“सनातन वैदिक धर्म और इतर मत-मतान्तर”

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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हमारा वर्तमान संसार अथवा ब्रह्माण्ड 1.96 अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आया है। इससे पूर्व लगभग 52 लाख वर्षों में
परमात्मा ने ब्रह्माण्ड को प्रकृति नामक सूक्ष्म उपादान कारण से बनाया था।
प्रकृति जड़ पदार्थ है जिसमें सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था होती है। इस
साम्यावस्था को ईश्वर अपनी ईक्षण क्रिया व प्रेरणा से भंग कर प्रकृति को
क्रियाशील करके अपने विज्ञान से इससे पंचभौतिक दृश्यमान सूर्य, चन्द्र, पृथिवी
आदि से युक्त जगत की रचना करते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति के बाद वनस्पति और
प्राणी जगत की उत्पत्ति पूर्ण होने पर परमात्मा अमैथुनी सृष्टि कर मनुष्य आदि
प्राणियों की उत्पत्ति करते हैं। सृष्टि की आदि में सभी मनुष्य युवावस्था में उत्पन्न
होते हैं। इसका कारण यह है कि यदि परमात्मा इन्हे ंशिशु रूप में जन्म देता तो
इनके पालन के लिये माता-पिता की आवश्यकता होती जिन्हें युवावस्था में ही उत्पन्न करना होता और यदि अमैथुनी सृष्टि में
वृद्ध स्त्री-पुरुष उत्पन्न होते तो उनसे सन्तानोत्पत्ति के न होने से यह सृष्टि आगे नहीं चल सकती थी। अतः सृष्टि के आदि
काल में अमैथुनी सृष्टि का होना और उसमें युवा स्त्री पुरुषों का उत्पन्न होना ही तर्क एवं युक्तिसंगत है।
अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न इन मनुष्यों को ज्ञान की आवश्यकता होती है जिससे यह अपना जीवन सामान्यरूप से
सुखपूर्वक व्यतीत कर सकें। सृष्टि की आदि में ईश्वर ही एक मात्र ज्ञानवान सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वज्ञ, सर्वव्यापक व
सर्वशक्तिमान सत्ता होती है। ज्ञानवान सत्ता ही अज्ञान से युक्त मनुष्य आदि प्राणियों को ज्ञान दे सकती है। अतः सृष्टि के
आदिकाल में परमात्मा द्वारा मनुष्यों को ज्ञानवान करना ही एकमात्र विकल्प व सम्भव उपाय होता है। सबसे प्राचीन वैदिक
साहित्य में इसका विवरण उपलब्ध होता है जिसकी खोज करके व अपने विवेक के आधार पर ऋषि दयानन्द ने उसका अपने
ग्रन्थों में प्रकाश किया है। सिद्धान्त यह है कि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा अमैथुनी सृष्टि में स्त्री व पुरुषों सहित पांच
ऋषियों को भी जन्म देता है जिनके पूर्वकल्प के पूर्वजन्म के कर्म अत्यन्त सात्विक, पवित्र एवं उच्च कोटि के होते हैं। इन
पवित्रात्माओं के वैदिक साहित्य से विदित नाम अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा एवं ब्रह्मा होते हैं। परमात्मा अग्नि, वायु,
आदित्य एवं अंगिरा, इन चार ऋषियों को ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान उनकी आत्मा में स्पष्ट प्रेरणा करके
अपने सर्वान्तरर्यामी स्वरूप से देता है। इन ऋषियों को इस ज्ञान को ब्रह्मा जी नाम के पांचवें ऋषि को मौखिक बोलकर देने की
प्रेरणा भी प्राप्त होती है। यह उसका पालन करते हैं। इस प्रकार से सृष्टि के आदिकाल में ब्रह्मा जी चार वेदों के ज्ञान से अलंकृत
होते हैं। अन्य चार ऋषि भी अन्य वेदों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इन ऋषियों से वेदों के पठन-पाठन व प्रचार की प्रथा आरम्भ
होती है जिससे सृष्टि के आदि काल के सभी स्त्री व पुरुष कुछ काल बाद वेद ज्ञान से सम्पन्न हो जाते हैं। कुछ वर्ष बात ऋषियों
