समाज, प्रकृति और विज्ञान

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समाज का प्रकृति एजेण्डा जगाती एक पुस्तक
समीक्षक: अरुण तिवारी

 

पुस्तक का नाम: समाज, प्रकृति और विज्ञान
लेखक: श्री विजयदत्त श्रीधर, श्री राजेन्द्र हरदेनिया, श्री कृष्ण गोपाल व्यास, डाॅ. कपूरमल जैन, श्री चण्डी प्रसाद भट्ट
संपादक: श्री राजेन्द्र हरदेनिया
प्रकाशक: माधवराव सप्रे स्मृति समाचारप संग्रहालय, एवम् शोध संस्थान, माधवराव सप्रे मार्ग (मेन रोड नंबर तीन), भोपाल (म.प्र.) – 462003
संपर्क
फोन: 0755-2763406 / 4272590,
ई मेल: editor.anchalikpatrakar@ gmail.com

 

पुस्तक समीक्षा

 

’’समाज, प्रकृति और विज्ञान’ – यह पुस्तक एक ओर भारतीय खेती-किसानी और पर्यावरण के संबंध में कई कालखण्डों की जानकारी से परिपूर्ण है, तो दूसरी ओर अपेक्षाओं से भरी है।

 

”हमारी सोच की दरिद्रता यह है कि हम सब कामों के लिए सरकार का मुंह जोहते हैं। सबकी जवाबदारी सरकार की ही मानते हैं। यह भूल जाते हैं कि लोकतंत्र में लोक ही असली नियामक है। यह प्रकृति भी समाज की साझा सम्पदा है; बल्कि थाती है, अमानत है उन पीढ़ियों की, जिन्हे अभी पैदा होना है। समाज का ही इन पर अधिकार है और इसलिए समाज की ही जवाबदारी इन्हे बचाने की है।”

 

”जागो, उठो और अपनी धरती को बचाने में जुट जाओ, जिससे यह आने वाली पीढ़ियों के रहने लायक बनी रहे।”

 

उक्त कथनों के साथ प्रकाशक परिवार ने पुस्तक प्रकाशन का अपना मंतव्य और अपेक्षा…दोनो ही शुरु में ही स्पष्ट कर दी है। सराहनीय है कि पुस्तक का कोई मूल्य नहीं रखकर प्रकाशक ने मंतव्य पूर्ति में पहले खुद योगदान दिया है और इसके बाद दूसरों से अपेक्षा की है। प्रकाशक ने पाठकों से निवेदन किया है कि वे पुस्तक में दर्ज विचारों की उजास से प्रकाशमान होने का अवसर औरों को भी देंगे।

 

दर्ज निवेदन इस प्रकार है : ”पाठकों से आग्रह है कि इस पुस्तक को पढ़ने के उपरान्त किसी मित्र को पढ़ने के लिए दे दें। फिर वे भी ऐसा ही करें। इस प्रकार पठन-पाठन की श्रृंखला बनाएं। विचारों से ज्योति से ज्योति जलाएं। इसी से कर्म की दीपमाला भी ज्योतिर्मय होगी।”

 

अच्छा है कि किसी लंबी-चौड़ी भूमिका अथवा माननीयों के शुभकामना संदेशों में पन्ने बर्बाद करने की बजाय, पुस्तक सीधे एक पेजी अ’पनी बात’ से शुरु होती है। पुस्तक में कुल पांच लेख हैं। ‘आओ, बनाएं पानीदार समाज’ – प्रथम लेख है और ‘अस्तित्व के आधार वन’ – अंतिम लेख। ‘रसायनों से मारी, खेती हमारी’, ‘बिन पानी सब सून’ और ‘धरती का बुखार’ –   शाीर्षकयुक्त तीन अन्य लेख काफी ज्ञानवर्धक और बुनियादी समझ से ओत-प्रोत हैं, किंतु अत्यंत लंबे होने के कारण पाठकों के धीरज की परीक्षा लेने वाले भी हैं। उपशीर्षक देकर पठन-पाठन को थोड़ा आसान की कोशिश अवश्य की गई है; लेकिन बेहतर होता कि इन्हे कई उपलेखों में बांटकर प्रस्तुत किया जाता। बिन पानी सब सून – लेख में पानीदार नायकों की प्रेरक कथाएं हैं। उनकी तथा उनके काम की तस्वीरें शामिल की जातीं, तो इस लेख का दृष्टि प्रभाव कुछ और बढ़ जाता। इस पुस्तक की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इस तथ्य को रेखांकित करने में पूरी तरह सफल है कि जब समाज का प्रकृति एजेण्डा प्रकृति के अनुकूल था, प्रकृति मानव के अनुकूल बनी रही; ज्यों-ज्यों समाज का प्रकृति एजेण्डा प्रकृति के प्रतिकूल होता गया, प्रकृति मानव के प्रतिकूल होती गई।

