ओ३म्
मनमोहन कुमार आर्य
भारत की गुलामी का कारण देश व मनुष्य समाज का वेदपथ से पददलित होना और अज्ञानता व अन्धविश्वासों के कूप में गिरना था। महाभारत के युद्ध के अनेक भयकर परिणामों में से एक दुष्परिणाम यह था कि देश वेद पथ व वैदिक धर्म से दूर हो गया जिसका परिणाम धार्मिक व सामाजिक अज्ञानता, अन्धविश्वास, मिथ्या सामाजिक परम्परायें के रूप में हुआ। लगभग 5 हजार वर्षों तक यह स्थिति बनी रही और दिन प्रति यह वृद्धि को भी प्राप्त होती रही। सन् 12 फरवरी, सन् 1825 को महर्षि दयानन्द जी का जन्म गुजरात प्रदेश की मौरवी रियासत के टंकारा नाम ग्राम में होता है। सच्चे ईश्वर की खोज व मृत्यु पर विजय पाने के लिए वह घर से निकल पड़ते हैं। लगभग 14 देश भर में घूमकर वह योग विद्या सीखते हैं व उसमें पारंगत हो जाते हैं। विद्या प्राप्ति की उनकी अभिलाषा सन् 1860 में मथुरा में गुरु विरजानन्द सरस्वती जी के अन्तेवासी शिष्य बनकर उनसे संस्कृत की आर्ष व्याकरण का अध्ययन कर व गुरु से मिली अनेक प्रकार की जानकारियों से पूर्ण होती है। गुरु की प्रेरणा व स्वविवेक से उन्होंने अपने भावी जीवन का उद्देश्य देश की गुलामी एवं सभी समस्याओं के मूल कारण अविद्या पर प्रहार करने व सत्य वेद मत के प्रचार व प्रसार को बनाया। सभी उन्नतियों की उन्नति का आधार विद्या होती है जिसके लिए अविद्या का नाश ही एक मात्र उपाय है। संसार में विद्या का स्रोत एकमात्र वेदों का सत्य ज्ञान है। इस मूल मंत्र को पकड़कर स्वामी जी आगे बढ़ते हैं और वेद प्रचार के साथ साथ अज्ञान, सभी अन्धविश्वास, मिथ्या सामाजिक परम्पराओं किंवा अविद्या पर प्रबल प्रहार करते हैं। उसी का सुपरिणाम आज हम देश की सर्वांगीण उन्नति के रूप में पाते हैं। महाभारत काल तक तो भारत विश्व गुरु था ही, ऋषि दयानन्द जी की कृपा से आज भी भारत अध्यात्म विद्या, जो समस्त विद्याओं का केन्द्र है, के कारण विश्वगुरु है और हमेशा रहेगा। भगवान मनु का श्लोक भी याद आता है जिसमें वह कहते है ‘एतद्देशस्य प्रसुतस्य साकाशादग्रजन्मः। स्वं स्वं चरित्रेन् शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्वमानवाः’ अर्थात् हमारा यह आर्यावर्त वा भारत देश सारे संसार में विद्वानों को उत्पन्न करने वाला विद्याओं का केन्द्र है। संसार के सभी लोग भारत आकर अपने योग्य सभी प्रकार की विद्या व चरित्र की शिक्षा लेते थे। महर्षि दयानन्द ने भारत को पुनः उसी प्राचीन स्थिति में ला दिया है। देश की आजादी भी उनके विचारों को केन्द्र में रखकर आन्दोलन करने से प्राप्त हुई है। सन् 1857 की प्रथम स्वातन्त्र्य क्रान्ति के समय में उनका अज्ञात जीवन बिताना, भूमिगत होना वा बाद में भी उसका विवरण प्रकट न करना उनके प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन में प्रमुख भूमिका होने की ओर संकेत करता है। उनके साक्षात् शिष्य पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा क्रान्तिकारियों के प्रथम गुरु रहे और उन्हीं के शिष्य विनायक दामोदर सावरकर थे। 28 मई, 2017 को उनकी 134 वीं जयन्ती है। इस अवसर पर उनका स्मरण व स्वयं को देश की रक्षा के लिए समर्पित करना प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य व धर्म है। जो देशवासी ऐसा करता है वह प्रशंसनीय है। संसार में उपासनीय तो केवल ईश्वर है परन्तु पृथिवी, वेदमाता व गोमाता के हमारे उपर इतने उपकार हैं कि यह मातायें उपासनीय न होकर भी हमारी श्रद्धा एवं पे्रम की अधिकारिणी हैं। हम इस अवसर पर हम वेदमाता, भारतमाता व गोमाता का वन्दन भी करते हैं।
