संकीर्णताओं के विरोध में खड़ी है हिंदी

0
246

जब हम हिंदी की उपेक्षा की बात करते हैं और इसके संरक्षण-संवर्धन हेतु शासकीय सहयोग की आशा करते हैं तब हमें यह भी सोचना चाहिए कि कहीं हिंदी की शक्ति और उसके सामर्थ्य के प्रति हम स्वयं ही सशंकित तो नहीं हैं जिस कारण हममें असुरक्षा की भावना आ गई है। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि हिंदी विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है, विवाद केवल इस बात पर हो सकता है कि यह वर्तमान में कौन से क्रम पर है। यह आश्चर्यजनक है कि जिस वैश्वीकृत बाजारवादी अर्थव्यवस्था की आलोचना में हम सब लगभग एकमत हैं, हिंदी के विश्वव्यापी प्रसार और उसकी बढ़ती स्वीकार्यता में यही योगदान दे रही है। अपने फायदे के लिए ही सही बाजार ने हिंदी की उस जमीनी पकड़ को स्वीकारा जिसे नकारने का प्रयास सरकारी तंत्र लगातार करता रहा है। बाजार की आवश्यकताओं ने हिंदी के मानक और पारंपरिक स्वरूप को प्रभावित किया है। लिखने और बोलने की अमानक अभिव्यक्तियां लोकप्रिय हुई हैं। हिंगलिश का प्रयोग बढ़ा है। विज्ञापनों में बाजार की पसंदीदा लोक भाषाओं यथा भोजपुरी और पंजाबी आदि के लहजे में इनके शब्दों को स्वयं में समेटे संवाद सुनने को मिलते हैं। हिंदी की लोकप्रियता को देश और विदेशों में रहने वाले गैर हिंदी भाषियों तक फैलाने में हिंदी फिल्मों और उनके गीत-संगीत का उल्लेखनीय योगदान रहा है। इन हिंदी फिल्मों ने लोगों को हिंदी सीखने के लिए प्रेरित किया है। फिल्मकारों के पसंदीदा क्षेत्रों मुम्बई, गोआ आदि में बोली जाने वाली स्थानीयता से सराबोर हिंदी आज देश भर में लोकप्रिय है। जैसा कि प्रत्येक भाषा के साथ प्रत्येक काल में होता आया है, बोलचाल की जनप्रिय प्रचलित भाषा और उसके मानक तथा परिनिष्ठित स्वरूप में अंतर होता है। भाषा की सार्थकता उसके लोकव्यापीकरण में ही है और अन्य भाषाओं के शब्दों और अभिव्यक्तियों को आत्मसात करने की उसकी क्षमता उसके जीवित और जाग्रत होने का पुख्ता प्रमाण है। भाषा के प्रति बहुत ज्यादा शुद्धतावादी एप्रोच कई बार उसके आम जन से कटकर दूर हो जाने और बौद्धिक अभिजन वर्ग तक सीमित हो जाने का कारण बनता है। इस शुद्धतावादी आग्रह के कारण कई बार संस्कृतनिष्ठ हिंदी को श्रेष्ठतर माना जाने लगता है। हिंदी भाषा का तत्समीकरण -हो सकता है कि दक्षिण की भाषाओं और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं (जिनमें तत्सम शब्दों का विपुल भंडार है) के साथ सामंजस्य स्थापित कराने में सहायक हो- किन्तु इससे हिंदी के लिए अप्रचलित शब्दों से युक्त दुरूह भाषा बन जाने का खतरा हमेशा बना रहेगा। कई बार ऐसा भी लगता है कि हिंदी भाषा का तद्भवीकरण एक सहज उद्दाम प्रवाह है और सजग तत्समीकरण इस प्रवाह के प्रभाव को नियंत्रित-नियमित- व्यवस्थित करने की एक समानांतर चेष्टा- दोनों ही आवश्यक हैं। हिंदी फिल्मों में संस्कृतनिष्ठ हिंदी बोलने वाले पात्र प्रायः हास्य कलाकारों के रूप में प्रस्तुत किए जाते रहे हैं और संभवतः जनमत एवं जन अभिरुचियों को अभिव्यक्ति प्रदान करते रहे हैं। फिल्मों और जासूसी तथा रूमानी उपन्यासों पर जन अभिरुचि को विकृत करने का आरोप बराबर लग सकता है किन्तु आरोपकर्त्ताओं से यह कहा जा सकता है कि लोकप्रिय फिल्मकारों तथा उपन्यास लेखकों की गलती केवल इतनी है कि उन्होंने जन अभिरुचि(जैसी भी वह है) को ध्यान में रखकर सृजन किया और इसे परिष्कृत-परिमार्जित करने का खतरा