व्यर्थ न जाए गंगापुत्र सानंद का बलिदान

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अरविंद जयतिलक

जन-जन की आराध्य व मोक्षदायिनी मां गंगा की रक्षा के लिए प्रभावी कानून बनाने और गंगा की अविरलता को लेकर 113 दिनों से अनशनरत रहे नए दौर के भगीरथ स्वामी ज्ञानस्वरुप सानंद (जीडी अग्रवाल) आखिरकार दुनिया से चल बसे। याद होगा सात साल पहले मातृसदन के एक अन्य संत निगमानंद ने भी गंगा रक्षा के निमित्त 114 दिन के अनशन के बाद 13 जून, 2011 को अपना प्राणोत्सर्ग किया था। सानंद भी संत निगमानंद की गति को प्राप्त हो गए। उल्लेखनीय है कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर से सेवानिवृत प्रो गुरुदास अग्रवाल उर्फ सानंद 22 जून, 2018 को गंगा की रक्षा के लिए अनशन पर बैठे थे और उन्होंने इसे तप की संज्ञा दी थी। दरअसल वे चाहते थे कि सरकार गंगा की रक्षा के लिए प्रभावी कानून बनाए और गंगा एवं उसकी सहयोगी नदियों पर निर्मित जल विद्युत परियोजनाओं को शीध्र बंद करे। हालांकि सरकार उन्हें मनाने और भरोसा देने के लिए अपने केंद्रीय मंत्री उमा भारती के अलावा अन्य मंत्रियों के जरिए ईमानदार पहल की लेकिन सानंद मानने के बजाए जल का भी परित्याग कर दिया। लिहाजा उनका शरीर साथ छोड़ गया। अब उचित होगा कि सरकार स्वामी सानंद के तप का सम्मान करते हुए उनकी मांग को ध्यान में रख मोक्षदायिनी गंगा की रक्षा के लिए प्रभावी कानून बनाए। ऐसा करना इसलिए भी आवश्यक है कि उनकी मांग गंगा और पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़ा है और उसमें संपूर्ण समष्टि का हित है। वैसे भी गौर करें तो सानंद ही नहीं कई पर्यावरणविदों द्वारा कहा जा चुका है कि गंगा की दुर्दशा के लिए गंगा पर बनाए जा रहे बांध जिम्मेदार हैं। गोमुख से निकलने के बाद गंगा का सबसे बड़ा कैदखाना टिहरी जलाशय है। इस जलाशय से कई राज्यों को पानी और बिजली की आपूर्ति होती है। यह भारत की सबसे बड़ी पनबिजली परियोजनाओं में से एक है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी कीमत गंगा को विलुप्त होकर चुकाना पड़ेगा। पर्यावरणविदों का तर्क है कि गंगा पर बांध बनाए जाने से जल प्रवाह में कमी आयी है। प्रवाह की गति धीमी होने से गंगा में बहाए जा रहे कचरा, सीवर का पानी और घातक रसायनों का बहाव समुचित रुप से नहीं हो रहा है। पर्यावरणविदों का यह भी तर्क है कि गंगा पर हाइड्रो पाॅवर प्रोजेक्ट लगाने से पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हो रहा है। उनका यह भी कहना है कि अगर उत्तर काशी क्षेत्र में लोहारी नागपाला पनबिजली परियोजना को पुनः हरी झंडी दिखायी गयी तो गंगोत्री से उत्तरकाशी के बीच गंगा का तकरीबन सवा सौ किलोमीटर लंबा क्षेत्र सूख जाएगा। उनकी मानें तो गंगा पर प्रस्तावित सभी बांध अस्तित्व में आए तो गंगा का 39 फीसद हिस्सा झील बन जाएगा। इससे प्राकृतिक आपदाओं की संभावना बढ़ जाएगी। उल्लेखनीय है कि गंगा पर बनाए जाने वाले 34 बांधों और गंगा की कोख का खनन को लेकर एक अरसे से संत समाज आंदोलित है। ध्यान देना होगा की गंगा की सुरक्षा व अविरता को लेकर सिर्फ संत समाज ही आंदोलित नहीं है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) भी कई बार सरकार को फटकार लगा चुका है। अभी गत माह पहले ही नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने गंगा में बढ़ते प्रदुषण को लेकर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि अगर सिगरेट के पैकेट पर ‘स्वास्थ्य के लिए हानिकारक’ चेतावनी लिख सकते हैं, तो फिर प्रदुषित गंगा के पानी को लेकर ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता। एनजीटी ने गत वर्ष यह सवाल भी दागा था कि हजारों करोड़ रुपए खर्च होने के बावजूद भी गंगा की स्थिति में सुधार क्यों नहीं हो रहा है? जानना जरुरी है कि 1985 में उच्चतम न्यायालय के वकील और पर्यावरणविद् एमसी मेहता ने गंगा की सफाई को लेकर याचिका दायर की थी। 