पर्यावरण के लिए स्वच्छता और वृक्षारोपण

0
213

डॉ0 राकेश राणा

        जीवन की दृष्टि से पर्यावरण मानव के लिए सर्वोच्च जरुरत है। जल, जंगल और जीमीन तीनों उसके प्रमुख आधार है। विकास के माजुदा मॉडल की विफलता यह कि जीवन के इन तीनों आधारों को प्रदूषण ने लील दिया है। यही वजह है आज देश की आबादी का बडा हिस्सा स्वच्छ व सुरक्षित पानी, शौचालय और शुद्ध हवा जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित है। पर्यावरण पूरी तरह प्रदूषित हो चुका है। इस दिशा में समाज और सरकार को स्वच्छता और वृक्षारोपण को एक जनान्दोलन बनाने की तरफ सोचना होगा। जिसके लिए समाज की सहभागिता होना पहली और आवश्यक शर्त है। सामुदायिक सहभागिता के जरिए स्वच्छता की संस्कृति विकसित करने की जरुरत है। जिसके लिए कूडे-कचरे को फिर से उपयोग में लाने की ठोस योजना का होना जरूरी है। इससे बडी संख्या मे रोजगार तो पैदा होगा ही, हमारे गांव, शहर और कस्बें रहने योग्य भी बनेंगें। इसी तरह स्वच्छता को जल प्रबंधन से जोड़ना जरुरी है। जिसमें सीवर-सफाई और जल के पुनर्चक्रण द्वारा जल स्त्रोतो की सफाई और उससे औद्योगिक एवं कृषि उपयोग का काम भी हो सकेगा। स्वच्छता स्थानीय मुद्ा है। इसलिए इसके लिए टॉप डाउन प्रणाली उपयुक्त नही है। बल्कि इसके लिए समुदाय आधारित दुष्टिकोण अपनाना ही समझदारी है। समाज को पर्याप्त अधिकार और संसाधन सम्पन्न बनाना जरुरी है। कोई भी नीति या नियम प्रभावी परिणाम तभी देता है जब समाज की सहभागिता उसमें हो। पर्यावरण ऐसा मामला है जिससे जीवन सीधे जुड़ा हुआ है। पर्यावरण की सेहत के लिए दो कामों का निरन्तर जारी रहना बेहद जरुरी है पहला स्वच्छता और दूसरा वृक्षारोपण। स्वच्छता के अभाव में हमें स्वास्थ्य सम्बन्धी खतरे झेलने पड़ते है। ये किसी एक क्षेत्र तक सीमित नही रहते है। वैश्वीकरण के दौर में दुनियां एक दूसरे से बहुत जुड़ गई है। हम सब परस्पर निर्भर स्थानों में रहते है। पर्यावरण का क्षरण बड़ा संकट है। इस चुनौती का सामना सामुदायिक सहभागिता के जरिए ही संभव है।

          पर्यावरण संरक्षण के लिए वृक्षारोपण अहम् पहल है। क्योंकि जीवनदायनी ऑक्सीजन का एक मात्र स्त्रोत वृक्ष ही हैं। मानव जीवन वृक्षों पर ही निर्भर है यदि वृक्ष नहीं रहेंगे तो धरती पर जीवन संकट में पड़ जायेगा। किसी भी राष्टृ या समाज अथवा संस्कृति की सम्पन्नता वहां के निवासियों की भौतिक समृद्धि में निहित नहीं होती है बल्कि वहां की जैव विविघता पर निर्भर होती है। भारतीय वन सम्पदा दुनिया भर में अनूठी एवं विशिष्ट है। हमारी संस्कृति, रीति-रिवाज, धर्म, तीज-त्योहार सब प्रकृति पोषित हैं। असल संकट यही है कि विकास के आधुनिक मॉडल ने सब कुछ उजाड़ दिया हैं। जंगल ही थे जो जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों को कम करने की क्षमता रखते हैं। जिसके लिए वृक्षारोपण अभियान जारी रहना जरुरी है इसी से जलवायु में सुधार संभव है। पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से कार्बन-डाई आक्साइड को कम कर आक्सीजन देने में महती भूमिका में हैं। यह प्रक्रिया प्रकृति में संतुलन बनाए रखती है। जंगल ही हमें स्वच्छ जल और स्वस्थ मृदा के साथ-साथ स्वच्छ पर्यावरण भी प्रदान करने का आधार प्रदान करते है।