मोल नहीं लिया। संभव है कि सामाजिक नैतिकता में गिरावट के लिए ये उत्तरदायी हों लेकिन यह भी निश्चित है कि हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में इनके योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। यही विमर्श आगे चलकर लोकप्रिय मंचीय कवियों और समीक्षकों द्वारा प्रशंसित शास्त्रीय कवियों के मध्य बढ़ते अंतर के प्रश्न को स्पर्श करता है। कहा जाता है कि उच्चकोटि के कवि पहले मंचों से सुने और सराहे जाते थे किंतु धीरे धीरे ये मंच से विलुप्त हो गए और इनका स्थान हास्य और वीर रस के ऐसे कवियों ने ले लिया जो समीक्षकों की दृष्टि में अच्छे नहीं हैं। पुनः यह कहना होगा कि संभव है जन रुचि में गिरावट आई हो या हर रचनाकार की अपनी सीमाएं रही हों और वह बच्चन या नीरज आदि की भांति क्षमतावान न रहा हो लेकिन हिंदी भाषा को लोकप्रिय बनाने में मंचीय कवियों और उनके कवि सम्मेलनों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। लोकप्रियता का यही बिंदु हमें हिंदी और उर्दू के पारस्परिक संबंधों की विवेचना के कठिन और (विशेषकर आज की परिस्थितियों में) विवादोत्पादक प्रश्न की ओर उन्मुख करता है। जॉर्ज ग्रियर्सन तथा रामचंद्र शुक्ल और बहुत सारे भारतीय विद्वानों का यह मानना है कि उर्दू को एक अलग भाषा मानना उचित नहीं है। रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में वह “फ़ारसी अरबी मिश्रित खड़ी हिंदी है।“ और ग्रियर्सन के अनुसार यह पश्चिमी हिंदी का एक भेद है। भाषा विज्ञान के प्रायः सभी जानकार एक मत हैं कि हिंदी और उर्दू व्याकरण की दृष्टि से लगभग एक समान हैं और इनमें केवल लिपि का अंतर है। किन्तु जब भाषा धार्मिक,साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय अस्मिता के प्रतीक के रूप में देखी जाने लगती है तो इसका प्रभाव मतभेदों को बढ़ावा देने वाला और विभाजनकारी होता है। हिंदी और उर्दू में बहुत कुछ साझा है- स्वतंत्रता संग्राम में दोनों ने अपनी अपनी भूमिका निभाई; मीर, ग़ालिब,दाग,साहिर,फ़ैज़ और फ़िराक़ को चाहने और पढ़ने वालों की संख्या भारत में बहुत अधिक है, उर्दू के शेर अपने वक्तव्य को प्रभावशाली बनाने के लिए धड़ल्ले से बिना इस बात का विचार किए प्रयुक्त होते हैं कि वे हिंदी के नहीं हैं। मुशायरों की लोकप्रियता अभी भी कायम है और ग़ज़ल गायकों की लाइव परफॉर्मेंस में लोगों की रुचि बदस्तूर बनी हुई है। इनके एलबम अभी भी व्यावसायिक रूप से सफलता पाते हैं। कव्वालियों की अपनी उदार दुनिया है जिसका जादू बरकरार है। गाँधी जी जिस हिंदुस्तानी की हिमायत करते रहे वह उर्दू के काफी निकट है। मुंशी प्रेमचंद की लोकप्रियता में भी उनकी सरल भाषा का योगदान रहा जो देशज और अन्य भाषाओं के शब्दों(विशेषकर उर्दू जिसमें उन्होंने लिखना प्रारम्भ किया था) से परहेज नहीं करती थी। किन्तु आज जब इस साझा विरासत को रेखांकित किया जाता है तो उर्दू के हितैषी यह सोचकर विरोध में उतर आते हैं कि यह चालाकी से उनकी भाषाई अस्मिता छीन कर हिंदी का वर्चस्व स्थापित करने की साजिश है और हिंदी समर्थक इसे भाषा की शुद्धता के लिए खतरा समझ लेते हैं। यदि ऐसा हो रहा है तो वह अकारण नहीं है। आज जब हम उर्दू शब्द का उच्चारण करते हैं तो क्या हमारे मन में शेरवानी पहने और टोपी लगाए किसी दाढ़ी धारी व्यक्ति का चित्र नहीं उभरता और हिंदी का उच्चारण करते ही धोती-कुर्ता पहने कोई तिलकधारी सज्जन हमारे मस्तिष्क में नहीं आते हैं? और