2014 में उच्चतम न्यायालय ने इस याचिका को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के पास भेज दिया। तब याचिकाकर्ता द्वारा गंगा की सफाई के नाम पर खर्च करोड़ों रुपए की सीबीआई या कैग से जांच कराने की मांग की गयी थी। उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार ने गंगा को निर्मल बनाने के लिए एक अलग से मंत्रालय का गठन कर 2037 करोड़ रुपए की ‘नमामि गंगे’ योजना शुरु की। इसके तहत गंगा को प्रदुषित करने वाले उद्योगों पर निगरानी रखना, उनके विरुद्ध कार्रवाई करना, के अलावा गंगा नदी के किनारे स्थित 118 शहरों एवं जिलों में जलमग्न शोधन संयंत्र एवं संबंधित आधारभूत संरचना का अध्ययन के साथ गंगा नदी के किनारे स्थित श्मशान घाटों पर लकड़ी निर्मित प्लेटफार्म को उन्नत बनाना तथा प्रदुषण एवं गंदगी फैलाने वालों पर लगाम कसना सुनिश्चित हुआ। लेकिन अभी तक इस उद्देश्य में सफलता नहीं मिली है। हालात यह है कि आज भी प्रतिदिन गंगा के बेसिन में 300 लाख लीटर गंदा पानी बहाया जा रहा है। इसमें 200 लाख लीटर सीवेज एवं 100 मिलीयन लीटर औद्योगिक कचरा होता है। गंगा की दुगर्ति के लिए मुख्य रुप से सीवर और औद्योगिक कचरा ही जिम्मेदार है जो बिना शोधित किए गंगा में बहा दिया जाता है। गंगा नदी के तट पर अवस्थित 764 उद्योग और इससे निकलने वाले हानिकारक अवशिष्ट बहुत बड़ी चुनौती हैं जिनमें 444 चमड़ा उद्योग, 27 रासायनिक उद्योग, 67 चीनी मिलें तथा 33 शराब उद्योग शामिल हैं। जल विकास अभिकरण की मानें तो उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में गंगा तट पर स्थित इन उद्योगों द्वारा प्रतिदिन 112.3 करोड़ लीटर जल का उपयोग किया जाता है। इनमें रसायन उद्योग 21 करोड़ लीटर, शराब उद्योग 7.8 करोड़ लीटर, चीनी उद्योग 30.4 करोड़ लीटर, कागज एवं पल्प उद्योग 30.6 करोड़ लीटर, कपड़ा एवं रंग उद्योग 1.4 करोड़ लीटर एवं अन्य उद्योग 16.8 करोड़ लीटर गंगाजल का उपयोग प्रतिदिन कर रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि गंगा नदी के तट पर प्रदुषण फैलाने वाले उद्योग और गंगा जल के अंधाधुंध दोहन से नदी के अस्तित्व पर खतरा उत्पन हो गया है। उचित होगा कि गंगा के तट पर बसे औद्योगिक शहरों के कल-कारखानों के कचरे को गंगा में गिरने से रोका जाए और ऐसा न करने पर कल-कारखानों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जाए। गंगा की सफाई हिमालय क्षेत्र से इसके उद्गम से शुरु करके मंदाकिनी, अलकनंदा, भागीरथी एवं अन्य सहायक नदियों में होनी चाहिए। क्योकि गत वर्ष पहले वल्र्ड बैंक की एक रिपोर्ट से उद्घाटित हो चुका है कि प्रदुषण की वजह से गंगा नदी में आक्सीजन की मात्रा कम हो गयी है। सीवर का गंदा पानी और औद्योगिक कचरे को बहाने से क्रोमियम एवं मरकरी जैसे घातक रसायनों की मात्रा बढ़ी है। प्रदुषण की वजह से गंगा में जैविक आक्सीजन का स्तर 5 हो गया है। जबकि नहाने लायक पानी में कम से कम यह स्तर 3 से अधिक नहीं होना चाहिए। गोमुख से गंगोत्री तक तकरीबन 2500 किमी के रास्ते में कालीफार्म बैक्टीरिया की उपस्थिति दर्ज की गयी है जो अनेक बीमारियों की जड़ है। वैज्ञानिकों ने माना कि बैक्टीरिया की मुख्य वजह गंगा में मानव और जानवरों का मल-मूत्र बहाया जाना है। वैज्ञानिकों की मानें तो ई-काईल बैक्टीरिया की वजह से सालाना लाखों लोग गंभीर बीमरियों की चपेट में आते हैं। प्रदुषण के कारण गंगा के जल में कैंसर के कीटाणुओं की संभावना प्रबल हो गयी है। जांच में पाया गया है कि पानी में क्रोमियम, जिंक, लेड, आसेर्निक, मरकरी की मात्रा बढ़ती जा रही है। वैज्ञानिकों की मानें तो नदी जल में हैवी मेटल्स की मात्रा 0.01-0.05 पीपीएम से अधिक नहीं होनी चाहिए। जबकि गंगा में यह मात्रा 0.091 पीपीएम के खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है। जबकि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी ने भी गोमुख से हरिद्वार तक गंगा किनारे रह प्रकार के प्लास्टिक पर पाबंदी लगा रखी है। यहां यह भी ध्यान देना होगा कि आज भी गंगा के तट पर हर वर्ष लाखों शव जलाए जाते हैं और उसकी राख को गंगा में पुनः प्रवाहित कर दिया जाता है। इसके अलावा यह भी देखा जाता है कि त्यौहारों के मौसम में गंगा में फूल, पत्ते, नारियल, प्लास्टिक एवं ऐसे ही अन्य अवशिष्टों को बहाया जाता है। आखिर इस तरह के कृत्यों से भला गंगा की रक्षा और अविरता कैसे बरकरार रहेगी और किस तरह स्वामी सानंद का सपना पूरा होगा।

 

 

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