की अनुमति से अमैथुनी सृष्टि के स्त्री-पुरुष विवाह आदि कर सन्तानों के माध्यम से मातृत्व व पितृत्व को प्राप्त करते हैं। इस
प्रकार से सृष्टि का क्रम आगे बढ़ता है।
परमात्मा ने सृष्टि के आदि काल में चार ऋषियों को जो वेदों का ज्ञान दिया था वह समस्त ज्ञान बिना किसी परिवर्तन
के शुद्ध रूप में ऋषियों व विद्वानों द्वारा उस ज्ञान की रक्षा किये जाने के कारण वर्तमान समय में भी शुद्ध रूप में उपलब्ध
है। इस विषय का पूर्ण ज्ञान सम्बन्धित ग्रन्थों का अध्ययन कर प्राप्त किया जा सकता है। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक
है। इसमें ईश्वर, जीव व प्रकृति सहित सभी परा व अपरा विद्याओं का बीज रूप में वर्णन है। वेद ही परमात्मा द्वारा प्रदान
किये गये प्राचीनतम धर्मग्रन्थ है जिसके आधार पर सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक धर्म का पालन व आचरण किया

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जाता रहा। वेदों में सभी विद्याओं का ज्ञान होने के कारण ही महाभारत काल तक के 1.96 अरब वर्षों के काल खण्ड में वर्तमान
युग में उत्पन्न व प्रचारित अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों के समान कोई मत-पंथ-सम्प्रदाय उत्पन्न नहीं हो सका। ऋषियों व
वेदों के उच्च कोटि के विद्वानों की उपस्थिति में कोई अन्य मत-मतान्तर उत्पन्न भी नहीं हो सकता था। महाभारत के युद्ध
में हमारे अधिकांश योद्धा, ऋषि-मुनि एवं विद्वान मृत्यु व वीरगति को प्राप्त हुए। इस कारण विश्व में वेदों का प्रचार-प्रसार
नहीं हो सका। हमारे शिक्षा के केन्द्रों गुरुकुलों की व्यवस्था भी उचित रीति से जारी न रह सकी। इसका परिणाम यह हुआ कि
महाभारत के कुछ काल बाद लोग वेदों के सत्य अर्थों को भूलने लगे और अविद्या के प्रचलित होने से वेदों के मिथ्या अर्थ होने
लगे। विद्वानों में वेदों के अर्थों को लेकर विवाद होने लगा और इसके कारण वैदिक धर्म में कुछ विषयों में मत-भिन्नता होने
लगी। आगे चलकर यही मत-भिन्नता मत-मतान्तरों की उत्पत्ति का कारण बनी।
इस मत-भिन्नता के कारण ही यज्ञों में हिंसा का समय आया। गोमेध यज्ञ का अर्थ गायों की रक्षा व गायों की नस्लों में
सुधार था। उनके दुग्धादि की गुणवत्ता में सुधार व वृद्धि भी इसके अन्तर्गत आते थे। वेदों के सत्य अर्थों का बोध न होने के
कारण कालान्तर में गोमेध का अर्थ यज्ञों में गोमांस से आहुति देने के रूप में माना जाने लगा। इसी प्रकार से अश्वमेघ,
अजामेघ आदि यज्ञों में भी किया जाने लगा जिसका परिणाम महात्मा बुद्ध आदि अहिंसा के पुजारियों द्वारा हिंसा प्रधान
यज्ञों का विरोध हुआ और कालान्तर में अहिंसा को प्रधान मानकर बौद्ध मत का आविर्भाव हुआ। कालान्तर में मत-मतान्तरों
का विस्तार होता रहा जिससे जैन मत आदि अनेक मत उत्पन्न हुए और विदेशों में पारसी मत, ईसाई मत एवं इस्लाम मत एवं
इनके कुछ फिरकों का आविर्भाव हुआ। यह सभी मत अपने समय के कुछ धार्मिक ज्ञान रखने वाले ज्ञानियों ने आरम्भ किये
थे। यह लोग न ऋषि थे और न ही योगी। इनको वेदों के सत्यार्थ का बोध भी नहीं था। इन्होंने अपनी बौद्धिक क्षमता के
अनुसार निर्णय कर मतों का प्रचलन किया। उस समय इन मतों के संस्थापकों व प्रचारकों से बड़ा विद्वान न होने से उनके
निकटवर्ती लोग उनके अनुयायी बन गये और बाद में उनके अनुयायियों ने अपनी शक्ति व सामर्थ्य से उन मतों का संख्या की
दृष्टि से विस्तार किया। वर्तमान में इन सभी मतों का ही प्रभुत्व विश्व में देखने को मिलता है। वर्तमान समय में सत्य सनातन
