संस्कार सुर में फुरक कर,
‘सो-हं’ की गंगा लुढ़क कर;
‘हं’ तिरोहित ‘सो’ में हुआ,
‘सो’ समाहित ‘हं’ में हुआ !
वह विराजित विभु में हुआ,
अपना पराया ना रहा;
अपनत्व पा महतत्व का,
था सगुण गुण ले मन रहा !
शाश्वत खिला पा द्युति दिशा,
मन महल वत चमका किया;
रहना था बस उसका हुआ,
उर चितेरा चहका किया !
थे पात्र उझके से रहे,
आधार काल बने रहे;
थे देश भित्ति वत लसे,
आयाम थे चित ने तरे !
अध्यात्म की कुछ आँधियाँ,
थीं ले गईं गहराइयाँ;
जिसमें मिली ‘मधु’ झलकियाँ,
आकाश- गंगा झाँक कर !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’