संत दादू ने प्रेम की गंगा बहायी

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ललित गर्ग

भारतभूमि अनादिकाल से संतों एवं अध्यात्म के दिव्यपुरुषों की भूमि रहा है। यहां का कण-कण, अणु-अणु न जाने कितने संतों की साधना से आप्लावित रहा है। संतों की गहन तपस्या और साधना के परमाणुओं से अभिषिक्त यह माटी धन्य है और धन्य है यहां की हवाएं, जो तपस्वी एवं साधक शिखर-पुरुषों, ऋषियों और महर्षियों की साक्षी है। ऐसे ही एक महान संत थे दादू दयाल। वे कबीर, नानक और तुलसी जैसे संतों के समकालीन थे। वे अध्यात्म की सुदृढ़ परम्परा के संवाहक भी थे। भारत की उज्ज्वल गौरवमयी संत परंपरा में सर्वाधिक समर्पित एवं विनम्र संत थे। वे गुरुओं के गुरु थे, उनका फकडपऩ और पुरुषार्थ, विनय और विवेक, साधना और संतता, समन्वय और सहअस्तित्व की विलक्षण विशेषताएं युग-युगों तक मानवता को प्रेरित करती रहेगी। निर्गुण भक्ति के माध्यम से समाज को दिशा देने वाले श्रेष्ठ समाज सुधारक, धर्मक्रांति के प्रेरक और परम संत को उनके जन्म दिवस पर न केवल भारतवासी बल्कि सम्पूर्ण मानवता उनके प्रति श्रद्धासुमन समर्पित कर गौरव की अनुभूति कर रहा हैं।
दादू का जन्म गुजरात प्रांत के कर्णावती (अहमदाबाद) नगर में फाल्गुण सुदी अष्टमी संवत् 1601 ई0 को हुआ था, जो इस वर्ष अंग्रेजी दिनांक 5 मार्च 2017 को मनाया जायेगा। संत दादू को जन्म के तत्काल बाद किसी अज्ञात कारण से इनकी माता ने लकड़ी की एक पेटी में उनको बंद कर साबरमती नदी में प्रवाहित कर दिया। कहते हैं कि लोदीराम नागर नामक एक ब्राह्मण ने उस पेटी को देखा, तो उसे खोलकर बालक को अपने घर ले आया। बालक में बाल सुलभ चंचलता के स्थान पर प्राणिमात्र के लिए करुणा और दया भरी थी।
दादू ने बारह वर्ष तक सहज योग की कठिन साधना करके सिद्धि प्राप्त की थी। भक्ति रस का पान करते हुए वे हर क्षण ईश्वर भक्ति में मग्न रहते थे। वे दया की साकार मूर्ति थे। अपने दुश्मनों के प्रति भी सदैव दयालु रहे। जिन्होंने इन्हें कष्ट दिया, उनका भी उपकार माना। इसीलिए लोग इनको दयाल नाम से पुकारने लगे और दादूजी दादूदयाल बन गये। एक दिन का प्रसंग है कि दादूजी अपनी कोठरी में ध्यान लगाकर बैठे थे। ईष्र्या और द्वेष के कारण कुछ ब्राह्मणों ने कोठरी के द्वार्र इंटों से बन्द कर दिया। जब वे ध्यान से जागे तो उन्हें बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिला। वे पुनः ध्यानमग्न हो गये। कई दिनों तक ध्यानस्थ रहने के बाद वे तब बाहर निकल पाये जब लोगों को जानकारी हुई और उन्होंने बन्द द्वार खोला। द्वार बंद करने वालों के प्रति लोगों में इतना रोष पैदा हो गया कि उन्हें दण्ड देने पर उतारू हो गये। लेकिन दादूदयाल ने समझाकर कहा कि इनकी कृपा से ही मैं इतने दिनों तक भगवान् के चरणों में लौ लगाये रहा। अतः इन्हें दण्ड देने के बजाय इनका उपकार मानना चाहिए। एक बार अकबर बादशाह से फतेहपुर सीकरी में दादूदयाल की मुलाकात हुई। अकबर ने पूछा कि खुदा की जाति, अंग, वजूद और रंग क्या है? दादूदयाल ने दो पंक्तियों में इस प्रकार उत्तर दिया कि- ‘‘इसक अलाह की जाति है, इसक अलाह का अंग। इसक अलाह औजूद है, इसक अलाह का रंग।।
दादू का विवाह हुआ और इनके घर में दो पुत्र और दो पुत्रियों का जन्म हुआ। इसके बाद इनका मन घर-गृहस्थी से उचट गया और ये जयपुर के पास रहने लगे। यहां सत्संग और साधु-सेवा में इसका समय बीतने लगा, पर घर वाले इन्हें वापस बुला ले गये। अब दादू-जीवनयापन के लिए रुई धुनने लगे। इसी के साथ उनकी भजन साधना भी चलती रहती थी। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि फैलने लगी। केवल हिंदु ही नहीं, अनेक मुस्लिम भी उनके शिष्य बन गये। यह देखकर एक काजी ने इन्हें दण्ड देना चाहा, पर कुछ समय बाद काजी की ही मृत्यु हो गयी। तबसे सब उन्हें अलौकिक पुरुष मानने लगे।
