके अनन्तर गायत्री मन्त्र से शिखा को बांध कर रक्षा करें, ताकि केश इधर-उधर न बिखरें। यह निर्देश आज की परिस्थितियों में केवल उन महिलाओं पर लागू होता है जिनके बाल बड़े हों। कुछ पुरुष भी लम्बे बाल रखते हैं, उन पर भी लागू होता व हो सकता है।

 

सन्ध्या की पूर्ण विधि के ज्ञान के लिए ऋषि दयानन्द प्रणीत पंच महायज्ञविधि पुस्तक से सहायता लेनी समीचीन है। नैट पर प्रयास करने से इस पुस्तक की पीडीएफ उपलब्ध हो सकती है। यदि न हो तो हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। हम इमेल आदि से उपलब्ध कराने में सहायता कर सकते हैं।

 

इसके साथ ही हम सन्ध्यया का आचमन का पहला मन्त्र व्याख्या सहित प्रस्तुत कर रहे हैं। इससे हमारे उन पाठकों को लाभ होगा जो आर्यसमाजी नहीं है और सन्ध्या से अपरिचित हैं। हम यहां यह भी बताना चाहते हैं कि ऋषि दयानन्द लिखित सन्ध्या विधि ही ईश्वर की सन्ध्या व ध्यान की सही, सर्वोत्तम व लाभ प्रदान करने वाली विधि है। अतः सभी मत-मतान्तरों के अनुयायियों को इसकी उत्तमता व लाभों को प्राप्त करने के लिए अपने मतों की मान्यताओं से ऊपर उठकर इसी विधि की शरण लेनी चाहिये।

 

सन्ध्या के आरम्भ में तीन आचमनों के लिए जिस मन्त्र का विधान महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने किया है वह निम्न हैः

 

ओ३म् शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तु नः।। यजुर्वेद 36/12

 

ईश्वर सबका प्रकाशक है और सबको (सत्याचार वा धर्माचार करने वालों को) आनन्द देने वाला है। वह सर्वव्यापक है।

 

वह ईश्वर हमें मनोवांछित आनन्द अर्थात् ऐहिक सुख-समृद्धि के लिए और पूर्णानन्द अर्थात् मोक्ष के आनन्द (जन्म मरण के दुःख से मुक्त कराकर ईश्वर के सान्निध्य का परम सुख) की प्राप्ति के लिए हमको कल्याणकारी हो अर्थात् हमारा कल्याण करे।

 

वही परमेश्वर हम पर सुख की सर्वदा, सब ओर से वृष्टि करे।

 

यह मन्त्र व इसमें निहित भाव उपासक व साधक को जीवन का उद्देश्य अक्षय-शान्ति और पूर्णानन्द की प्राप्ति बताकर व मन व आत्मा की ईश्वर में स्थिति सम्पादित कर चित्त को शान्त और समाहित करने का प्रयत्न करता है।

 

मन्त्र का मुख्य भाव-हे दिव्य गुणों वाले सर्वव्यापक प्रभुदेव ! आप सांसारिक-सुख व मोक्ष-आनन्द के देने वाले हो। आप हमें सब ओर से सुख व शान्ति प्रदान कीजिए। आप कल्याणकारी हो, अतः हमारा कल्याण कीजिए।

 

हम आशा करते हैं कि सभी पाठक ऋषि दयानन्द जी की सन्ध्योपासना विधि से ही प्रातः सायं सन्ध्या में प्रवृत्त होकर ऋषि निदिृष्ट लाभों को प्राप्त करने की ओर अग्रसर होंगे। इस विधि से उपासना करने से किसी को किसी प्रकार की कोई हानि नहीं होगी और लाभ इतना अधिक होगा जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। अतः सभी को इसका आचरण अर्थात् इस विधि के अनुसार सन्ध्या अवश्य करनी चाहिये।

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