इससे भी दुर्भाग्यजनक यह है कि ये छवियाँ आज पारस्परिक विरोधी समझी जाती हैं। अभिव्यंजना के स्तर पर हिंदी की काव्य भाषा में विम्बों और प्रतीकों का चयन और संयोजन अनायास ही धार्मिक-पौराणिक आख्यानों पर आधारित हो जाता है और उर्दू को भारत के स्थानीय सांस्कृतिक रंग में रंगने से बचाने और धार्मिकता में डुबाए रखने का सजग प्रयास होता दिखता है। अमृत रॉय ने अपने शोध द्वारा यह सिद्ध किया है कि 18 वीं सदी में उर्दू(रेख्ता, हिंदवी) के अरबी-फ़ारसीकरण का सतर्क प्रयास किया गया था और इसमें से संस्कृत मूल के शब्दों को चुन चुन कर हटाने का अभियान चलाया गया था। इसी की प्रतिक्रिया में हिंदी को संस्कृत के अप्रचलित शब्दों से सजाने की प्रवृत्ति बढ़ी। देश के विभाजन के पहले ही हिंदी और उर्दू में दूरी आ गयी थी। विभाजन के बाद हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा तथा राजभाषा बनी और उर्दू पाकिस्तान की। इन देशों के तनावपूर्ण सहअस्तित्व का असर भाषा के स्तर पर भी देखा जा सकता है। यह बिल्कुल मुमकिन है कि जन भाषा के स्तर पर हिंदी और उर्दू में- जैसा गोपीचंद नारंग कहते हैं- नाखून और गोश्त का रिश्ता हो किन्तु साहित्य के स्तर पर स्थिति ऐसी नहीं है।
भाषा को धर्म और संप्रदाय से दूर रखने का विचार सैद्धांतिक रूप में जितना आकर्षक, न्यायोचित और प्रगतिशील लगता है,व्यवहार में उसका क्रियान्वयन उतना ही कठिन है। कई बार यह अव्यावहारिक भी लगने लगता है। धार्मिक संस्कार और स्मृतियाँ न केवल सूक्ष्म रूप से भाषा की अभिव्यंजना शक्ति और शब्द सामर्थ्य को प्रभावित करती हैं बल्कि स्थूल रूप से भाषा को लोकप्रिय बनाने का कार्य भी करती हैं। भारत जैसे देश में जहाँ धर्म लोगों के जीवन में बड़ा महत्व रखता है, धार्मिक साहित्य और धार्मिक प्रवचन हिंदी के प्रचार प्रसार में सहायक रहे हैं। यदि इनमें संस्थागत धर्म की रूढ़िवादिता मौजूद है तो शाश्वत धार्मिक-दार्शनिक मूल्यों की उदारता भी है और लोगों को ये अनेक स्तरों पर स्पंदित करते हैं।भाषा और धर्म के संबंधों की इस चर्चा में हिंदी साहित्य का भक्ति आंदोलन इस कारण अनूठा लगता है कि यह धर्म से जुड़कर भी उसकी कट्टरता और संकीर्णता के विरोध की बुनियाद पर टिका था और विशुद्ध प्रेम और ज्ञान की उस ऊंचाई तक पहुंचता था जहाँ मनभेद और मतभेद दोनों के लिए कोई स्थान नहीं था। इस काल की सरल, पद्यबद्ध और गेय रचनाएँ हर जाति और धर्म के आम लोगों की जबान पर ऐसी चढ़ीं कि आज भी इनकी गूंज सुकून और शांति का पैगाम देती है।
धर्म व्यक्ति के जीवन का केवल एक भाग है। व्यक्ति का आर्थिक,सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनैतिक जीवन भी होता है। भाषा हमारे जीवन को समग्रता से प्रभावित करती है। इसे केवल धार्मिक व्यवहार तक सीमित कर देना इसे संकीर्ण बनाना है जो न केवल भाषा के लिए बल्कि राष्ट्र के लिए भी घातक है। महीप सिंह मानते हैं कि भाषा का संबंध भूमि से होता है और हिंदी को हिन्दूपन से जोड़ना उसके साथ बड़ा अन्याय है।
