सडक़ों पर बिकता ‘ज़हर’:शासन-प्रशासन मौन?

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निर्मल रानी
आजकल हमारे देश के प्रमुख टीवी चैनल मोदी,योगी,तीन तलाक,गाय,गंगा,मंदिर-मस्जिद,अज़ान,जैसे विषयों पर चर्चा करने में इतना व्यस्त हैं कि उन्हें शायद आम नागरिकों को प्र्रतिदिन जानबूझ कर खिलाए जाने वाले ज़हर की या तो कोई जानकारी नहीं है या फिर वे इसे उन मुद्दों से अधिक अहमियत नहीं देते जो उनकी नज़रों में तो ज्वलंत मुद्दे हैं परंतु ऐसे मुद्दों से आम नागरिकों का कोई विशेष लेना-देना नहीं है। और यदि मीडिया का कोई छोटा सा वर्ग ऐसे सवालों को उठाता भी है तो बड़े ही हैरतअंगेज़ तरीके से शासन-प्रशासन की ओर से ऐसी चुप्पी साध ली जाती है गोया यह कोई खास मुद्दा ही न हो। गत् कई वर्षों से पूरे देश में फल व सब्ज़ी विक्रेताओं द्वारा बेचे जाने वाले अनेक फल व सब्जि़यां ऐसी है जो आप्रकृतिक तरीके से समय से पूर्व रासायनिक विधियों से तैयार कर या पका कर दुकानों,रेहडिय़ों अथवा फुटपाथ पर बेची जा रही हैं। ऐसा नहीं है कि इस प्रकार के समय पूर्व रासायनिक विधियों से तैयार किए गए फल व सब्जि़यां केवल साधारण या गरीब व्यक्ति ही खरीद या खा रहा है बल्कि उससे अधिक इन ज़हरीली चीज़ों का उपयोग मध्यम वर्ग से लेकर उच्च वर्ग के लोगों द्वारा किया जा रहा है। ज़ाहिर है मंहगाई के इस दौर में फल खरीद पाना आम आदमी की पहुंच से बाहर है। यदि हम अति विशिष्ट या धनाढ्य चंद ऐसे लोगों की बात छोड़ दें जो अपने स्वयं के बाग-बगीचे में फल व सब्जि़यां उगाते हैं तो देश का प्रत्येक हर बड़ा व संभ्रांत व्यक्ति भी वही ज़हरीली सब्ज़ी तथा फल खाने को बाध्य है जो बाज़ार में उपलब्ध है।
हालांकि इन दिनों सोशल मीडिया पर तो यहां तक बताया जा रहा है कि बाज़ार में प्लास्टिक द्वारा निर्मित की गई पत्ता गोभी,चावल तथा अंडे जैसी वस्तुएं चीन के ‘सौजन्य’ से बेची जा रही हैं। परंतु सोशल मीडिया पर प्रसारित होने वाली ऐसी खबरें चूंकि अधिकांशतया अफवाहों पर आधारित होती हंै इसलिए यदि हम ऐसे समाचारों की अनदेखी भी करें तो भी हमारे अपने ही देश के नागरिक फल व सब्ज़ी व्यवसायियों द्वारा आम लोगों की जान के साथ खिलवाड़ करने का जो कुचक्र रचा जा रहा है वह किसी चीन या पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देश द्वारा रचे जाने वाले कुचक्र से कहीं ज़्यादा खतरनाक है। गैस वैल्डिंग में इस्तेमाल किए जाने वाले खतरनाक रसायन कार्बेट पाऊडर द्वारा आम,केला,पपीता जैसे फलों को पकाने की प्रक्रिया हालांकि दशकों पुरानी है। इस प्रक्रिया से पकाए गए फल भी हालांकि बहुत नुकसानदेह होते हैं। परंतु खबरों के अनुसार इन दिनों और भी कई ऐसी तकनीक फल विक्रेताओं द्वारा ढूंढ निकाली गई है जिससे कि कोई भी फल मात्र 4 से लेकर 6 घंटों के बीच ही पके हुए फल की तरह दिखाई देने लगता है। जबकि कार्बेट से फल पकाने की प्रक्रिया में फलों को पकने में 12 से 24 घंटे का समय भी लग जाया करता था। फर्क सिर्फ इतना था कि कार्बेट के इस्तेमाल से 12 से 24 घंटों में फल पूरी तरह पक जाता था जबकि वर्तमान खतरनाक रासायनिक प्रक्रिया में फल पके या न पके परंतु पका हुआ दिखाई ज़रूर देने लगता है।