वीर विनायक दामोदर सावरकर जी का बचपन का नाम तात्या था। आपका जन्म 28 मई, सन, 1883 को ग्राम भागूर जिला नासिक में हुआ था। घर में आपके माता-पिता और तीन भाई थे। घर में प्रतिदिन भगवती दुर्गा की पूजा होने के साथ रामायण व महाभारत की कहानियां भी बच्चों को सुनने को मिलती थी। महाराणा प्रताप व वीर शिवाजी के वीरतापूर्ण प्रसंग भी आपको माता-पिता से सुनने को मिलते थे। 10 वर्ष की आयु में आपकी माता राधा बाई जी का देहान्त हो गया। आप गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे। बचपन में शस्त्र चलाने का अभ्यास भी करते थे। कुश्ती का शौक भी आपको हो गया था। इन्हीं दिनों आपके इलाके में प्लेग फैला। एक एक करके बिना इलाज लोग मरने लगे। अंग्रेजों ने इस बीमारी की रोकथाम के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किया जिससे सावरकर जी और क्षेत्र के लोगों में सरकार के प्रति रोष उत्पन्न हुआ। इसी कारण चाफेकर बन्धुओं ने वहां के अंगे्रज कमिश्नर की हत्या कर दी। अंग्रेजों द्वारा मुकदमें का नाटक किया गया और इन वीर चाफेकर पुत्रों को फांसी दे दी गई। इससे व्यथित वीर सावरकर जी ने निर्णय किया कि इस अन्याय का बदला अवश्य लेंगे। बड़े होकर आप नासिक जिले के फग्र्युसन कालेज में पढ़ने के लिए गये। यहां आपने ‘मित्र-मेला’ नाम की देशभक्त युवकों की एक संस्था बनाई। इसका सदस्य बनने के लिए युवकों को यह घोषणा करनी पड़ती थी कि आवश्यकता पड़ने पर वह देश पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दंेगे। सभी सदस्य लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक द्वारा प्रकाशित देशभक्ति से पूर्ण पत्र ‘केसरी’ व अन्य पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ते थे। महाराणा प्रताप व वीर शिवाजी की जयन्तियां भी आपके द्वारा मनाई जाती थी। 22 मार्च सन् 1901 को इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया का देहावसान हुआ। अंग्रेजों द्वारा देश भर में शोक मनाये जाने की घोषणा की गई। तात्या ने ‘मित्र-मेला’ संगठन की बैठक बुलाई और उसमें भाषण दिया। आपने भाषण में कहा कि महारानी विक्टोरिया हमारे देशवासियों की शत्रु थी, उन्होंने हमें गुलाम बनाया हुआ है। हम उनके लिए शोक क्यों मनायें? समाचार पत्रों में इससे सम्बन्धित समाचार प्रकाशित होने से अंगे्रजों को इस घटना का पता चला और सावरकर जी को फग्र्युसन कालेज से निकाल दिया गया। लोकमान्य तिलक को इस घटना का पता चलने पर उनके मुंह से निकला कि ‘लगता है कि महाराष्ट्र में शिवाजी ने जन्म ले लिया है।’ इसके बाद तिलक जी ने सावरकर जी को बुलाकर उनके शौर्य की प्रशंसा की और उन्हें आशीर्वाद सहित सहयोग का आश्वासन दिया।