 

पहले लेख के लेखक – श्री विजयदत्त श्रीधर, सप्रे संग्रहालय के संस्थापक तथा काफी सम्मानित शोधकर्ता व लेखक हैं। लेख से लगता है कि अनमोल प्राकतिक संपदा की हो रही बर्बादी के प्रति राज, समाज, संत और विज्ञानियों की बेरुखी और कंपनियों के स्वार्थपरक रवैये को लेकर श्री धर बेहद गुस्सा हैं।

 

वह लिखते हैं – ” …..यह तमाम बरबादियों देखते हुए भी क़ानून मौन है ! संवैधानिक संस्थाएं मौन हैं !! धर्म और अध्यात्म के श्रेष्ठिजन मौन हैं !!! जनता भी हाथ पर हाथ धरे अपनी अनमोल संपदा को लुटते हुए देख रही है !!!! आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की तो चिंता से ही ये गंभीर प्रश्न गायब है; क्योंकि उसका एजेण्डा तो मल्टीनेशनल कंपनियां तय करती हैं।”

 

लेख का सबसे सकारात्मक पहलू यह है कि लेख में यह बताने की तथ्यात्मक कोशिश की गई है कि विज्ञान लेखन की शैली सिर्फ लंबे-चैड़े और जटिल समीकरण नहीं, बल्कि सरल दोहे, श्लोक तथा कविता भी हो सकती है।

 

”भाद्रपद कृष्ण चतुर्दश्यां यावदाक्रमते जलम्। 
तवाद् गर्भ विजानीयात् तदूध्र्य तीरमुच्यते। 
सर्ध हस्तशतं् गंगातीरमिति स्मृतम्। 
तीरागव्यूतिमात्रं च परितः क्षेत्र मुच्यते। 
तीरक्षेत्रामिदं प्रोक्तं सर्वपाप विवर्जितम।।”

 

वृहद धर्मपुराण में ऋषि मनीषा का यह एक कथन, गंगा भूभाग का सारा  वैज्ञानिक गणित खोलकर सामने रख देता है। इसका मतलब है – ’”भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी को जितनी दूर तक गंगा का फैलाव रहता है, उतनी दूर तक दोनो तटों का भू-भाग ’गर्भ’ है। उसके बाद 150 हाथ की दूरी का भू-भाग ’तीर’ है। तीर से एक गव्यूति यानी दो हज़ार धनुष अर्थात लगभग एक कोस की दूरी तक का भू-भाग ’क्षेत्र’ कहलाता है। इतने विस्तार क्षेत्र में पापकर्म निषेध है।’

श्री धर ने अनेक उक्तियों, कहावतों, संदर्भों को पेश कर यह संदेश देने की कोशिश की है कि यदि समाज को विज्ञानचेता बनाना है, तो यह, काम उसकी लोकभाषा और बोलियों में किया जाना चाहिए।

 

दूसरा लेख, खेती पर आधारित है। इसके लेखक – श्री राजेन्द्र हरदेनिया, मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले के रहने वाले पत्रकार व किसान है; खुद खेती करते हैं। श्री हरदेनिया का लेख इस बात का प्रमाण है कि किसी अध्येता की तुलना में उस काम को खुद करने वाला एक प्रेक्टिसनर अधिक गहरा ज्ञानी होता है।

 

लेख बताता है कि पूरे परिवार की स्वाभिमानपूर्वक उदर पोषण करने की क्षमता के कारण खेती को उत्तम माना जाता था। जिस कालखण्ड में यह कहा गया, उस समय खेती के लिए ज़मीन, बैल, बखर, हल, बीज और खाद जैसी ज़रूरी सभी चीजें किसान के सीधे स्वामित्व या नियंत्रण में थीं। इस तरह खेती को उत्तम मानने का एक कारण, किसान की आत्मनिर्भरता तथा कुछ हद तक स्वायतत्ता का होना भी था। खेती की परम्परागत प्रणालियों, मौसम की राजी-नाराजी के बीच सूखी खेती करने के कौशल, खेत की उपजाऊ शक्ति तथा शुद्धि बरकरार रखने की सावधानियों से लेकर बीज संरक्षित करने के परम्परागत हुनर तक का वर्णन करते हुए लेख पाठकों को उस मुकाम पर भी ले जाता है, जहां पहुंचकर भारतीय कृषि जगत में खेतिहर की आत्मनिर्भरता तथा स्वायतत्ता नष्ट होनी शुरु हुई। लेख, हरित क्रांति के प्रयोग का बेहद ज़मीनी आकलन प्रस्तुत करता है।

