ऋषि दयानन्द के मसूदा प्रवास का एक ऋषि भक्त द्वारा साक्षात अनुभवों पर आधारित वर्णन (2)

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arya-samaj-dayanand-saraswatiमनमोहन कुमार आर्य

स्वामी दयानन्द जी अजमेर से चलकर मसूदा आये। इसका वर्णन करते हुए पं. नथमल जी तिवाड़ी, अजमेर लिखते हैं कि ‘मैं अकेला कभी-कभी दोपहर के समय भी स्वामी जी के पास चला जाया करता था। मसूदा जाने के सम्बन्ध में स्वामी जी पण्डित छगनलाल जी कामदार-मसूदे से भी पत्र व्यवहार करते थे। अन्त में स्वामी जी का मसूदे जाना निश्चित हो गया। स्वामी जी को लेने के लिये वहां से प्रतिष्ठित लोग आये और (स्वामी जी) वहां पर पधार गये। मुझ को बड़ा असह्य मालूम हुआ। मैं पण्डित छगनलाल जी के साथ चला गया और एक मास तक वहीं पर रहा, बीच में मेरे मित्र जेठमल जी सोढ़ा भी आये। ये स्वामी जी से यज्ञोपवीत लेने आये थे। हवन-सामग्री अपने साथ ही लाये थे। स्वामी जी ने हवन कराकर गुरुमन्त्र का उपदेश देकर कृत्य समाप्त किया और आज्ञा की कि नित्य प्रति संध्या आदि पंचकर्म नियमानुसार नित्य किया करो।

 

एक दिन मैं और जेठमल जी सोढ़ा जल्दी से उठे और स्वामी जी के साथ घूमने को गये। स्वामी जी इतने वेग से चले कि हम दोनों एक मील तक तो भागते हुए चलते रहे, अन्त में रास्ते में ही ठहर गये और वापिस आ गये। उन्हीं दिनों में स्वामी जी के घूमने जाने के समय एक जैनी साधू भी शौचादि के लिये जंगल में जाया करते थे। उनसे भी बातें हुई और शास्त्रार्थ की ठहरी। जैन अनुयायियों ने भी चाहा कि धर्म के विषय में शास्त्रार्थ हो। बड़ी गरम खबर उड़ाई परन्तु कुछ न हुआ। मैं दिन भर स्वामी जी के पास बैठा रहता था, उन दिनों में वेदभाष्य करते थे। साथ में तीन या चार पण्डित थे। पं. यमुना दत्त जी शास्त्री पुष्कर वाले, पं. भीमसेन जी, ब्रह्मचारी रामानन्द जी और एक विद्वान उनका नाम शायद पं. ज्वाला प्रसाद जी होगा। ये सब नित्य कर्म से निवृत्त होकर काम पर बैठ  जाते थे। स्वामी जी मन्त्रों का अर्थ संस्कृत में करते थे, पंडित लोग भाषा में करते थे। 11 बजे काम की छुट्टी होती थी। भोजन व विश्राम के पश्चात् पुनः दो बजे से पांच बजे तक काम होता था। इस प्रकार हमेशा कार्य होता था।

 

एक दिन 2 या ढ़ाई बजे स्वामी जी के पास राव साहिब मसूदा घोड़े पर सवार होकर बाग में, जहां स्वामी जी का डेरा जगा हुआ था, 10 या 12 सरदारों सहित पधारे और बातें होती रहीं। इसी तरह दूसरे दिन भी पधारे, स्वामी जी ने उपदेश रूप में राव साहब से कहा आप तो बेकाम हैं मुझे बहुत काम करना है, आप कृपा करके हमारे जाने के लिये सवारी का प्रबन्ध करा दें। राव साहब ने विनय पूर्वक कहा ! मुझ से कौन सा अपराध हुआ जो आप जल्दी से पधारते (यहां से जाना चाहते) हैं। जब एक मास के लिये निश्चित हो चुका है तब इतना जल्दी क्यों? इस पर स्वामी जी ने स्पष्ट रूप से कहा कि आप समय की कोई इज्जत नहीं करते यदि आप पधारा करें तो सायंकाल 5 बजे से रात्रि को 10 बजे तक। हमसे जो कोई मिलना चाहे या शंका-समाधान करना चाहे इसी समय में कर सकता है। आप कल भी मध्यान्ह काल में आये थे आज फिर उसी समय आ गये। यह मेरा वेद-भाष्य लिखने का समय है इस लिये मैं समय के विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकता। इस पर राव साहिब ने क्षमा मांगी और कहा कि आगे से सायंकाल के समय आया करेंगे, फिर कभी दोपहर को नहीं पधारे।

 

