संजय के पास कोई दिव्य दृष्टि नहीं थी — क्या कहती है महाभारत ?

महाभारत के बारे में जिस प्रकार अनेकों भ्रान्तियों को समाज में फैलाया गया है , उनमें से एक यह भी है कि संजय को वेदव्यासजी के द्वारा दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई थी । जिसके माध्यम से वह महाभारत के युद्ध का आंखों देखा हाल हस्तिनापुर के राजभवन में बैठा हुआ, धृतराष्ट्र को सुनाया करता था । इस विषय में महाभारत की अंतःसाक्षी में ऐसा प्रसंग कहीं पर भी नहीं है कि वेदव्यास जी युद्ध आरम्भ होने से पहले राजभवन में आए हों और उन्होंने वहाँ पर अपनी ओर से धृतराष्ट्र के सामने यह प्रस्ताव रखा हो कि यदि वह चाहे तो मैं उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान कर सकता हूँ ।जिससे वह यहीं पर बैठे हुए महाभारत के युद्ध को देख सकते हैं । ऐसा सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा कि वह अपने बेटों के गिरते हुए शवों को देखना नहीं चाहते। अतः यदि आप ऐसी कृपा करना ही चाहते हैं तो यह दिव्य दृष्टि मेरे सारथी संजय को प्रदान कीजिए । मैं उसी से यह सब बातें सुन लिया करूंगा । तब वेदव्यासजी ने संजय को दिव्य – दृष्टि प्रदान की और हस्तिनापुर के राज दरबार से प्रस्थान कर गए।
वास्तव में संजय एक योद्धा था। जिसने महाभारत के युद्ध में भी भाग लिया था। वह युद्ध भूमि में स्वयं जाता था और सूर्य अस्त होने के पश्चात राजभवन में पहुंचकर धृतराष्ट्र को वहाँ के समाचार सुनाता था । यह कार्य नित्यप्रति होता था।
भीष्म पर्व के दूसरे अध्याय का पहला श्लोक हमें विशेष सूचना देता है । वैशंपायन जी कहते हैं — जन्मेजय ! एक दिन विद्वान संजय ने युद्ध भूमि से लौटकर चिंतामग्न धृतराष्ट्र के पास जा उन्हें पितामह भीष्म के युद्ध भूमि में मारे जाने का समाचार सुनाया। संजय बोले – महाराज ! भारत श्रेष्ठ , नमस्ते। मैं संजय आपकी सेवा में उपस्थित हूँ । भारतवंशियों के पितामह महाराज शांतनु के पुत्र भीष्म जी आज युद्ध में मारे गए । जो समस्त योद्धाओं के ध्वजस्वरूप तथा संपूर्ण धनुर्धरों के आश्रय थे , वही कुरुकुल पितामह भीष्म आज बाणशय्या पर सो रहे हैं।
महाभारत की इस अंतःसाक्षी से यह स्पष्ट होता है कि संजय युद्ध भूमि में जाता था और वहां से लौटकर धृतराष्ट्र को वहां के समाचार सुनाता था । यहीं पर यह बात भी स्पष्ट होती है कि जब वह शाम को युद्धभूमि से धृतराष्ट्र के पास पहुंचा तो उसने ‘नमस्ते’ करने के पश्चात उसे बताया कि – मैं आपकी सेवा में उपस्थित हूँ अर्थात मैं युद्ध भूमि से लौट आया हूँ । यदि संजय राजभवन में ही कहीं होता तो आकर ‘नमस्ते’ करके यह नहीं कहता कि मैं आपकी सेवा में उपस्थित हो गया हूँ।
इसी प्रकार महाभारत के ‘शल्य पर्व’ के नौवें अध्याय में संजय कहता है कि :– हे भरतश्रेष्ठ ! किरीटधारी अर्जुन की मार खाकर एक वह बची हुई सेना आपके पुत्र के देखते-देखते युद्धभूमि से भाग चली । महाराज ! अपनी सेना का पराक्रम नष्ट हुआ देख आपका महाबली पुत्र दुर्योधन वहीं चला गया , जहाँ सुबल पुत्र शकुनि खड़ा था । उधर शत्रुदमन दुर्योधन को रथ सेना में न देखकर अश्वत्थामा कृपाचार्य और कृतवर्मा ने समस्त क्षत्रियों से पूछा :- ” राजा दुर्योधन कहां चले गए ?- कुछ लोगों ने कहा – सारथी के मारे जाने पर राजा दुर्योधन वहीं गए हैं , जहाँ शकुनि है। दूसरे अत्यंत घायल हुए क्षत्रिय वहाँ इस प्रकार कहने लगे – अरे दुर्योधन से यहां क्या काम है ? – यदि वह जीवित होंगे तो तुम सब लोग उन्हें देख ही लोगे ।