ईश्वर प्रदत्त वैदिक मत गौण हो गया है और अविद्या से युक्त वेदेतर मत-मतान्तर अनुयायियों की संख्या के आधार पर मुख्य
हो गये हैं। वर्तमान में इन मतों की पुस्तकों का अध्ययन व समीक्षा की जाये तो इन सबमें अनेक मिथ्या व अविद्यायुक्त
कथन पाये जाते हैं। ऋषि दयानन्द ने महाभारत काल के बाद पहली बार इस कार्य को संगठित रूप से किया और सभी मतों की
मान्तयताओं में अविद्यायुक्त बातों की समीक्षा करके उसका निष्कर्ष अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत किया है।
सत्यार्थप्रकाश के अन्त के चार समुल्लास वेदों पर आधारित भारतीय मतों, बौद्ध व जैन मत सहित ईसाई तथा मुस्लिम मत
पर प्रकाश डालते। इस विवेचना से वैदिक धर्म अज्ञान व अविद्या से सर्वथा रहित सर्वोपरि पाया गया है।
वैदिक धर्म ज्ञान व विज्ञान से पोषित, तर्क एवं युक्तिसगत मान्यताओं सहित सत्य सिद्धान्तों वाला संसार का
प्राचीनतम धर्म है। इस धर्म के सभी अनुयायियों को यह छूट है कि वह परस्पर तर्क-वितर्क करें, विद्वानों से शंका समाधान करें
अथवा चिन्तन-मनन आदि करके अपने ज्ञान को बढ़ायें। दूसरी ओर वेदेतर मत-मतान्तर यह स्वतन्त्रता अपने अनुयायियों
को नहीं देते। इसके पीछे उनका डर ही प्रमुख कारण हो सकता है। उनके पास अनेक बातों के उत्तर नहीं है। इस बात को मेला
चान्दपुर के ऋषि दयानन्द से शास्त्र चर्चा में विभिन्न मतों के आचार्यों ने स्वीकार भी किया था। मत-मतान्तरों की अनेक
मान्यतायें परस्पर विरोधी भी हैं। मत-मतान्तरों की एक कमी यह भी प्रत्यक्ष दीखती है कि वह अपनी मान्यताओं की ज्ञान व
विज्ञान के आधार पर समीक्षा व अनुसंधान आदि नहीं करते। अनेक सिद्धान्तों व विचारों पर उठने वाले प्रश्नों का समाधान व
विचार भी नहीं करते। यहां तक की किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसका जलाना या भूमि में गाड़ना, इनमें से कौन सी
मान्यता ठीक है, इस पर भी विचार नहीं किया जाता। मृतक शरीर को भूमि में गाड़ने से भूमि में पड़े रहने से वह शरीर सड़ता है
और उससे वायु में दुर्गन्ध फैलता है। मृतक शरीर को कीड़े खाते हैं जिससे वह धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है। अग्नि में जलाने से
एक या दो घंटे में ही शरीर अपने कारण पंचतत्वों में विलीन हो जाता है और प्रदुषण भी कम होता है। उचित मात्रा में अग्नि में
धृत आदि डालने से प्रदुषण भी नहीं होता। यही शव दाह की वैज्ञानिक विधि है। भूमि में गाड़ा हुआ शरीर भूमि के कीटाणुओं व

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सड़ने से वर्षों बाद नष्ट होता है और उसका अस्थि-पंजर तो अनेक वर्षों तक विद्यमान रहता है। इस विषयक सहित मतों की
अनेक मान्यताओं का ज्ञान व विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में विचार व अनुसंधान होना चाहिये और सत्य को स्वीकार व असत्य का
त्याग किया जाना चाहिये। सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना वैदिक मान्यताओं में निहित है और वैदिकधर्मी
संगठन आर्यसमाज का एक प्रमुख नियम भी है। इसके विपरीत मत-मतान्तरों में सत्य के ग्रहण एवं असत्य के त्याग का
सिद्धान्त व आग्रह दृष्टिगोचर नहीं होता।
मत-मतान्तरों का एक प्रमुख उद्देश्य येन केन प्रकारेण ये अपनी-अपनी संख्या बढ़ाना चाहते हैं। इसके लिये उचित व
अनुचित तरीके भी अपनाये जाते हैं। इसी कारण वर्षों पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के शासनकाल में एक भारतीय सांसद श्री
ओम् प्रकाश पुरुषार्थी ने धर्म स्वातन्त्रय विधेयक प्रस्तुत किया था जिसमें किसी मनुष्य का भी मत लोभ, बल व छल से
