सांप्रदायिक सद्भाव में ‘पलीता’ लगाने के प्रयास ?

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gadhiतनवीर जाफ़री
भारतवर्ष में जहां आए दिन अल्पसंख्यकों तथा दलितों के साथ होने वाले अन्याय की ख़बरें कहीं न कहीं से आती रहती हैं वहीं इसी देश में अनेक ख़बरें ऐसी भी प्राप्त होती रहती हैं जिन्हें सुनकर यह विश्वास होता है कि सांप्रदायिक शक्तियां चाहे कितनी भी कोशिशें क्यों न कर लें परंतु चूंकि भारतवर्ष की बुनियाद रामानंदाचार्य,नानक,कबीर,रहीम,रसखान,जायसी,बुल्लेशाह,अमीर ख़ुसरू,बाबा फ़रीद जैसे अनेक मानवतावादी संतों व फ़क़ीरों के आशीर्वाद पर टिकी है इसलिए किसी भी संप्रदाय की कट्टरपंथी ताकतों के सभी प्रयासों व हथकंडों के बावजूद हमारे देश का सर्वधर्म संभाव व धर्मनिरपेक्षता पर आधारित ढांचा कभी भी डगमगा नहीं सकता। ऐसा भी नहीं है कि हमारे देश में केवल बहुसंख्य हिंदू समाज से संबंध रखने वाली कट्टरपंथी हिंदुवादी शक्तियों के द्वारा ही ऐसी तीखी अथवा फ़ायरब्रांड बातें की जाती हों जो सांप्रदायिक एकता के लिए खतरा हों बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय से संबंध रखने वाले लोग भी शरिया अथवा मज़हबी क़ानून या क़ुरान शरीफ़ के हवाले से कुछ ऐसी दलीलें पेश करने लगते हैं जो सांप्रदायिक एकता को चोट पहुंचाने का काम करती हंै।
मिसाल के तौर पर पिछले दिनों अयोध्या के हनुमानगढ़ी में स्थित 17वीं शताब्दी में बनाई गई आलमगीरी मस्जिद की मुरम्मत को लेकर उठा विवाद सामने आया। माना जाता है कि हनुमानगढ़ी में औरंगज़ेब के एक सेनापति ने इस मस्जिद का निर्माण करवाया था। औरेंगज़ेब ने हनुमानगढ़ी के लिए ज़मीन तथा धन भी उपलब्ध कराया था। औरेंगज़ेब ने ही हनुमानगढ़ी के पुजारियों को यह फरमान भी जारी किया था कि वे आरती पूजा के बाद भगवान से यह प्रार्थना किया करें कि हमेशा आलमगीर की हुकूमत कायम रहे। औरंगज़ेब द्वारा हनुमानगढ़ी में मंदिर निर्माण के लिए ज़मीन व संपत्ति का दिया जाना तथा मंदिर के पुजारियों से उसकी हुकूमत के लिए दुआ करने का फरमान जारी किया जाना आिखर हमें क्या संदेश देता है? भले ही औरंगज़ेब को कट्टरपंथी,क्रूर, हिंदुओं व शिया समुदाय के लोगों का दुश्मन क्यों न कहा जाता हो पंरतु औरंगज़ेब के जीवन से जुड़ी इस प्रकार की कई बातें ऐसी हैं जिनसे यह पता चलता है कि व्यक्तिगत् रूप से भले ही वह कट्टरपंथी विचारों वाला व्यक्ति क्यों न रहा हो परंतु एक शासक के नाते वह अन्य धर्मों के धर्मस्थलों व उनकी धार्मिक भावनाओं का आदर भी करता था।
संतोष का विषय है कि आज जिस अयोध्या से जुड़ा बाबरी-रामजन्मभूमि विवाद पूरे देश के हिंदू-मुस्लिम समुदाय के मध्य एक बड़ी विभाजन रेखा खींचने का काम कर रहा है या यूं कहें कि इस विवाद के नाम पर सत्ता के खिलाड़ी अपनी राजनैतिक रोटियां बखूबी सेंक रहे हैंं उसी हनुमानगढ़ी के प्रमुख महंत ज्ञानदास हिंदू-मुस्लिम एकता बनाए रखने की पुरज़ोर कोशिशों में लगे रहते हें। गौरतलब है कि हनुमानगढ़ी देश के हिंदू साधू समाज के सबसे मज़बूत नागा संप्रदाय की छावनी है। महंत ज्ञानदास इसी हनुमानगढ़ी के प्रमुख हैं। वे हिंदू-मुस्लिम एकता कायम रखने के लिए हनुमानगढ़ी में मुसलमानों को रोज़ा-अफ्तार किए जाने की दावत भी दे चुके हैं। खबरों के मुताबिक अब