इस समय तो सब लोग एक साथ होकर केवल युद्ध करो । राजा तुम्हारी क्या सहायता करेंगे ? उनकी बात सुनकर महाबली अश्वत्थामा , कृपाचार्य और कृतवर्मा यह सब वहीं जा पहुंचे जहां शकुनि था ।
राजन ! अश्वत्थामा आदि के आगे बढ़ जाने पर धृष्टद्युम्न अब आपकी सेना का संहार करते हुए वहाँ आ पहुंचे । हर्ष और उत्साह में भरे हुए महारथियों को आक्रमण करते देख आपके पराक्रमी वीर उस समय जीवन से निराश हो गए । आपकी सेना के अधिकांश योद्धाओं का मुख उदास हो गया । उन सबके हथियार नष्ट हो गए थे और वे चारों ओर से घिर गए थे।
राजन ! उन सबकी यह दुर्दशा देखकर मैं जीवन का मोह छोड़कर अन्य 4 महारथियों को साथ ले हाथी और घोड़े दो अंगों वाली सेना से मिलकर धृष्टद्युम्न की सेना के साथ युद्ध करने लगा । वहाँ धृष्टद्युम्न की सेना के साथ हम लोगों का बड़ा भारी युद्ध हुआ । परन्तु उन्होंने हम सबको परास्त कर दिया । तब हम वहाँ से भाग चले । इतने में ही मैंने महारथी सात्यकि को अपने पास आते देखा । वीर सात्यकि ने रणभूमि में चार रथियों के साथ मुझ पर आक्रमण किया । थके हुए वाहनों वाले धृष्टद्युम्न से मैं किसी प्रकार छूटा तो सात्यकि की सेना में वैसे ही आ फंसा जैसे कोई पापी नर्क में गिर गया हो ।
वहां दो घड़ी तक बड़ा भयंकर एवं घोर युद्ध हुआ। महाबाहु सात्यकि ने मेरी सारी युद्ध सामग्री नष्ट कर दी और जब मैं मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा तब मुझे जीवित ही पकड़ लिया ।
उधर जब आपका पुत्र दुर्योधन कहीं दिखाई नहीं दिया , तब मरने से बचे आपके सभी पुत्र एक साथ इकट्ठे होकर भीमसेन पर टूट पड़े । महाराज ! तब भीमसेन अपने रथ पर आरूढ़ हो आपके पुत्रों के मर्म स्थान में तीखे बाणों का प्रहार करने लगा । बाणों द्वारा मारे गए वे महारथी वसंत ऋतु में कटे हुए पुष्प युक्त पलाश के वृक्षों की भांति रथों से पृथ्वी पर गिर पड़े ।
प्रभो ! इस प्रकार कुंती पुत्र भीमसेन ने युद्ध में आपके पुत्रों का वध करके अपने आप को कृतार्थ माना और अपने जन्म को सफल समझा।
इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए स्वामी जगदीश्वरानंद सरस्वती जी कहते हैं कि – “महाभारत काल में ज्ञान-विज्ञान पराकाष्ठा की चोटी पर पहुंचा हुआ था ,
इसमें संदेह नहीं है । परन्तु महाभारत काल में दूरदर्शन नहीं था । साथ ही संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान करने की बात भी गप्प है ।
वास्तविक बात यह है कि वर्तमान पत्रकारों की भांति संजय संदेशवाहक था । वह युद्ध भूमि में जाकर वहाँ के समाचार संग्रह करता था और हस्तिनापुर लौट कर धृतराष्ट्र को सुना देता था।
इस स्थल से यह स्पष्ट है कि संजय रणक्षेत्र में जाता था , इतना ही नहीं यहाँ तो उसके युद्ध करने का और युद्ध में मूर्च्छित होने पर उसे बंदी बनाने का भी स्पष्ट उल्लेख है । यदि संजय युद्ध के समाचार दिव्य दृष्टि के द्वारा बताता था तो क्या वह समाचार सुनाते – सुनाते युद्ध भी करने लगा और बंदी बना लिया गया ।” सोचने वाली बात है।