परिवर्तित करने पर रोक लगाने का प्रस्ताव था। प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई भी इस विधेयक के मसौदे के पक्ष में बताये गये
थे। कलकत्ता के एक ईसाई सेवाश्रम की प्रमुख मदर टेरेसा ने इस विधेयक का विरोध किया था। उन्होंने सड़को पर इस विधयेक
के विरोध में जुलूस निकाले थे। इस प्रकार एक अच्छा कार्य होने से रह गया था। मत-मतान्तरों के प्रमुख सिद्धान्तों पर विचार
करें तो वह वैदिक मत के सिद्धान्तों से अधिकांशतः प्रतिकूल हैं। ईश्वर व जीवात्मा का जो सत्यस्वरूप वेदों व वैदिक धर्म में
पाया जाता है, वह वेदेतर किसी मत में नहीं पाया जाता। ईश्वर की उपासना की वेद व वैदिक धर्म की विधि जिसका प्रचार ऋषि
दयानन्द ने किया था, वह उत्तम सिद्ध होती है। ईश्वर की उपासना इस लिये करते हैं कि हमें धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति
हो। वेदेतर मतों में जीवन के अन्तिम व प्रमुख लक्ष्य मोक्ष की चर्चा ही नहीं है। वैदिक धर्म में सदाचार पूर्वक जीवन व्यतीत
करने से ही मनुष्य परजन्म में उन्नत जीवन प्राप्त करता है। मांसाहार को वैदिक धर्म में सबसे बुरा माना गया है। इसका
कारण मांसाहार से शरीर में रोगोत्पत्ति सहित मारे गये पशुओं को पीड़ा का होना होता है। मांसाहार परमात्मा के विधान को एक
प्रकार की चुनौती है। मांसाहार करने वाले अपने इस व्यस्न के कारण ईश्वर द्वारा अपने कर्मों का फल भोगने के लिये उत्पन्न
पशु व पक्षी आदि को उनका पूरा जीवन भोगने नहीं देते अपितु उसे बीच में ही समाप्त कर देते हैं। इसका फल ईश्वरीय
व्यवस्था से दण्डनीय होना होता है। अतः मत-मतानतरों में भक्ष्य एवं अभक्ष्य पदार्थों का भी समुचित ज्ञान नहीं है।
मोक्ष अर्थात् जन्म-मरण से अवकाश एवं सर्व-आनन्द की प्राप्ति केवल वैदिक धर्म में ही सम्भव है। मोक्ष का सुख
आनन्द की पराकाष्ठा है। यह लाभ किसी अन्य मत का अनुयायी बनने से प्राप्त नहीं होता। वेदों ने सभी गृहस्थी मनुष्यों को
अग्निहोत्र यज्ञ करने का विधान व आदेश किया है। ऋषि दयानन्द वेदों के आधार पर कहते हैं कि जो मनुष्य अग्निहोत्र नहीं
करता वह पापी होता है। इसका कारण उसके द्वारा अनेक प्रकार से वायु व जल को प्रदुषित करना तथा अग्निहोत्र द्वारा उसे
शुद्ध न करना होता है। अतः वेद की दृष्टि में जो मनुष्य यज्ञ नहीं करता, भले ही वह वैदिक धर्मी ही क्यों न हो, वह पापी होने
से ईश्वर की न्याय व्यवस्था में दण्डनीय होता है। यह स्थिति सभी वेदेतर मतों पर भी लागू भी होती है। अतः सभी मत-
मतान्तर के अनुयायियों को अध्ययन, चिन्तन व मनन कर सत्य को जानना व स्वीकार करना चाहिये। सत्य का ग्रहण और
असत्य का त्याग तथा सत्याचरण ही मनुष्य का धर्म है। मत-मतान्तर धर्म नहीं अपितु मत, पन्थ व सम्प्रदाय आदि हैं। इनका
अध्ययन किया जा सकता है परन्तु आचरण व व्यवहार सत्य का ही किया जाना उचित होता है।
हमने वैदिक धर्म व मत के विषय में बहुत संक्षेप में लिखा है। विस्तार के लिये ऋषि दयानंद के सत्यार्थप्रकाश,
ऋग्वेदादिभाष्भूमिका, वेदभाष्य, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि सहित उपनिषद, दर्शन एवं
विशुद्ध मनुस्मृति आदि ग्रन्थों का अध्ययन सभी मनुष्यों को करना चाहिये। इससे धर्म व मत का अन्तर स्पष्ट हो सकता है
और सत्य धर्म वेद को ग्रहण करने की प्रेरणा भी मिल सकती है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001 4

फोनः09412985121

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