देश के लोगों में देशभक्ति की भावना भरने के लिए तिलक जी के आशीर्वाद से आपने विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का आन्दोलन चलाया जो अपेक्षा के अनुरूप सफल रहा। देश भर में स्थान स्थान पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई जिससे देशवासी अंग्रेजों की गुलामी से घृणा करने लगे। इस पर लोकमान्य तिलक जी ने कहा कि ‘‘यह आग विदेशी साम्राज्य को भस्म करके ही दम लेगी।” बी.ए. पास करने के बाद आपने लन्दन जाकर वहां से वकालत करने का निर्णय लिया। 9 जून सन् 1906 को आप लन्दन के लिए रवाना हुए और वहां पहुंच कर महर्षि दयानन्द के साक्षात शिष्य व क्रान्तिकारियों के आद्यगुरू श्री श्यामजी कृष्ण वम्र्मा के इण्डिया हाउस में निवास किया जहां पहले से अनेक क्रान्तिकारी युवक रहा करते थे। यहां आकर आपने पहला काम अंग्रेजों द्वारा लिखित भारत के इतिहास को पढ़ा। आप ने अपनी अन्तर्दृष्टि से जान लिया कि यह इतिहास पक्षपातपूर्ण है जिसमें भारतीयों से न्याय नहीं किया गया है। आपने भारतीयों का सच्चा इतिहास देशवासियों के सामने लाने का निर्णय किया। आपने कुछ ही काल में कई पुस्तकों की रचना कर डाली। आपकी एक प्रमुख कृति ‘सन् 1857 का भारत का प्रथम स्वातन्त्र्य समर’ है जिस पर प्रकाशन से पूर्व ही अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया गया जो विश्व इतिहास की प्रथम घटना थी। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तथा क्रान्तिकारी शहीद भगत सिंह जी ने इस पुस्तक को पढ़ा और इसे भारी संख्या में छपवाकर युवकों में निःशुल्क वितरण कराया। यह पुस्तक लन्दन में लिखी गई और वहां से प्रतिबन्ध लगने पर भी भारत कैसे पहुंच गई, यह एक रहस्य है? हमने यह पुस्तक पढ़ी है और हम अनुभव करते हैं कि प्रत्येक भारतीय को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिये। विदेशी जुल्मी सरकार के होते हुए इतिहास के इतने अधिक तथ्यों को इकट्ठा करना और अल्प समय में उसे रोचक रूप में प्रस्तुत करना एक आश्चर्यजनक घटना है जिसका अनुमान पुस्तक को पढ़कर ही लगाया जा सकता है।
आप इटली के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी मैजिनी से इतने अधिक प्रभावित थे कि आपने इन पर एक पुस्तक की ही रचना कर डाली। विदेशों में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों को देश भक्ति की शिक्षा देने के लिए आपने सन् 1857 की क्रान्ति के स्मृति दिवस के अवसर पर इसके प्रमुख तीन अमर हुतात्माओं वीर कुवंर सिंह, मंगल पाण्डे तथा रानी लक्ष्मी बाई को स्मरण करने का निर्णय किया और विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को सुझाव दिया कि वह इस दिन अपने कोट पर एक बिल्ला लगायें जिस पर लिखा हो कि ‘‘सन् 1857 की क्रान्ति के शहीदों की जय”। इस घटना से इंग्लैण्ड की सरकार चैंक गई और वीर सावरकर के विरूद्ध खुफिया निगरानी और बढ़ा दी गई। भारतीय युवक मदनलाल ढ़ीगरा जी ने लन्दन में वीर सावरकर जी से कर्जन वायली की हत्या के विषय में विस्तृत बातचीत की तथा दोनों में योजना पर सहमति हुई। 