दादू धर्म में व्याप्त पाखण्ड के बहुत विरोधी थे। कबीर की भांति वे भी पण्डितों और मौलवियों को खरी-खरी सुनाते थे। उनका कहना था कि भगवान की प्राप्ति के लिए कपड़े रंगने या घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। वे सबसे निराकार भगवान की पूजा करने तथा सद्गुणों को अपनाने का आग्रह करते थे। आगे चलकर उनके विचारों को लोगों ने ‘दादू पन्थ’ का नाम दे दिया। इनके मुस्लिम अनुयायियों को ‘नागी’ कहा जाता था, जबकि हिन्दुओं में वैष्णव, विरक्त, नागा और साधु नामक चार श्रेणियां थीं।
सत्व, रज, तम तीनों गुणों को छोड़कर वे त्रिगुणातीत बन गये थे। उन्होंने निर्गुण रंगी चादरिया रे, कोई ओढ़े संत सुजान को चरितार्थ करते हुए सद्भावना और प्रेम की गंगा को प्रवाहित किया और इस निर्गुणी चदरिया को ओढ़ा है। उन्हें जो दृष्टि प्राप्त हुई है, उसमें अतीत और वर्तमान का वियोग नहीं है, योग है। उन्हें जो चेतना प्राप्त हुई, वह तन-मन के भेद से प्रतिबद्ध नहीं है, मुक्त है। उन्हें जो साधना मिली, वह सत्य की पूजा नहीं करती, शल्य-चिकित्सा करती है। सत्य की निरंकुश जिज्ञासा ही उनका जीवन-धर्म रहा है। वही उनका संतत्व रहा। वे उसे चादर की भाँति ओढ़े हुए नहीं हैं बल्कि वह बीज की भाँति उनके अंतस्तल से अंकुरित होता रहा है।
संत दादू समाज में फैले आडम्बरों के सख्त विरोधी थे। उन्होंने लोगों को एकता के सूत्र का पाठ पढ़ाया। उन्होंने भगवान को कहीं बाहर नहीं अपने भीतर ही ढूंढ़ा। स्वयं को ही पग-पग पर परखा और निखारा। स्वयं को भक्त माना और उस परम ब्रह्म परमात्मा का दास कहा। वह अपने और परमात्मा के मिलन को ही सब कुछ मानते। यही कारण है कि उनका जीवन दर्शन इंसान को जीवन की नई प्रेरणा देता है।
सतगुरु की कृपा जीव को ब्रह्म बना देती है। वैसे आज झूठे-पाखण्डी एवं सुविधावादी साधुओं की भरमार है, जो भ्रम, आडम्बरों और अंधविश्वासों की जड़ें मजबूत करते हैं, जो स्वयं ही विषय-वासनाओं के दास हंै। केवल मुख से राम का नाम लेते रहते हैं। लेकिन दादूदयाल इसके सख्त विरोधी रहे हैं और प्रतिक्षण राम के साथ रहने की बात करते हैं। चाहे गुफा में रहे अथवा पर्वत पर या घर में, सर्वत्र राम के साथ रहे और जब यह शरीर छुटे, तो ऐसी जगह छूटे, जहाँ पशु-पक्षियों के भोजन के काम आ सके। इसलिए सद्गुरु की खोज होनी चाहिए। यदि सद्गुरु मिल गया जीवन सफल हो गया तभी तो उन्होंने कहा कि ‘‘एकै नाँव अलाह का पढ़ि हाफिज हूवा।’’ हाफिज होने के लिए, विद्वान होने के लिए, जीवन को सार्थक करने के लिये एक अल्लाह का नाम पढ़ना काफी है। लेकिन उसे पढ़ कौन सकता है? वही जिसे प्रेम की पाती वाँचने का विवेक हो, बिना प्रेम एवं करुणा के वेद-पुराण-कुरान पढ़ना बेकार है।
दादू सर्वधर्म सद्भाव के प्रतीक थे, उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भावना एवं सौहार्द को बल दिया। उनको हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही संप्रदायों में बराबर का सम्मान प्राप्त था। दोनों संप्रदाय के लोग उनके अनुयायी थे। आज भी दादूधाम में हर जाति, धर्म, वर्ग, सम्प्रदाय के लोग बिना किसी भेदभाव के आते हैं। यह धाम जयपुर से 61 किलोमीटर दूर स्थित ‘नरेगा’ में है। यहां इस पंथ के स्वर्णिम और गरिमामय इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। यहां के संग्रहालय में दादू महाराज के साथ-साथ अन्य संतों की वाणी, इसी पंथ के दूसरे संतों के हस्तलिखित ग्रंथ, चित्रकारी, नक्काशी, रथ, पालकी, बग्घी, हाथियों के हौदे और दादू की खड़ाऊँ आदि संग्रहित हैं। यहां मुख्य उत्सव फाल्गुन पूर्णिमा को होता है। इस अवसर पर लाखों लोग जुटते हैं, जो बिना किसी भेदभाव के एक पंगत में भोजन करते हैं।
विश्व मानव-वसुधैव कुटुम्बकम् के दर्शन के प्रेरक महापुरुष, सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक पाखंडों के खिलाफ आवाज उठाने वाले महान् समाज सुधारक एवं जन-जन को अध्यात्म की एकाकी यात्रा का मार्ग सुझाने वाले परम संत दादू दयाल इस जगत में साठ वर्ष बिताकर 1660 ई0 में परमधाम को चले गये।

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