खबरों के मुताबिक चीन से ही आयातित कोई विशेष रासायनिक पाऊडर ऐसा है जिसकी एक छोटी सी पुडिय़ा जिसका वज़न मात्र दस ग्राम ही होता है, उसे किसी भी कच्चे फल की टोकरी मेें रखकर टोकरी को ठीक से ढक दिया जाता है। इसके बाद उस रासायनिक पाऊडर की पुडिय़ा से निकलने वाली तेज़ ज़हरीली गैस चार-पांच घंटों में उस टोकरी में रखे फलों के छिलके का रंग पके हुए फलों के छिलके जैसा बना देती है। और यह पका हुआ रंग ग्राहक को अपनी ओर आकर्षित करता है। इसी प्रकार एक और रसायन द्रव्य के रूप में बाज़ार में उपलब्ध है। इस रसायन की चंद बूंदें एक बाल्टी पानी में डाल दी जाती हैं। इसके बाद किसी भी फल को उस रसायनयुक्त पानी में दो बार डुबो कर बाहर निकाल लिया जाता है। बस इतनी साधारण सी प्रक्रिया के बाद 5-6 घंटे में यह फल भी पके हुए दिखाई देने लगते हैं। और ग्राहक उन्हें उनके खूबसूरत पके हुए रंगों की वजह से शौक से खरीदकर अपने घर ले जाता है और जब वह इन फलों को काटकर खाता है तो उसे फलों में कोई स्वाद नज़र नहीं आता। ज़ाहिर है जब कोई भी फल प्रकृति द्वारा निर्धारित समय सीमा में प्रकृति द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार पकता है तभी उसमें प्राकृतिक स्वाद भी आता है। यही हाल सब्जि़यों का भी है। फर्क सिर्फ इतना है कि सब्जि़यों में रासायन आदि का प्रयोग खेतों में ही कर दिया जाता है जिससे अनेक सब्जि़यां समय से काफी पहले तैयार भी हो जाती हैं तथा उनके वज़न भी अप्राकृतिक तरीके से सामान्य सब्जि़यों से ज़्यादा होते हैं।
इस प्रकार बाज़ार में रासायनिक व अप्राकृतिक तरीके से समय पूर्व तैयार की जाने वाली सब्जि़यां तथा इस प्रकार पकाए जाने वाले अधिकांश फल आम लोगों में तरह-तरह की गंभीर बीमारियां पैदा करते हैं। यहां तक कि आंखों की रौशनी जाना,हड्डियां कमज़ोर होना,स्मरण शक्ति कम या खत्म होना,अपाहिज होना और कैंसर जैसे गंभीर रोगों का खतरा ऐसी सब्जि़यों व फलों के सेवन से बढ़ जाता है। हमारे देश की आम जनता वैसे भी इतनी भोली व सीधी है कि आज भी अधिकांश लोग फलों को धोए बिना खा जाते हैं। जबकि कुछ विशेषज्ञों की राय है कि बाज़ार से लाए गए ऐसे अप्राकृतिक रूप से पकाए गए फलों को यदि खाने से पूर्व कम से कम दो घंटे तक पानी में डुबो कर रखा जाए तो उसके भीतरी ज़हर का कुछ अंश पानी में निकल जाता है। परंतु ऐसा नहीं लगता कि देश में कोई भी व्यक्ति ऐसा कर पाता होगा या उसे इतनी फुर्सत होती होगी कि वह फल खाने के लिए दो घंटे की योजना बनाकर उसे पानी में डुबो कर रखे और बाद में खाए। इस संदर्भ में एक बात और भी काबिले गौर है कि आज से दो-तीन दशक पूर्व तक जब ऐसे ज़हरीले फलों की बिक्री भारतीय बाज़ारों में कम हुआ करती थी उस समय बाज़ार में इतने सुंदर,आकर्षक,सुडौल तथा समान आकार वाले रंग-बिरंगे फल नहीं दिखाई दिया करते थे। परंतु जब से फलों में रासायनिक उपयोग पूरी तरह हावी हो गया है तब से बाज़ार में फल भी काफी सुंदर,बड़े व रंगीन दिखाई देने लगे हैं।
सवाल यह है कि वीआईपी कल्चर को समाप्त करने हेतु अपनी कारों से लाल बत्तियां हटाकर जनता को खुश करने जैसी नौटंकी करने वाली सरकार क्या आम जनता की इस रोज़मर्रा की परेशानी पर भी नज़र डालना चाहेगी? क्या भारत जैसे कृषि प्रधान देश में एक आम मज़दूर व किसान से लेकर देश के सर्वोच्च व सबसे धनाढ्य व्यक्ति तक को कभी रासायन मुक्त फल व सब्ज़ी नसीब हो सकेगी? देश व राज्य की सरकारें इस विषय पर क्या कोई कार्ययोजना बनाने पर विचार कर रही हैं। विश्वास किया जाना चाहिए कि यदि बाज़ार में ऐसी ज़हरीली सबिज़यों व रासायन द्वारा पकाए गए फलों की आवक नियंत्रित हो जाए तो निश्चित रूप से हमारे देश के अस्पतालों में भी भीड़ में काफी कमी आ जाएगी। कितना अजीब लगता है कि एक ओर तो कोई डॉक्टर किसी मरीज़,बज़ुर्ग या कमज़ोर व्यक्ति को फल व हरी सब्ज़ी खाने की सलाह देता है तो दूसरी ओर बाज़ार में फल व सब्ज़ी के नाम पर उसी व्यक्ति को ज़हरीले फलों व सब्जि़यों की खरीद करने को मजबूर होना पड़ता है। देश के नागरिकों को क्या यह जानने का अधिकार नहीं कि जब सडक़ों पर खुलेआम ज़हर बेचा जा रहा हो ऐसे में इस विषय पर शासन-प्रशासन के मौन धारण करने का कारण क्या है?

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