महंत ज्ञानदास ने ही 17वीं शताब्दी की उसी आलमगीरी मस्जिद की जर्जर इमारत की मरम्मत कराने का निर्णय लिया है जो मुगल शासक औरंगज़ेब के समय में उसके किसी सेनापति द्वारा बनवाई गई थी। महंत ज्ञानदास की इस सद्भावना पूर्ण कोशिश में पलीता लगाने का काम किसी कट्टरपंथी हिंदूवादी व्यक्ति द्वारा नहीं बल्कि बाबरी मस्जिद मामले से जुड़े एक मुस्लिम नेता द्वारा किया जा रहा है। धर्म के इस स्वयंभू ठेकेदार का यह कहना है कि-‘शरीयत के अनुसार मस्जिद के निर्माण व मुरम्मत में किसी गैर मुस्लिम समाज से संबंध रखने वाले व्यक्ति का पैसा नहीं लग सकता है। अत: महंत ज्ञानदास जो कर रहे हैं वह उचित नहीं है। हालांकि बाबरी मस्जिद के पक्षकार द्वारा यह बयान आलमगीरी मस्जिद,वक्फ बोर्ड तथा हनुमानगढ़ी के मध्य चले आ रहे ज़मीनी विवाद के संदर्भ में दिया गया है। परंतु इस मामले में महंत ज्ञानदास की भावनाओं का निरादर नहीं किया जा सकता। जहां तक मस्जिद में किसी गैर मुस्लिम का पैसा न लगाए जाने का प्रश्न है तो भारतवर्ष में रहते हुए यदि हम इस प्रकार के विषयों में शरिया के निर्देशों पर अमल करने की कोशिश करेंगे तो हमें यही दिखाई देगा कि शरिया के ऐसे पक्षकारों द्वारा दोहरा मापदंड ही अपनाया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर भारत सरकार द्वारा हज यात्रियों को सब्सिडी दी जाती है। सब्सिडी का यह पैसा आिखर कहां से आता है? यह भारतवर्ष के नागरिकों के ख़ून-पसीने की कमाई व उन्हीं के द्वारा दिए गए टैक्स का पैसा है . जब आप इन पैसों को नमाज़ के बराबर समझी जाने वाली इस्लामी अनिवार्यता अर्थात् हज में इस्तेमाल कर सकते हें तो यदि कोई हिंदू संत मस्जिद की मुरम्मत या निर्माण में अपना पैसा सद्भावना के प्रयासों के मद्देनज़र लगा रहा है तो उसका आदर किया जाना चाहिए न कि शरियत के दिशा निर्देश की दुहाई देते हुए सांप्रदायिक सद्भाव के प्रयासों में रोड़ा अटकाना चाहिए। देश के मदरसों को सरकारी अनुदान मिलता है। इसमें भी देश के अधिकांश बहुसंख्य हिन्दू समाज का पैसा शामिल है।
इसी प्रकार रमज़ान के महीने में देश के तमाम धर्मनिपेक्ष हिंदुओं व सिखों द्वारा कहीं मंदिर तो कहीं गुरुद्वारों में मुस्लिम समुदाय के लोगों को रोज़ा इफ्तार के लिए आमंत्रित किया जाता है। रोज़दार लोग उसी जगह रोज़ा अफ्तार भी करते हैं और नमाज़ भी अदा करते हें। मुंबई में गणेश उत्सव के पंडाल में मुसलमानों को नमाज़ अदा करते देखा गया है। जब यह सब मुमकिन है फिर किसी ग़ैर मुस्लिम के पैसे से मस्जिद निर्माण पर ही आपत्ति क्यों? उत्तर भारत खासतौर पर हरियाणा-पंजाब जैसे राज्यों में अनेक मुस्लिम पीरों-फकीरों की दरगाहें हैं। इनमें कई दरगाहों का पूरा का पूरा प्रबंधन हिंदू समुदाय के लोगों द्वारा ही किया जाता है। इन दरगाहों में जहां नात,कव्वालियां तथा हम्द आदि पढ़ी जाती हैं वहीं यहां आने-जाने वाले मुस्लिम दर्शनार्थी यहां नमाज़ भी पढ़ते हें। और लंगर-प्रसाद भी ग्रहण करते हैं। इन जगहों पर शायद मुस्लिम समाज के पांच प्रतिशत लोगों का पैसा भी न लगता हो। क्या ऐसे स्थानों पर नमाज़ जायज़ नहीं? यहां रहना,रोज़ा इफ्तार करना या गैर मुस्लिमों के साथ सद्भावनापूर्ण वातावरण में रहकर एक-दूसरे की धार्मिक भावनाओं का आदर-सत्कार करना गैर शरई है?
