सरस्वतीः भूगर्भ में अंगड़ाई लेती नदी

-प्रमोद भार्गव-

ganga1    वैदिक कालीन नदी सरस्वती के अस्तित्व और उसकी भूगर्भ में अंगड़ाई ले रही जलधारा को लेकर भूगर्भशास्त्री, पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों में लंबे समय से मतभेद बना है। यह मतभेद सैटेलाइट मैंपिग के बावजूद कायम रहा। यहां तक कि 6 दिसंबर 2004 को भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री ने संसद में भी यह घोशणा कर दी थी कि सरस्वती का कोई मूर्त प्रमाण नहीं है। यह मिथकीय है। दरअसल ये साक्ष्य किसी विरोधाभास शोध के निश्कर्श से कहीं ज्यादा वामपंथी सोच को पुख्ता करने के नजरिए से सामने आते रहे हैं, जिससे भारत की प्राचीन ज्ञान-परंपरा को नकारा जा सके। किंतु अब न केवल हरियाणा के यमुनानगर जिले के आदिबद्री में सरस्वती का उद्गम स्थल खोज लिया गया है, बल्कि मुगलवाली गांव में धरातल से सात फीट नीचे तक खुदाई करके नदी की जलधारा भी फूट पड़ी है। इस धारा का रेखामय प्रवाह तीन किमी की लंबाई में नदी के रूप में सामने आया है और आगे खुदाई का सिलसिला जारी है। एक मृत पड़ी नदी के इस पुनर्जीवन से उन सब अटकलों पर विराम लगा है, जो वेद-पुरणों में वार्णित इस नदी को या तो मिथकीय ठहराते थे या इसका अस्तित्व अफगानिस्तान की ‘हेलमंद‘ नदी के रूप में मानते थे।

सरस्वती की भौगोलिक स्थिति का बखान ऋग्वेद, महाभारत, ऐतरेय ब्राह्मण, भागवत और विश्णु पुराणों में है। ऋग्वेद में सप्तसिंधु क्षेत्र की महिमा को प्रस्तुत करते हुए जिन सात नदियों का वर्णन किया गया है, उनमें से एक सरस्वती है। अन्य छह शतद्रु (सतलुज) एविपासा (व्यास) एअसिकिनी (चिनाब) धएपरुश्णी (रावी) वितस्ता (झेलम) और सिंधु नदियां हैं। इनमें सरस्वती और सिंधु बड़ी नदियां थीं। सतलुज और यमुना सरस्वती  की सहायक नदियां रही हैं। सरस्वती का प्रवाह पूरब से पश्चिम की ओर था, लेकिन हजारों साल पहले आए भयंकर भूकंप के कारण यमुना और सतुलज सरस्वती से अलग हो गईं। इन दोनों नदियों के मार्ग बदलने के बाद सरस्वती धीरे-धीरे अस्तिव खोती हुई भूगर्भ में विलीन हो गई। कुछ भूगर्भशास्त्रियों का ऐसा मानना है कि 12 हजार साल पहले तक यह नदी स्वच्छ जलधारा के रूप में प्रवहमान थी। लेकिन ऋग्वेद और अन्य प्राचीन ग्रंथों में सरस्वती की महत्ता का गुणगान है, उससे लगता है पांच से सात हजार साल पहले तक यह नदी धरा पर बहती थी। क्योंकि नदी के धरती की कोख में समा जाने का वर्णन ऋग्वेद में नहीं है। जबकि ऋग्वेद की 60 ऋृचाओं में सरस्वती का उल्लेख है। इनमें कहा गया है, सरस्वती हिमालयी पर्वतों से निकलकर, सप्तसिंधु क्षेत्र में बहती हुई कच्छ के रण में जाकर समुद्र में गिरती है। यह क्षेत्र वर्तमान में पाकिस्तान और भारत के पंजाब व हरियाणा में है।
आगे चलकर सरस्वती का जो वर्णन महाभारत में है, उसमें इस नदी के विलोप होने के संकेत मिलते हैं। महाभारत के अनुसार सरस्वती समुद्र में समाने से पहले राजस्थान के रेगिस्तान विनसन में ही लुप्त हो जाती है। विष्णु पुराण में नदी के सिमटने के संकेत कवश नाम के एक मल्लाह द्वारा सरस्वती की वंदना करने की कथा के रूप में मिलते हैं। इस कथा के अनुसार पृथु द्वारा कराए जा रहे यज्ञ में जब कवश ने हिस्सा लेने की कोशिश की तो ऋृशियों ने उसे बाहर कर दिया। निराश कवश ने मरूस्थल में जाकर सरस्वती की स्तुति की। फलतः सरस्वती की जलधार उसके चारों और फूट पड़ी। इस चमत्कार से प्रभावित होकर ऋृशियों ने कवश को यज्ञ में भागीदारी करने की अनुमति दे दी। यही कथा ऐतरेय ब्रह्मण और भागवत पुराण में भी कही गई है।
कॉर्बन डेटिंग भी इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि 2000 से 1800 वर्श ईसा पूर्व यह नदी विलुप्त हुई। महाभारत, विश्णु पुराण, भागवत पुराण और ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथों की रचना लगभग इसी समय हुई बताई जाती है। साफ है, प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में सरस्वती का जो वर्णन है, वह कपोल कल्पित न होते हुए, वास्तिवक है। नदी के सूखने के बाद हड़प्पा संस्कृति के उपासक गंगा यमुना के मैदानों की और पलायन कर गए। चूंकि इन लोगों की स्मृति में सरस्वती जीवंत थी, इसलिए इन्होंने प्रयाग में त्रिवेणी स्थल पर गंगा और यमुना के साथ सरस्वती के अंतसलिला होने की कथा गढ़ ली। सिंधु घाटी सभ्यता का नाम, हालांकि सिंधु नदी के नाम पर पड़ा था, किंतु इसे ही सरस्वती संस्कृति, सरस्वती सभ्यता और सिंधु सरस्वती सभ्यता के नामों से जाना जाता रहा है। इसी सभ्यता में हड़प्पा संस्कृति फली-फूली थी।