 

लेख बताता है कि विदेशी मूल के बीजों तथा रासायनिक खेती का स्वाद चखकर खेती की हमारी ज़मीनें कैसे-कैसे नसेड़ी बनी। लेखक ने प्रथम हरित क्रांति के साथ-साथ जीन में संशोधन वाले जी एम बीजों के रास्ते घुसपैठ में लगी दूसरी हरित क्रांति के खतरों का ब्यौरा काफी विस्तार से प्रस्तुत किया है। परम्परागत बीजों का संरक्षण, घड़े से टपक सिंचाई, जैविक खेती, ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती को समाधान के रूप में पेश करते हुए लेख के अंत में 37 ऐसे बिंदु दिए गये हैं, जिन पर किसान से लेकर सरकार तक सभी संबंधित वर्गों को विचार करने की आवश्यकता है। यह लेख, भारतीय कृषि में आये बिगाड़ को समझाने के लिए काफी है।

 

तीसरे लेख के लेखक – श्री कृष्ण गोपाल व्यास का नाम हिंदी पट्टी के पानी कार्यकर्ताओं के लिए अपरिचित नहीं है। मध्य प्रदेश शासन के ‘पानी रोको अभियान’ की अवधारणा को विकसित करने का श्रेय श्री व्यास जी को ही है। एक गहरी समझ वाले जलविज्ञानी के रूप में भी श्री व्यास जी की ख्याति है।

 

श्री व्यास जी के लेख का शीर्षक ‘बिन पानी सब सून’ अवश्य है, किंतु यह लेख पानी की महत्ता बताने का काम कम,’का चुप साध रहेहु बलवाना…’ की तर्ज पर भारतीय समाज को उसकी शक्ति बताने का दायित्व अधिक निभाता है। सर्वश्री अनुपम मिश्र, अन्ना हजारे, जलपुरुष राजेन्द्र सिंह, सुंदरलाल बहुगुणा, चण्डीप्रसाद भट्ट, बलबीर सिंह सींचेवाला के अलावा अरवरी संसद, किसान बासप्पा की एकला चलो, छत्तीसगढ़ की शिवनाथ नदी संघर्ष तथा कोका कोला को लेकर पेरूमेट्टी की प्रेरक पानी दास्तानें इस लेख में शामिल की गई है।

 

नीर से नारी का रिश्ता अधिक संवेदनशील, गहरा तथा दायित्वपूर्ण होता है। नर्मदा बचाओ आंदोलन में अपने जीवन के ज्यादातर वर्ष लगा चुकी मेधा पाटकर से लेकर हिमालय की मंदाकिनी घाटी में विस्फोट करने वाली परियोजनाओं को चुनौती देने वाली सुशीला भण्डारी, अपने जल संरक्षण के काम से 40 गांवों का भूगोल बदल देने वाली गुजरात की देबु बहन तथा कभी बागियों की दहाड़ों के लिए मशहूर करौली जिले में डांग का पानी लौटाने की हिम्मत जुटाने वाली छोटी, दरबी और नर्मदा जैसी कई बहनों की दास्तानें आज भी इसकी गवाह हैं। किंतु न मालूम क्यों, लेखक ने पानी की इन नायिकाओं को लेकर चुप्पी साधना बेहतर समझा ? पानी के लिए जीवन लगाने वाली एक भी नारी की दास्तान इस लेख में शामिल नहीं है। भारत के वनान्दोलनों की चर्चा करते हुए विश्नोई समाज की अमृता देवी तथा उनकी तीन पुत्रियों, चिपको आंदोलन में रेणी, गोपेश्वर तथा डूंगरी-पायटोली गांवों की माहिलाओं का मामूली जिक्र जरूर है, लेकिन यह भी लेख में आधी आबादी की महत्ता और हिस्सेदारी के अनुपात में उसकी भरपाई नहीं करता।

 

एक समीक्षक की भूमिका में यह लिखना मेरी मज़बूरी है कि पानी, नदी, जंगल के संवार-बिगाड़ के ज्ञान-विज्ञान से लेकर इनसे जुडे़ प्रेरक सामाजिक प्रयासों जैसे भिन्न पहलुओं को एक ही लेख में पिरो लेने के प्रयास में श्री व्यास जी का लेख कई मोड़ों पर अपना प्रवाह खो बैठा है। लेख, उजली संभावनाओं के ऊषाकाल के लिए प्रेरित करते-करते अचानक सर्वेक्षण और समाज के बीच चर्चा के ज़रूरी बिंदुओं की चर्चा ले बैठता है। ऐसा लगता है कि श्री व्यास जी का यह लेख उनके कई अलग-अलग लेखों को जोड़कर बनाया गया है।