इसी प्रकार देश में अनेकानेक ऐसे उदाहरण सुनने को मिलेंगे जो हमारे देश की हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए अनूठी मिसाल पेश करते हों। पिछले दिनों एक रिपोर्ट से पता चला कि रमज़ान के महीने में देश के सैकड़ों हिंदुओं द्वारा बाक़ायदा रोज़ा रखा जाता है। हमारे देश में सैकड़ों मिसालें ऐसी मिलेंगी जिनसे पता चलता है कि हिंदू समाज के लोगों द्वारा मोहर्रम के महीने में अज़ादारी की जाती है, मजलिस-मातम किया जाता है तथा गम-ए-हुसैन मनाया जाता है। बरेली में एक प्राचीन लक्ष्मी नारायण मंदिर ऐसा है जिसके निर्माण हेतु एक मुस्लिम ज़मींदार ने धन व ज़मीन मुहैया कराई थी। आज उस मंदिर में देवी-देवताओं की मूर्तियों से भी ऊपर उस मुस्लिम ज़मींदार की फोटो लगी हुई है। हमारे देश में मदरसों में हिंदू छात्रों के पढऩें व हिंदू शिक्षकों के पढा़ए जाने की खबरें आती हैं। पिछले दिनों मेरठ के मौलाना महफूज़ुर रहमान उर्फ शाहीन जमाली का नाम सुिर्खयों में रहा। जहां किसी भी धर्म के कट्टरपंथी व अडिय़ल सोच रखने वाले लोग अपने धर्म से संबंधित धर्मग्रंथ के सिवा दूसरी कोई पुस्तक अथवा धर्मग्रंथ पढऩा या देखना ही नहीं चाहते वहीं दारूल-उलूम देवबंद से शिक्षा प्राप्त मौलाना शाहीन जमाली ने कुऱान के अतिरिक्त हिंदू धर्म के चारों वेदों का गहन अध्ययन भी किया। यहां तक कि उनको अब मौलाना चतुर्वेदी के नाम से शोहरत हासिल हो चुकी है।
मस्जिद में गैर मुस्लिम का पैसा लगने को गैर शरई बताने वाले लोगों को मौलाना चतुर्वेदी के इस कथन से सबक लेना चाहिए। मौलाना के अनुसार-‘लोग यह सोचते हैं कि अगर यह मौलाना है तो फिर चतुर्वेदी कैसे? मैं उनसे कहता हूं कि मौलान अगर चतुर्वेदी भी हो जाए तो उसकी शान घटती नहीं बल्कि और बढ़ जाती है। ’ आज देश को मौलाना चतुर्वेदी जैसी उन इस्लामपरस्तों की ज़रूरत है जो कट्टरपंथी व रूढ़ीवादी सोच को त्यागकर मंदिर-मस्जिद ईश्वर-अल्लाह को एक ही नज़र से देखें। मुसलमानों को इस बात के लिए गर्व होना चाहिए कि हिंदू समाज के लोगों द्वारा मस्जिद अथवा दरगाह के निर्माण पर पैसा खर्च किया जा रहा है। इसी प्रकार देश के सामथ्र्यवान मुसलमानों को भी हिंदू भाईयों के मंदिर निर्माण तथा अन्य धार्मिक कारगुज़ारियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना चाहिए। देश में किसी भी संप्रदाय के रूढ़ीवादियों द्वारा इस प्रकार की बातें कर देश के सांप्रदायिक सद्भाव में पलीता लगाने के प्रयास हरगिज़ नहीं किए जाने चाहिए।

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  1. बरेली स्थित प्राचीन लक्ष्मी नारायण मंदिर के निर्माण में सहायक मुस्लिम जमींदार धर्मार्थी की फोटो लगी है तो ठीक है लेकिन सांप्रदायिक सद्भाव में पलीता लगाते तथाकथित मुस्लिम नेता का मात्र वर्णन यहां अति सुन्दर निबंध के विषय के प्रतिकूल है। मैं तो लेख के शीर्षक को केवल “सांप्रदायिक सद्भाव” पढ़ते तनवीर जाफ़री जी को हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे पर उनके विचारों के लिए सहृदय साधुवाद कहूंगा। कट्टरपंथियों को न्याय व विधि व्यवस्था की निगरानी में उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए।

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