एक प्रश्न हिंदी और अंग्रेजी का भी है। हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिले 68 वर्ष हो गए किन्तु अंग्रेजी का महत्व कम होने के स्थान पर बढ़ता प्रतीत होता है। हिंदी, अंग्रेजी को विस्थापित न कर सकी यह तो चिंता और चिंतन का विषय है ही किन्तु इससे भी महत्वपूर्ण है लोगों की मानसिकता का विश्लेषण। हिंदी के साथ पौर्वात्य, पारंपरिक, पुरातन और सामान्य जैसे विम्ब जुड़े हुए हैं और अंग्रेजी के साथ पाश्चात्य, प्रयोगधर्मी, आधुनिक और अभिजात्य जैसे विशेषण संलग्न हैं। हर पाश्चात्य वस्तु को आधुनिक मानने का विचार भी अंग्रेजी भाषा के साथ जुड़ा है। समस्या तब और गहन हो जाती है जब अंग्रेजी को शोषण के एक औजार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। न्याय, चिकित्सा,शिक्षा जैसे अनेक क्षेत्र हैं जहाँ अंग्रेजी का वर्चस्व तथ्यों को छुपाने और अंग्रेजी न जानने वाले को अंधेरे में रखकर उसका शोषण करने हेतु प्रयुक्त होता है। इस तरह अंग्रेजी, शासकों और शोषकों दोनों को प्रिय है। बावजूद इसके कि हिंदी की जन स्वीकृति अत्यंत व्यापक है, अंग्रेजी हमारी मानसिकता के द्वारा संरक्षित और पोषित है और हमारी दीनता एवं दासत्व का एक प्रतीक चिन्ह है। यह भी आश्चर्यजनक है कि द्रविड़ भाषा परिवार और हिंदी भाषा परिवार के भी बहुत सारे सदस्य हिंदी को अपनी भाषाई अस्मिता को नष्ट करने में सक्षम प्रतिद्वंद्वी भाषा के रूप में देखते हैं और अंग्रेजी के प्रति गहरा अनुराग दर्शाते हैं। भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन ने जहाँ क्षेत्रीय हितों की रक्षा की वहीं हिंदी विरोध को भी बढ़ावा दिया। समस्या यह है कि देश के बहुसंख्यक लोग हिंदी जानते और समझते तो हैं लेकिन इनमें से बहुत से ऐसे हैं जो इसके बावजूद हिंदी का प्रयोग करने के इच्छुक नहीं होते और क्षेत्रीय भाषाओं से राजनीतिक कारणों से जुड़े रहते हैं। हिंदी विरोध इनकी राजनीति का एक अनिवार्य भाग है।
मीडिया अपने हर रूप में- प्रिंट,इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया के माध्यम से- हिंदी का भावी स्वरूप निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। आज साहित्य को भी जनता तक पहुँचने के लिए मीडिया पर निर्भर होना पड़ता है। आत्मनियांत्रित सोशल मीडिया में भी जैसे जैसे हिंदी के जानकारों की मौजूदगी बढ़ेगी वैसे वैसे हिंदी का एक नया रूप भी बनता जाएगा।
बाजार की शक्तियाँ टेक्नॉलॉजी के विकास को नियंत्रित करती हैं। बाजार हिंदी बोलने वाले उपभोक्ताओं को लुभाने के लिए लालायित है। यही कारण है कि टेक्नॉलॉजी के स्तर पर हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है। यूनिकोड का प्रचलन, हिंदी और हिंदी भाषा परिवार की भाषाओं को मोबाइल में स्थान मिलना,गूगल द्वारा हिंदी को सपोर्ट करने वाले टूल्स का निर्माण आदि इसके प्रमाण हैं। एक विचार यह भी है कि हिंदी बोलने समझने वाले किन्तु पढ़ न सकने वाले लोगों के लिए हिंदी को देवनागरी के स्थान पर रोमन लिपि में लिखा जाए। इसके अपने फायदे और खतरे हैं और वैसे ही समर्थक एवं विरोधी भी। कमाल अतातुर्क ने 1928 में तुर्की भाषा को अरबी के स्थान पर रोमन में लिखने का प्रयोग किया था। प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा भी 1936 में एक प्रस्ताव पारित किया गया था जिसमें भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि में लिखने की हिमायत की गई थी। किन्तु बाजार के दबाव में ऐसे प्रयोग करना घातक हो सकता है क्योंकि बाजार का उद्देश्य अंततः अपने उत्पाद बेचकर मुनाफा कमाना है न कि हिंदी का विकास करना। प्रयास तो यह होना चाहिए कि बाजार पर दबाव बनाकर हिंदी को विस्तार दिया जाए।
आशा की जानी चाहिए कि हिंदी की व्यापकता हमें संकीर्णताओं के इस दौर से बाहर निकालने में समर्थ होगी।
डॉ राजू पाण्डेय

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here