           समाज में वृक्षारोपण की संस्कृति विकसित हो तभी यह एक अभियान के रुप में पर्यावरण को पोषित कर जनोन्मुखी गतिविधि के रुप में स्थापित होगी। क्योंकि उपभोक्तावादी संस्कृति के विस्तार ने जंगलों को नष्ट कर दिया है। समय रहते हमने अपनी इस मानवीय भूल को यदि नहीं स्वीकारा और अपने जीवन व्यवहार को नहीं सुधारा तो पृथ्वीं का जीवन अस्तित्व ही संकट में पड़ जायेगा। इसलिए जरुरी है कि समय रहते खुले वनो की सघनता को बढाए। जहां-जहां संभव हो वहां-वहां हरित-गलियारों का विस्तार करे। ऐसे सार्वजनिक स्थलों को चिन्हित कर यह एक जनान्दोलन का रुप लेगा। रेलवे टृक, सड़क, नहर किनारे, खाली परती पडी जमीनों पर वृक्षारोपण कर उन्हें ग्रीन-बेल्ट बनाया जा सकता है। इससे स्वच्छता भी बढ़ेगी और पर्यावरण की सेहत भी दुरुस्त होगी। समाज और सरकार को मिलकर वृक्षारोपण संस्कृति का विकास करना होगा। जिसके फायदे कई स्तरों पर समाज को मिलेंगे। इससे रोजगार के नये अवसर सृजित होगें। वहीं जंगलों का विस्तार प्राणवायु के साथ-साथ आर्थिक समृद्धि का भी संबल बनेगा।

           पर्यावरण का स्वच्छता और शुद्ध हवा से सीधा संबंध है। दोनों मानव स्वास्थ्य के लिए आधार का काम करते है। स्वच्छता और आर्थिक विकास में भी घनिष्ट संबंध है। बीमार व्यक्ति किसी काम को ठीक ढंग से नही कर सकता, जिसका सीधा असर उत्पादकता पर पडता है। लोगों को इस बात के लिए जागरुक किया जाए कि पर्यावरण का सीधा संबंध हमारे स्वास्थ्य से है। पर्यावरण प्रदूषण से मानव स्वास्थ्य बिगड़ता है। इस दिशा में जागरुकता के लिए समाज के साथ समूह चर्चाएं की जाय। विभिन्न स्तरों पर सामाजिक सहभागिता बढ़ायी जाए। महिलाएं, युवा और बुजुर्ग समूह चर्चाओं का आयोजन करे। कचरा प्रबंधन के वैज्ञानिक तौर तरीकों को समाज में प्रचारित व प्रसारित करे। नियमित समीक्षा और सुधार संकेतों को समुदाय की सहभागिता के प्रयासों के रुप में दर्ज कराएं। पर्यावरण संरक्षण के सफल मॉडलों पर समुदाय के साथ जानकारियां साझा करे। निरन्तर प्रशिक्षण का विस्तार समाज के विभिन्न तबकों तक किया जाए। तभी पर्यावरण संरक्षण के अभ्यास एक स्थायी आदत में बदलेंगे।

          पर्यावरण संरक्षण और संवर्द्धन कोई साधारण मसला नहीं है। आज ग्लोबल वार्मिंग पृथ्वी पर जीवन के लिए वार्निंग बना हुआ है। पर्यावरण का संकट मानव अस्तित्व को चुनौती दे रहा है। भारत जैसे विकाशील देशों में तो जनसंख्या का दबाव और भी निरन्तर बढ़ रहा है। गरीबी, कुपोषण और स्वास्थ्य की समस्याएं हमें परेशान कर रही है। पर्यावरण की समस्या का दायरा अत्यंत व्यापक है और स्वास्थ्य से इसका सीधा संबंध है। पर्यावरण स्वच्छता से बहुत प्रभावित होता है और स्वच्छता का ताल्लुक हमारी जीवन शैली से है। व्यक्ति की जीवन शैली समाज की संस्कृति से जुड़ी होती है। संस्कृति समाज से सीखा गया व्यवहार है। इसलिए अपने आस-पास की समझ विकसित करने वाली सीख हर नागरिक में पैदा हो यह जरुरी है। व्यक्ति में नागरिक बोध और दायित्व निर्वहन की निष्ठाएं पैदा करनी होगी। एक सभ्य समाज के नागरिक कैसे अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध रहते है, कैसे सामाजिक जिम्मेदारियों में सहभागी बनते है। यह शिक्षण-प्रशिक्षण औपचारिक और अनौपचारिक ढ़ंग से समाज का निरन्तर होना जरुरी है।               

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here