11 जुलाई सन् 1909 को लन्दन के जहांगीर हाल में एक बैठक में भारतीयों पर अत्याचारों के दोषी कर्जन वायली उपस्थित थे। पूर्व जानकारी प्राप्त करके मदनलाल ढ़ीगरा और वीर सावरकार आदि क्रान्तिकारी वहां पहुंच गये। बैठक के दौरान प्राणवीर मदन लाल ढ़ीगरा की पिस्तौल से गोली चली और कर्जन वायली वहीं ढेर हो गये। एक अंग्रेज ने ढीगरा जी को पकड़ने की कोशिश की और वह भी उनकी पिस्तौल की गोली से अपने प्राण गंवा बैठा। इस घटना के परिणाम स्वरूप श्री ढ़ीगरा को 16 अगस्त सन् 1909 को लन्दन में फांसी दे दी गई। कर्जन वायली की हत्या के विरोध में एक निन्दा प्रस्ताव पारित करने के लिए सर आगा खां ने लन्दन में एक बैठक का आयोजन किया। शोक प्रस्ताव प्रस्तुत हुआ जिसमें कहा गया कि हम सब सर्वसम्मति से कर्जन वायली की हत्या की निन्दा करते हैं। इसके विरोध में वहां बैठे वीर सावरकर खडे़ हुए और दृणता से बोले कि सर्वसम्मति से नहीं, मैं इस प्रस्ताव का विरोध करता हूं। इससे अंग्रेजों को कर्जन वायली की हत्या में वीर सावरकर का हाथ होने का शक हुआ। उन पर निगरानी अब पहले से अधिक कड़ी कर दी गई। मित्रों के परामर्श से वह पेरिस चले गये परन्तु वहां मन न लगने पर परिणाम की चिन्ता किए बिना लन्दन लौट आये।
वीर सावरकर जी के पेरिस से लन्दन वापिस आते ही उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। 15 सितम्बर, 1910 को उन पर मुकदमा चला और 23 जनवरी 1911 को उन्हें आजीवन कारावास का दण्ड सुनाया गया। इसके बाद ‘मेरिया’ नामक जहाज में बैठा कर उन्हें भारत भेजने का प्रबन्ध किया गया। जहाज के चलने पर वह चिन्तन मनन में खो गए। उन्हें जहाज में एक अंग्रेज पत्रकार से पता चला कि देश की आजादी के लिए आन्दोलन करने के कारण उनके दो भाई भी भारत की जेलों में हैं। इस पर उनकी प्रतिक्रिया थी कि मुझे गर्व है कि मेरा पूरा परिवार ही भारत माता को दासता की बेड़ियों से मुक्त कराने के कार्य में संलग्न है। जेलों में पड़कर जीवन समाप्त करने की अपेक्षा उन्होंने भारत माता के लिए कुछ ठोस कार्य करने के बारे में सोचा। इसके लिए उन्होंने जहाज से भागने का विचार किया। वह शौचालय में गये और उसकी एक खिड़की या रोशनदान को उखाड़कर उससे समुद्र में कूद पड़े। अंग्रेज पुलिस उन पर गोलियों की बौछार करने लगी और वह तैर कर आगे बढ़ रहे थे और अधिकांश समय पानी के अन्दर ही रहते थे। इस स्थिति में उन्होंने पास के किसी द्वीप में पहुंचने का निर्णय किया। वह फ्रांस के एक द्वीप पर पहुंच गये जहां के सिपाही ने सावरकर जी के गिरफ्तार करने के निवेदन को अनसुना कर उन्हें ब्रिटिश सैनिको को सौंप दिया। उनके शरीर पर बेड़िया डाल दी गई जिससे वह हिल-डुल न सकें। इस प्रकार उन्हें एक नाव से उसी जहाज पर लाकर, जिससे वह कूदे थे, भारत पहुंचाया गया जहां उन पर फिर मुकदमा चला और उन्हें कालापानी की सजा दी गई। उनकी सजा दो जन्मों के कारावास की थी जिसके अन्तर्गत उन्हें 50 वर्षों तक कालापानी में बिताने थे। दो जन्मों की सजा सुनाये जाने पर भी सावरकर जी मुस्कराये थे और जज को कहा कि आप ईसाई लोग तो बाइबिल के अनुसार दो जन्म मानते ही नहीं हैं फिर आपका मुझे दो जन्मों का कारावास देना हास्यापद ही है।
इस सजा को काटने के लिए उन्हें अण्डमान निकोबार की पोर्टब्लेयर स्थित कालापानी की जेल में भेज दिया गया। कालापानी में वीर सावरकर जी को कोल्हू में बैल के स्थान पर जुतना पड़ता था और प्रतिदिन 30 पौंड तेल निकालना पड़ता था। बीच बीच में गर्मी से लोग मूर्छित भी हो जाते थे। ऐसा होने पर कोड़ो से कैदियों की पिटाई होती थी। खाने की स्थिति ऐसी थी कि बाजरे की रोटी व स्वादरहित सब्जी जिसे निगलना मुश्किल होता था। पीने के लिए पर्याप्त