हमें टीवी पर चले धारावाहिक में यह भी दिखाया गया है कि जब दुर्योधन की जांघें भीम ने तोड़ी तो उस समय वह युद्ध भूमि में अकेला पड़ा हुआ था और संजय इस दर्दनाक दृश्य को दिव्य दृष्टि से धृतराष्ट्र को सुना रहा था । परन्तु यह भी गलत है ।
‘शल्य पर्व’ के अंदर ही इस विषय का भी स्पष्ट वर्णन किया गया है । जिससे पता चलता है कि उस समय संजय दुर्योधन के पास था । वहाँ पर जो वर्णन किया गया है उससे पता चलता है कि दुर्योधन स्वयं संजय को संबोधित करते हुए कहता है — महाबाहु ! संजय मैं एक दिन 11 अक्षौहिणी सेना का स्वामी था । परन्तु आज इस अवस्था में आ पड़ा हूँ । वस्तुतः काल को पाकर कोई उसका उल्लंघन नहीं कर सकता ।
मेरे पक्ष के वीरों में जो लोग इस युद्ध में जीवित बच गए हैं उन्हें यह बताना ( अर्थात तुम संदेशवाहक हो , पत्रकार हो , इसलिए उन्हें जाकर मेरी ओर से यह सूचना देना ) कि भीमसेन ने किस प्रकार गदा युद्ध के नियम का उल्लंघन करके मुझे मारा है ? आज जब मेरी जंघाएँ टूट गई थीं ऐसी अवस्था में कुपित हुए भीमसेन ने मेरे मस्तक को जो पैर से ठुकराया है , इससे बढ़कर दुख भरे आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है ?
संजय ! जो अपने तेज से तप रहा हो और अपने सहायक बंधु – बांधओं के बीच में विद्यमान हो , ऐसे शत्रु के साथ जो व्यवहार करे , वही वीर पुरुष सम्मानित होता है ( मरे हुए को मारने में क्या बड़ाई है ? )
संजय ! मेरे माता – पिता युद्ध धर्म के ज्ञाता हैं । वे दोनों मेरी मृत्यु का समाचार सुनकर दुख से आतुर हो जाएंगे । तुम मेरे कहने से उन्हें यह संदेश ( इस वक्त से फिर स्पष्ट होता है कि संजय राजभवन में न होकर दुर्योधन के पास ही खड़ा है और एक प्रकार से वहां से महाराज धृतराष्ट्र के लिए संदेश या समाचार तैयार कर रहा है । ) देना कि मैंने यज्ञ किए , जो भरण-पोषण करने योग्य थे , उनका पालन किया और समुद्र पर्यंत पृथ्वी का अच्छी प्रकार शासन किया । साथ ही संपूर्ण शत्रुओं को सदा ही क्लेश पहुंचाया । संसार में कौन ऐसा पुरूष है , जिसका अन्त मेरे समान सुंदर हुआ हो ?
मैंने सभी इष्ट मित्रों को सम्मान दिया । अपनी आज्ञा के अधीन रहने वाले लोगों का आदर – सत्कार किया और धर्म , अर्थ तथा काम सब का सेवन किया । अतः मेरे समान सुंदर अन्त किसका हुआ होगा ?
मैंने विधिवत वेदों का स्वाध्याय किया । अनेक प्रकार के दान दिए और रोगरहित आयु प्राप्त की । इस सबके अतिरिक्त मैंने पुण्य लोकों पर विजय पाई है। अतः मेरे समान उत्तम अन्त किसका होगा ?
इसी अध्याय से हमें यह भी पता चलता है कि संजय उस समय भी युद्ध भूमि में ही उपस्थित था जिस समय दुर्योधन ने अश्वत्थामा को अपना अंतिम सेनापति नियुक्त कर उसका अभिषेक किया था ।
इतने स्पष्ट साक्ष्यों के उपरांत भी हमें इतिहास के तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर बताया गया । जिससे अपने ही इतिहास के बारे में हमारे भीतर अनेकों प्रकार की भ्रांतियां उत्पन्न हो गई ।

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