सनातन दर्शन में – ‘ प्रेम ‘

सबमे एक परमात्मा को तत्व रूप में विराजमान देखता है,सब भूतो को अपने विभिन्न अंगो की तरह देखता है वही यथार्थ देखता है ! सीया राम मय सब जग जाना ! हर रूप में ईश्वर दर्शन यही ज्ञान -भक्ति – प्रेम -योग है ! आत्मवत सर्वभूतेषु ,यही यथार्थ दर्शन है ,यही love is god है व यही प्रेम है ! व्यवहार में भिन्नता जैसा संसार में प्रचलित है वैसा हो सकता है जैसे माता -पिता , मित्र ,गुरु-शिष्य ,बहिन -भाई, पति-पत्नी,मालिक -सेवक , आदि-आदि के साथ जैसा संसार में मर्यादित है वैसा व्यवहार भिन्न हो सकता है, पर आंतरिक भाव सबके साथ एक आत्म – वत होता है ! और ये आत्मज्ञान हुवे बिना नही हो सकता ! आत्म ज्ञान प्राप्ति से पहले कोई स्वयं का नही होता किसी का क्या होगा ! 
————प्रायः कुछ घटनावो में कहते है कि फलां व्यक्ति प्रेम में अन्धा होकर कुछ अनिष्ट कर लिया , ये प्रेम नहीं काम है, मोह है, इसीलिए सुना होगा असफल होने पर कई विवेक खो देते है , आत्महत्या . हत्या तक कर देते है व तेजाब आदि डाल कर नुकसान पहुचातेे है !
———– लोग कहते है प्रेम अँधा होता है,ऐसा नहीं है प्रेम अँधा नहीं काम अन्धा होता है ! 
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
भावार्थ : विषयों का चिन्तन करने वाले की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है॥62॥
क्रोधाद्भरवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
भावार्थ : क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से वह अपनी स्थिति से गिर जाता है॥63॥ वह विक्षिप्त ,पागल हो जाता है ,फिर वह कामांध कुछ भी -हत्या ,आत्म हत्या व बलात कुछ भी अहित कर सकता है ! वास्तव में प्रेम -ज्ञान है विवेक है,वैराग्य है ,त्याग ,समर्पण है, शरणागति ,निःस्वार्थता है ,भक्ति है ,मिलन है ,आनंद है ! इसमे किसी का अहित नही होता ! इसे ही love is god कहा गया है ,भेद समाप्त हो जाता है ! .आत्मज्ञान हुवे बिना भेद समाप्त नहीं होता ! और जब तक मै और तू है तब तक ए समझिये ज्ञान [प्रेम ] से बहुत दूर है , तब तक विरह है ,व्याकुलता ,भय है ,संशय है ! भेद समाप्त अर्थात ज्ञान होने पर आनंद है .शांति है .फिर सर्वत्र मै ही मै हूँ ! . फिर सम्पुर्ण चराचर ,सभी भूतो को अपने विभीन्न अंगो की तरह देखता है . . सब आत्म- वत हो जाता है ! वास्तवमें ज्ञान होने पर ही हृदय में प्रेम उत्पन्न होता है ! 
अन्यथा- स्वारथ लागय करय सब प्रीति ,सुर नर मुनी सबके यही रीति —एक गाना है – मतलब निकल गया तो पहचानते नही सामने से गुजर जाते है जैसे जानते नही —
————वास्तविक प्रेम में भेद समाप्त हो जाता है –ये नक्श खयाली है , काबा हो के बुत खाना , मै तुझमे हूँ , तू मुझमे है ये जल्वये जाना ! जब सर को झुकाता हूँ,शीशा नजर आता है ! शाकी से मै कह दूंगा ये राज फ़कीराना —
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अहम् ब्रम्हास्मि ! अर्ताथ मै ब्रम्ह [ ईश्वर ] हूँ !

————ज्ञान सही है पर अधुरा है , ऐसा तो रावण , हिरणकश्यपु भी कहे है ! केवल मुझमे या तुझमे ईश्वर -ब्रम्ह-रब दीखना अहंकार है ,मोह है ,स्वार्थ है ,काम है !
—- ——-जिस दिन अपने सहित सबमे ईश्वर [ब्रम्ह ]अर्थात सर्वम ब्रम्ह का बोध हो जाय तब ज्ञान पूर्ण होगा ! जिस दिन सब में रब दिखने लगे तब ज्ञान पूर्ण होगा , तब वह मौन होगा ,शांत होगा संशय रहित आनंदित होगा ! यही प्रेम-ज्ञान-भक्ति है ,योग है– !-

योगेश शर्मा 

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