पानी भी नहीं मिलता था। दिन में भी शौच आने पर अनुमति नहीं मिलती थी और बात बात पर गांलिया दी जाती थी। ऐसे यातना ग्रह में रहकर इस महान चिन्तक और देशभक्त ने 10 वर्षों तक जीवन व्यतीत किया। कालापानी में वीर सावरकर जी ने जो यातनायें सहन की उसे हमारे सत्ता का सुख भोग चुके वा भोगने वाले सोच भी नहीं सकते। यह उनकी कृतघ्नता कही जा सकती है। यही कारण है कि सरकारों ने उनके देशभक्ति के विचारों व देश के लिए सहन की गई कालापानी की अमानवीय सजाओं की उपेक्षा की और उन्हें वह सर्वोच्च मान-सम्मान नहीं दिया जिसके वह अधिकारी थे व हैं। वीर सावरकर जी का बलिदान किसी भी बड़े से बड़े सत्याग्रही से कहीं अधिक बड़ा बलिदान था, ऐसा हम अनुभव करते हैं। हमने पोर्ट ब्लेयर जाकर कालापानी की उस जेल को देखा है जिसमें सावरकर जी रहे और उन यातनाओं को भी अनुभव किया है जो उनको दी गईं थी। आज भी वह कोल्हू, वहां का फांसी घर जो सावरकर जी के कमरे के सम्मुख था तथा वहां के सभी स्थानों को देखा है। हम चाहेंगे कि सभी देशभक्तों को कालापानी की जेल को देश का प्रमुखतम तीर्थ स्थान मानकर वहां जाना चाहिये और भारतमाता के उन वीर सपूतों को अपनी श्रद्धांजलि देनी चाहिये जहां सावरकरजी सहित अनेक देशभक्तों ने घोर यातनायें सहन की थी। इतना और बता दें कि वहां सायं के समय एक लाइट एण्ड साउण्ड शो होता है जिसमें वर्णित उस काल की स्थितियों के अनुभव व उन्हें देखकर रोंगटे खडें हो जाते हैं। प्रत्येक देशभक्त के लिए यह दर्शनीय है। इस लाइट एण्ड साउंड शो को यूट्यूब से भी डाउनलोड कर देखा जा सकता है।
देश की आजादी के बाद स्थापित केन्द्रीय सरकार की अदूरदर्शिता पूर्ण नीतियों का परिणाम सन् 1948 में पाकिस्तान पर कश्मीर पर आक्रमण के बाद सन् 1962 में चीन के आक्रमण के रूप में सामने आया। चीन ने हमारी 400 वर्ग मील भूमि पर कब्जा कर लिया। सावरकर जी को इससे गहरा धक्का लगा और उन्होंने खून के आंसू पीये। सन् 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया परन्तु अब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे और हमारी सेनायें भी पूरी तरह से तैयार थी। पंजाब में हमारी सेनायें लाहौर तक और कश्मीर में हाजीपीर दर्रे तक आगे बढ़ गई। सावरकर जी ने लालबहादुर शास्त्री जी को विजय की बधाई दी। परन्तु तभी ताशकन्द समझौता हुआ जिसमें वीर भारतीय सैनिकों का खून बहाकर प्राप्त किया गया समस्त भूभाग पाकिस्तान को लौटाना पड़ गया और लाल बहादुर शास्त्री भी हमसे बिछड़ गये। इसके पीछे हुए षड़यन्त्र का आज तक पता नहीं चला। क्या कभी इस षड़यन्त्र की जांच होगी? वीर सावरकर जी इस ताशकन्द समझौते से अत्यधिक व्यथित हुए। 26 फरवरी 1966 को भारत माता का यह अन्यतम पुत्र अपने देह को छोड़ कर स्वर्ग सिधार गया। सावरकर जी का जीवन भारतवासियों के लिए प्रकाश स्तम्भ है। यदि देश उनके बताये हुए मार्ग पर चलेगा तो इससे देश बलवान व अपमानित होने से बचा रहेगा। सावरकर जी पर हिन्दी में पूरी अवधि का चलचित्र भी बना है जिसे प्रत्येक देशभक्त देशवासी को देखना चाहिये। यह पहला चलचित्र है जिसे सावरकर जी के भक्तों से चन्दा एकत्र करके बनाया गया है। जीवित शहीद वीर सावरकर जी के 134 वें जन्म दिवस पर उन्हें हमारी कृतज्ञतापूर्ण श्रद्धांजलि।