बाग के समीप एक चबूतरा है इस पर जाजम बिछ जाया करती। नित्य प्रति लोग आते, शंका-समाधान हुआ करता। देश की बुरी अवस्था को दूर करने के उपायों पर बातें हुआ करती, सुधार कैसे हो आदि विषयों पर उपदेश हुआ करते थे। उन दिनों में एक पुच्छलतारा निकला करता था, उस पर किसी ने पूछा कि इस का कुछ फल है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि देश में इसका फल अच्छा नहीं है। देश के दुर्भाग्य का सूचक है। राव साहब की आज्ञानुसार गढ़ में व्याख्यानमाला आरम्भ हुई, लगातार कई दिनों तक होती रही। उन्हीं दिनों में डाक्टर पादरी शूल ब्रेड साहिब और देशी पादरी बिहारी लाल जी मिशन स्कूल जो मसूदे में हैं, देखने को आये हुये थे। राव साहिब के निमन्त्रणानुसार व्याख्यान सुनने गढ़ में गये। जब पहले कभी आया करते थे तो राव साहब के बराबर उसी फर्श पर जूते पहने कुर्सियों पर बैठा करते थे। इस दिन स्वामी जी ने कहा कि आपके बेटे, भाई तथा अन्य सरदार तो फर्श पर बैठे रहें और वे जूतियों समेत कुर्सियों पर बैठें। आप लोगों को अपनी आर्य जाति के गौरव पर अभिमान नहीं है। स्वामी जी की आज्ञानुसार जाजम का एक कोना उलटवा दिया गया और कुर्सियां दूर लगवा दीं, जब वे आये उन्हें वहीं पर बैठा दिया गया। वेदों के विषय पर वार्तालाप आरम्भ हुआ, पादरी साहब ने मांसाहार तथा  अन्य कई बातें ऋग्वेद में बतलाई। स्वामी जी ने उनका खूब खण्डन किया, पादरी साहब ने स्वामी जी से कहा कि मेरे पास ऋग्वेद है, मैं बता सकता हूं। स्वामी जी ने कहा कि मेम साहब को चिट्ठी लिखो, सवार जाकर प्रातःकाल वेद ले आवेगा। हमारे पास भी वेद मौजूद हैं। टालमटोल के पश्चात् अन्त में पादरी साहिब ने कहा कि जब आप ब्यावर आवें तो मुझ से मिले। व्याख्यान सुनकर पादरी साहब चले गये।

 

स्वामी जी की दिनचर्या इस प्रकार थी। प्रातःकाल जन्दी उठ जाते थे शौचादि से निवृत होकर एक दण्ड (जो बद्रीनारायण के पहाड़ों का गांठदार था) हाथ में लेकर शरीर पर कौपीन और अंगोछा लपेट कर घूमने को चले जाते थे। बस्ती से तीन या चार मील पर किसी अच्छे स्थान पर बैठकर योगाभ्यास प्राणायाम करते थे। एक दिन स्वामी जी ध्यानावस्थित थे इतने में एक बघेरा उनके पास से निकल गया। इस दृश्य को एक ग्रीमीण ने दूर से देखा। उसने स्वयं हम लोगों से कहा कि महाराज को बघेरा मार डालता, राम जी ने बचाया। महाराज अेकेले जंगल में न जाया करें।

 

स्वामी जी की प्रेरणा से एक बड़ा यज्ञ मोती डूंगरी नामक स्थान पर कई दिन तक हुआ। इस अवसर पर कई एक सज्जनों ने यज्ञोपवीत धारण किये। मेरा छोटा भाई भी सम्मिलित था जिसके लिये ब्राह्मणों ने बड़ी गड़बड़ मचाई थी। उन्हीं महानुभावों में से माननीय पूज्यवर कोठारी सुजानसिंह जी साहिब सौभाग्यवश यहां पर उपस्थित हैं जिन्होंने स्वामी जी के कर कमलों से यज्ञोपवीत धारण कर गुरुमन्त्र उपदेशपूर्वक ग्रहण किया।

 

एक दिन स्वामी जी के बाल बनाने को एक नाई आया। वह वृद्ध था, स्वामी जी के बाल बहुत सख्त थे, उससे क्षौर नहीं बनाई गई। स्वामी जी ने स्वयं उस्तरा लेकर उससे कहा कि इस तरह बनाओं और स्वयं ही दाड़ी मूछों को साफ कर लिया।

 

एक दिन एक सर्प डेरे के पास इमली के वृक्ष के ऊपर दिखाई दिया। उस पर स्वामी जी ने तान-तान कर पत्थर फेंके किन्तु वह नीचे नहीं गिरा, न मालूम ऊपर ही गायब हो गया।

 

जीवन सम्बन्धी घटनायें तो बहुत हैं। बहुत वर्षों की बात होने से याद न होने के कारण कुछ एक घटनाओं का वर्णन आप लोगों के समक्ष किया गया है।

 

जब स्वामी जी मसूदे में थे। उन दिनों राव साहिब मसूदा, पं. छगनलाल जी का पत्रव्यवहार श्री मान् राजाधिराज शाहपुराधीश से स्वामी जी के शाहपुरा पधारने के विषय में हो रहा था। अन्त में शाहपुरे में पधारना निश्चित हो गया और वहां पधार गये। स्वामी जी को मसूदाधीश ने सरोपा व नगद रुपये भेंट किये। स्वामी जी ने रुपये तो वहां पर ही जमा करा दिये जिसके विषय में कोठारी जी व साहिब सुजानसिंह जी अच्छी तरह से वाकिफ हैं।

 

स्वामी जी ने एक प्रमाण पत्र पं. छगनलाल जी को दिया जिसकी नकल मेरे पास है। मैंने स्वामी सत्यानन्द जी को दी और स्वामी श्रद्धानन्द जी को भी दी थी, वह छप भी गई है।’

 

ऐसा अनुमान होता है कि मसूदा के बाद पं. नथमल तिवाड़ी स्वामी जी के साथ नहीं रहे। जीवन के अपने अन्तिम समय में स्वामी जी शाहपुरा से जोधपुर गये जहां उन्होंने साढ़े चार मास प्रवास किया। इसी अवधि के अन्तिम दिनों में उनको वहां विष दिया गया और उपचार भी यथोचित नहीं हुआ/किया व कराया गया। मृत्यु से कुछ दिन पूर्व स्वामी जी जोधपुर से आबू पर्वत व अजमेर लाया गया। श्री पं. नथमल जी तिवाड़ी जी ने मसूदा के वृतान्त के बाद अजमेर में ऋषि दयानन्द के अन्तिम दिनों का वृतान्त भी लेखबद्ध किया है। अजमेर का यह वृतान्त हम कल अन्तिम किश्त के रुप में प्रस्तुत करेंगे। हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख में प्रस्तुत तथ्यों को उपयोगी पायेंगे। इति शम्।

 

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