संस्कार और मर्यादा – विपिन किशोर सिन्हा

अब कुछ कहा जा सकता है, तूफान कुछ थम सा गया है, वातावरण कुछ शान्त सा है और युवा कुछ सुनने की स्थिति में हैं।

कोई भी समाज या देश तबतक प्रगति नहीं कर सकता जबतक उसके पास चरित्र का बल नहीं होता। अपने देश की समस्त समस्याओं का निदान हमारे पास है, परन्तु हम जान बूझकर उसकी उपेक्षा करते हैं। गत वर्ष १६ दिसंबर को दिल्ली में घटी बलात्कार की अमानवीय और लज्जास्पद घटना के विरोध में देशव्यापी प्रदर्शन हुए, करोड़ों मोमबत्तियां जलाई गईं और अनगिनत लेख लिखे गए परन्तु किसी ने कोई सकारात्मक समाधान नहीं सुझाया। किसी ने अगर मूल समस्या की तह में जाकर समाधान देने की कोशिश की, तो मीडिया ने उसके वक्तव्य की एक पंक्ति या आधी पंक्ति को सुर्खियों में लाकर गलत ढंग से पेश किया। उसे चतुर्दिक विरोध और गालियों का सामना करना पड़ा और चुप हो जाना पड़ा। प्रचार तंत्रों के व्यवहार को देखकर यह मानना पड़ा कि विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सिर्फ मीडिया वालों का ही अधिकार है। सामान्य जनता या तो भेड़चाल में विश्वास करे, या फिर चुप्पी साध ले अन्यथा उसे अपमानित होना ही पड़ेगा। कौन कहता है कि देश को सरकार चला रही है? वास्तव में सरकार को ही नहीं, युवा जनता को भी देश के अनउत्तरदायी टी.वी. चैनल चला रहे हैं। विषयान्तर हो गया। मूल विषय पर लौट के आते हैं।

संस्कार और मर्यादा हमारी संस्कृति के दो ऐसे अनमोल धरोहर हैं, जिसके पास हमारी हर समस्या का समाधान है। देश का युवा वर्ग जिसकी उम्र २५ से ५० के बीच में है, देश को नई दिशा दे सकता है। इस युवा वर्ग को ही लक्ष्य करके योजनाबद्ध ढंग से लिविंग टूगेदर, यौन शिक्षा, गे कल्चर, विवाह पूर्व यौन संबन्ध, विवाहोत्तर यौन संबन्ध, ब्वाय फ्रेन्ड, गर्ल फ्रेन्ड कल्चर को पूरे देश में फिल्मों और टीवी चैनलों के माध्यम से इस तरह प्रचारित किया गया कि इस पीढ़ी को संस्कार और मर्यादा घोर रुढ़िवादी और प्रगति विरोधी शब्द प्रतीत होने लगे। आज़ादी का अर्थ उछृंखलता हो गई। मुंबई के पुलिस कमिश्नर सत्यपाल ने बिल्कुल सही कहा है कि बलात्कार के मुख्य कारण यौन शिक्षा, फिल्मों और टेलीविजन पर विवाह पूर्व/पश्चात दिखाए जाने वाले यौन संबन्ध और नारी की अश्लीलता का पूर्ण चित्रण है। सत्यपाल जी का यह वक्तव्य अगर १५ दिन पहले आया होता तो न्यूज चैनल वालों ने उन्हें नौकरी से निकलवा दिया होता। उन्होंने अपना वक्तव्य देने के लिए सही समय का चुनाव किया, जैसा मैंने यह लेख लिखने के लिए किया।

क्या फिल्मों और टेलीविजन को जनता के सामने हर चीज परसने की अनुमति दी जा सकती है? क्या कोई विज्ञापन बिना नग्नता के प्रदर्शन के नहीं दिखाया जा सकता? चाहे वह पेन्ट का विज्ञापन हो, या मोबाइल का, टीवी का विज्ञापन हो या कार का, साबुन का विज्ञापन हो या स्प्रे पर्फ़्यूम का ………ऐसा नहीं लगता कि हम आयातित कन्डोम का विज्ञापन देख रहे हों? किस हिन्दुस्तानी की हिम्मत है कि वह डेल्ही-वेल्ही, फैशन या डर्टी पिक्चर अपनी बहु-बेटियों के साथ देख सके? ऐसी फिल्मों और इसके किरदारों को राष्ट्रीय पुरस्कार दिए जाते हैं। क्या इस देश में कोई सेन्सर बोर्ड है भी? क्या कर रही है हमारी सरकार? किस दिशा में धकेला जा रहा है हमारी युवा पीढ़ी को?

