साहस ने मुखर बनाया महिला को

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-अनिल अनूप

महिलाओं के प्रति हिंसा के कई कारण हैं। एक तो महिलाएं मुखर हुई हैं, भली औरत के तमगे से खुद को आज़ाद किया और बुरी औरत कहलाने का साहस जुटा लिया। उसने सामाजिक निंदा और आरोपों की परवाह करना बंद कर दिया। उसने अपने को पहचाना, उसके भीतर अपनी पहचान की छटपटाहट आई और उसने चुनौतियां स्वीकार कीं। अपने दम पर आगे बढ़ीं। उन्होंने रूढ़ियों से विद्रोह किया और ख़तरे उठाए। उनकी प्रगति, उनका बेखौफपन पितृसत्तात्मक व्यवस्था को कैसे पसंद आएगा। अब तक महिलाएं उनकी उपनिवेश थीं, जिन पर वे राज करते थे। उनके बिना महिलाएं एक कदम आगे नहीं बढ़ा सकती थीं। अब वो कठपुतलियां नहीं रहीं। हर क्षेत्र में अपनी धमक बनाई है। वे शिक्षित हुईं और आर्थिक ताकत हासिल की।
एक बड़ा शासक वर्ग विचलित हुआ। उसके हाथ से सत्ता खिसकने लगी। अचानक चंगुल से गुलाम छिटकने लगे। वे अपना निर्णय खुद लेने लगीं, खुद मुख्तार हो गईं। इससे हलचल तो मचेगी ही। महिलाओं पर घरेलू हिंसा बढ़ी, दफ्तरों में कमतर बता-बता कर मानसिक हिंसा होने लगी। ऑनर किलिंग हुई। इसे खत्म करने के दो ही उपाय कि औरतें आर्थिक रूप से आज़ाद हों और हर तरह की हिंसा के खिलाफ आवाज़ बुलंद करें चाहे इसके लिए उन्हें कंफर्ट ज़ोन से क्यों न बाहर आना पड़े। बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता…ये ध्यान रहे।

आज महिलाएं हर क्षेत्र में आगे हैं। जितनी आजादी उन्हें आज है, वैसी पहले नहीं थी। वर्तमान समय में महिलाओं की स्थिति में काफी बदलाव आए हैं, लेकिन ये बदलाव शहरी क्षेत्रों में ही दिखते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में इन बदलावों की गूंज सुनाई नहीं देती। कितने ही महिला दिवस आए और चले गये, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं इससे बेखबर आज भी पितृसत्तात्मक सोच और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बोझ तले दबकर जीवन व्यतीत कर रही हैं।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस किसी विशेष वर्ग के लिए नहीं, बल्कि सभी क्षेत्र की महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई और उनके आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिवेश को सुदृढ़ बनाए रखने और उन महिलाओं को याद करने का दिन है, जिन्होंने महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए अथक प्रयास किए। लेकिन आज यह दिवस अपने मूल स्वरूप से भटक गया है। यह सिर्फ शहरी क्षेत्रों तक सीमित रह गया है। ग्रामीण क्षेत्रों से इसका कोई वास्ता नजर नहीं आता।
महिला दिवस पर भी सभी उस भारतीय ग्रामीण महिला को भूल जाते हैं, जो परिवारों की रौनक तो है, लेकिन रोने को मजबूर है। कोई भी दिवस आए और चला जाए, इससे बेखबर ग्रामीण महिलाएं अपने जाग्रत जीवन का एक तिहाई हिस्सा पानी लाने, ईंधन और चारा इकट्ठा करने में ही लगी रहती हैं ।
ग्रामीण महिलाओं की स्थिति
भारत अपने अस्तित्व काल से ही कृषि प्रधान देश रहा है। यहां जिस तरह पुरुषों और महिलाओं के बीच श्रम का विकेन्द्रीकरण किया गया है, उसके चलते महिलाओं के जिम्मे जो कार्य है, वह पुरुषों के मुकाबले कहीं अधिक हैं। गांवों में महिलाएं सुबह आटा पीसने से लेकर रात में बचे हुए खाने का निवाला खाने तक हाड़तोड़ मेहनत कर रही हैं। दिनभर खेत में खपती हैं, पानी के लिए पैदल चलती हैं, घास काटती हैं, खाना बनाने और बच्चो को पालने से लेकर घर का सारा काम उनकी महत्वपूर्ण भूमिकाओं में से है। इसके साथ-साथ वे कृषि क्षेत्र में भी पुरुषों से अधिक भागीदारी कर बहुआयामी‌ भूमिकाएं निभा रही हैं| फिर भी ग्रामीण समाज की महिलाएं दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में जीवन निर्वाह कर रही हैं।
शिक्षा का अभाव
शिक्षा के अभाव के कारण महिलाओं को शोषण का शिकार होना पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में 53 प्रतिशत से अधिक लड़कियों की शादी 18 साल से पहले हो जाती है। गांव में महिलाओं को शिक्षा का पात्र नहीं समझा जाता। लड़कियों को स्कूल भेजने के पीछे यही सोच है कि लड़कियां पढ़ कर क्या करेंगी, उन्हें आखिर में चूल्हा ही तो संभालना है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में तीन में से दो प्रसव घर में ही होते हैं और तो और प्रत्येक वर्ष एक करोड़ 20 लाख लड़कियां जन्म लेती हैं, जिसमें से 30 प्रतिशत तो 15 वर्ष से पूर्व ही मर जाती हैं। यहीं नहीं, ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियों में बड़े पैमाने पर एनीमिया, कुपोषण, स्वच्छता , खुले में शौच जैसी समस्याएं होती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में मातृत्व मृत्यु दर लगभग 212 प्रति लाख पहुंच चुकी है। भारत गांवों का देश है आज भी भारत देश में 70% आबादी गांव में रहती है इसलिए ग्रामीण विकास देश की अर्थव्यवस्था में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। शहरों का विकास तो तेजी से हो रहा है लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में विकास नहीं हो रहा, जिससे ग्रामीण महिलाएं विकास की दौड़ में काफी पीछे हैं| ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं के अधिकारों का हनन हो रहा है।
अधिकारों का हनन
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में महिला किसानों की संख्या 14 प्रतिशत है, जबकि विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के आंकड़े बताते हैं कि कृषि क्षेत्र में कुल श्रम की 60 से 80 फ़ीसदी तक हिस्सेदारी महिलाओं की है। वर्ष 2015-2016 की कृषि गणना में कुल 14 .57 करोड़ कृषकों में से महिला कृषकों की संख्या 2.02 करोड़ बताई गई है, लेकिन यह आंकड़े देश में महिलाओं के कृषि क्षेत्र में सहभागिता को सही नहीं दर्शाते। दरअसल, महिलाओं की भागीदारी पुरुषों की अपेक्षा कहीं ज्यादा है, फिर भी उनका प्रतिशत पुरुषों की अपेक्षा कम आंका जा रहा है, जो महिलाओं के अधिकारों का हनन है। भारत में लाखों ग्रामीण महिलाएं खेतों पर मजदूरी करती हैं, लेकिन जब भूमि के स्वामित्व की बात आती है तो खेत के मालिक के रूप में उनका नाम नहीं लिखा जाता, जिससे आंकड़ों की गिनती में महिलाओं का ग्राफ कम रह जाता है। महिलाओं के अधिकार, उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, सम्मान, समानता, समाज में स्थान की जब भी बात होती है तो कुछ आंकड़ों को आधार बनाकर निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश की जाती है। महिलाओं के लिए समानता के दावे किए जाते हैं, लेकिन समानता की बात तो दूर, यह आधी आबादी आज तक अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित है।

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