 

चौथे लेख के लेखक डाॅ. कपूरमल जैन जी – भौतिकी के उत्कृष्ट प्राध्यापक होने के साथ-साथ विज्ञान के सामाजिक सरोकारों को गहरे से समझने वाले लेखक भी हैं। ‘धरती का बुखार’ शीर्षकयुक्त चैथा लेख लंबा अवश्य है, लेकिन यह वैश्विक स्तर आज सबसे बड़ी चुनौती के रूप में पेश किए जा रहे वायुमण्डलीय तापमान वृद्धि के अनेक पहलुओं पर व्यापक दृष्टि के साथ प्रस्तुत किया गया है।

 

लेख याद दिलाता है कि ध्वनि और गंध भी पृथ्वी के पर्यावरण का हिस्सा हैं। लेख में सूर्य में मौजूद गतिमान आवेशित कण की गति, सौर चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र तथा अन्य गतिविधियों पर सूर्य के ताप का प्रभाव को काफी सरलता से समझाया गया है। बताया गया है कि कैसे एक ग्रीन हाउस बने रहते हुए ही पृथ्वी पर जीवन संभव है। जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र के विकास से लेकर ग्लोबल वार्मिंग के इतिहास कोे क्रमबद्ध तरीके से रखते हुए लेखक ने यह भी स्पष्ट किया है कि वैज्ञानिक व तकनीकी अविष्कारों के अलावा भिन्न कालखण्डों में उभरी भिन्न आर्थिक दृष्टियों ने ग्लोबल वार्मिंग की रफ्तार को कैसे बढ़ाया। ओज़ोन परत में छिद्र से लेकर प्रदूषण के पहलुओं के भावी दुष्परिणामों को संक्षेप में रखते हुए लेखक ने समाधान की दशा, दिशा तथा उसमें युवा व मीडिया समेत भिन्न वर्गों की भूमिका सुझाई है; साथ ही सचेत किया है कि सिर्फ जानकारियों से समाधान हासिल नहीं होगा; समाधान हासिल करने के लिए मानसकिता बदलनी होगी और संकल्प साधना होगा।

 

पांचवें लेख का शीर्षक – ‘जीवन का आधार वन’ है। इसके लेखक श्री चण्डी प्रसाद भट्ट जी का नाम ही उनका परिचय है। प्रस्तुत लेख उनके अनुभवों के संकलन जैसा है। बकौल श्री भट्ट जी, गोपेश्वर नगर के तेजी से होते विस्तार के बावजूद ’बंज्याणी’ के अस्तित्व को बचा पाने का श्रेय लोक वन प्रबंधन तथा लोक परम्पराओं को देते हैं। ‘बंज्याणी’ यानी बांज का जंगल। वन संरक्षण के उत्तम कार्य के लिए वह मेघालय-मणिपुर की देव वन परम्परा, उत्तराखण्ड की वन पंचायतों, ओडिशा राज्य की वन सुरक्षा समितियों तथा महाराष्ट्र के ज़िला गढ़ चिरौली के वृक्ष मित्रों को याद करना नहीं भूलते।

 

लेख स्पष्ट करता है कि वनवासी नहीं, बल्कि वन नियंत्रण के लिए वर्ष 1865 में बने वन क़ानून, कालांतर में औद्योगीकरण तथा वन के प्रति व्यावसायिक दृष्टि ने भारत के जंगलों को बरबाद किया। लेखक का सुझाव है कि जिनके अस्तित्व का आधार ही वन हैं, उन्हे वनहितैषी तथा संरक्षक मानना चाहिए। इस दृष्टिकोण को आगे रखकर जंगल बचाने के कई उदाहरण भारत में मौजूद हैं। अतः जरूरी है कि वन प्रबंधन तथा वनाधिकारियों के दृष्टिकोण में मौलिक बदलाव किया जाये।

 

पुस्तक के अंत में लेखकों की तसवीरें, परिचय तथा संपर्क जानकारी दी गई है। पुस्तक का प्रकाशन जिस मन से किया गया है, इसे पुस्तक न कहकर, सप्रे संगहालय द्वारा पर्यावरण तथा मानव मानस शुद्धि के किया गया पंच समिधा हवन कहूं, तो अनुचित न होगा।

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