आज़ादी के बाद हमने अवश्य प्रगति की है परन्तु किस मूल्य पर? हमने साफ़्टवेयर इंजीनियरों की एक विशाल फ़ौज़ पैदा की है जिसके पास औसत बुद्धि के अलावा कुछ नहीं है और जिसका विश्वास माल कल्चर के अलावा किसी कल्चर में नहीं है? मैकडोनल्ड्स, के.एफ़.सी और पिज़्ज़ा हट उनके ठिकाने हैं तथा फटे हुए जिन्स उनके परिधान हैं। भारत का एक युवा, भले ही लाखों रुपए का पैकेज पा रहा हो, पहनता है एक ही जिन्स, हफ़्तों तक। न उसे गन्दगी की चिन्ता है न धूल-गर्द समेट रही मोहरी की। यही कारण है कि आज़ाद भारत ने एक भी टैगोर, सी.वी.रमन या जे.सी.बोस पैदा नहीं किया। लड़कियों ने तो साड़ी और सलवार सूट का पूरी तरह परित्याग कर दिया है। चमड़े से चिपका और कमर के नीचे अवस्थित उनका जिन्स आगे की ओर ज़रा सा झुकते ही पिछले अंग को एक्सपोज कर देता है। ऐसी ही स्थिति उनके टी शर्ट की भी है। लड़के तो फिर भी कालर वाला टी शर्ट पहनते हैं, लेकिन लड़कियां? उन्हें डीप लो कट ही पसन्द है। वे इसपर तनिक भी ध्यान नहीं देतीं कि आखिर प्रियंका गांधी अपने सार्वजनिक जीवन में जिन्स के बदले साड़ी ही क्यों पहनती हैं? उनकी रोल माडेल पत्रिकाओं के मुख्य पृष्ठ पर नग्न तस्वीर छपवाती पाकिस्तान की वीना मलिक ही क्यों है, वीर बालिका मलाला कर्जई क्यों नहीं? हिन्दुस्तान ही नहीं, विश्व के सारे मर्दों की मानसिकता लगभग एक जैसी होती है। हजारों वर्षों से पुरुषों ने नारी के अनावृत देह को अपनी कला का विषय बनाया है – कभी इसे पत्थरों पर उकेरा गया तो कभी कैन्वास पर। आज भी पुरुष अपनी बलात्कारी मानसिकता का प्रकटीकरण कभी सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के माध्यम से करता है, तो कभी फ़ैशन परेड कराकर। आधुनिकता और पुरुषों के जाल में फ़ंसकर महिलाएं कभी माडेल बनती हैं, तो कभी पार्न फिल्मों की नायिकाएं। हमने टेक्नोलजी से लेकर फ़ैशन तक का आयात ही किया है। अब जब हम संस्कृति को आयात करने के दोराहे पर खड़े हैं तो बलात्कार की विभिषिका सामने आने लगी। अब तो सोचना ही पड़ेगा। जबतक नारियों में अपने लिए स्वाभिमान नहीं आएगा, पुरुष समाज उसका दोहन और शोषण करता ही रहेगा। नारियों को अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी। रातों-रात पुरुषों की मानसिकता बदल देना मात्र दिवास्वप्न है। जब अमेरिका बिल क्लिन्टन और भारत नारायण दत्त तिवारी की मानसिकता नहीं बदल सका तो औरों की क्या बात की जाय।

देश के २५ से ५० वर्ष के आयु वर्ग वाले पुरुषों और महिलाओं के सामने एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है – अपने बच्चों को संस्कारित करने और मर्यादा का पाठ पढ़ाने की। आज का युवक संस्कार के नाम से ही नाक-भौं सिकोड़ने लगता है और युवती मर्यादा के नाम पर भड़क जाती है। उन्हें अपनी संस्कृति के इन दो अनमोल धरोहरों से परिचित कराने का पुनीत कार्य माता-पिता का ही है। लेकिन इसके लिए स्वयं भी संस्कारित होना पड़ेगा। प्ले बाय और डेबोनियर जैसी पत्रिकाओं को ड्राइंग रूम से बाहर करना पड़ेगा, उन अंग्रेजी-हिन्दी समाचार दैनिकों का वहिष्कार करना होगा जो अन्दर के पृष्ठों पर अर्ध नग्न तस्वीरें छापना अपना धर्म समझने लगे हैं। पार्टियों में समय देने के बदले अपने पुत्र-पुत्रियों पर अधिक समय देने का संकल्प लेना होगा। घर में शराब की पार्टियों से परहेज़ करना होगा। सदाचार और ऊंचे चरित्र का आदर्श स्वयं प्रस्तुत करते हुए बच्चों को भी उसका अनुकरण करने के लिए प्रोत्साहित करना पड़ेगा। जीजा बाई और शिवाजी, महात्मा गांधी और कस्तूरबा का आदर्श सामने रखना होगा। स्वामी विवेकानन्द की निम्न उक्ति का बार-बार स्मरण कराना होगा –

“हमारे देश की स्त्रियां………..विद्या बुद्धि अर्जित करें, यह मैं हृदय से चाहता हूं, लेकिन पवित्रता की बलि देकर यह करना पड़े, तो कदापि नहीं।”

1 COMMENT

  1. सभ्य विचारों को पढने के लिया हमारे पास समय नहीं है आलोचनाओ और लुफ्त्गी के लिया समय है संस्कारों के कमी है …….

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