प्राचीन ग्रंथों में दर्ज सरस्वती के अस्तित्व को लेकर देशी-विदेशी भूविज्ञानी और भारतीय संस्कृति के अध्येता इसकी शोध और जमीनी खोज में जुटे रहे हैं। फ्रांस के भूविज्ञानी विवियेन सेंट मार्टिन ने ‘वैदिक भूगोल‘ की रचना की थी। 1860 में लिखी इस पुस्तक में सरस्वती के साथ घग्गर और हाकड़ा की भी पहचान की गई थी। इसके बाद 1886 में अंगेजी हुकूमत ने भारत का भौगोलिक सर्वेक्षण कराया था। इसके अधीक्षक आरडी ओल्ढ़म की रिपोर्ट बगंाल के एशियाटिक सोसायटी जर्नल में छपी है। इस रिपोर्ट में सरस्वती के नदी तल और इसकी सहायक नदियों सतुलज व यमुना के पथ रेखांकित किए गए हैं। 1893 में इस रिपोर्ट ने प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक सीएफ ओल्ढ़म को प्रभावित किया। ओल्ढ़म ने इसी जर्नल में सरस्वती के भूगर्भ में उपस्थित होने की पुश्टि की है। साथ ही घग्धर और हाकड़ा के सूखे पथों का भी ब्यौरा दिया है। ये नदियां पंजाब में बहती थीं। पंजाब की लोकश्रुतियों में आज भी ये नदियां विद्यमान हैं। इन्हीं नदियों के पथ पर एक समय सरस्वती बहती थी। इसके बाद 1918 में टैसीटोरी, 1940-41 में औरेल स्टाइन और 1951-53 में अमलानंद घोश ने सरस्वती की खोज में अह्म भूमिका निभाई। इन सब विद्वानों ने अपने निष्कर्शों में सिद्ध किया कि सरस्वती के विलोपन का मुख्य कारण सतलुज और यमुना की धार बदलना था। सतलुज की धार सरस्वती से अलग होकर सिंधु में जा मिली। लगभग इसी समय यमुना ने भी अपनी धारा का प्रवाह बदल दिया और वह पश्चिम में अपने बहने का रुख बदलकर, पूर्व में बहकर गंगा में जा मिली। नतीजतन सरस्वती सूखती चली गई।
जर्मन विद्वान हर्बट विलहेमी ने भी सरस्वती के अस्त्तिव और इसके पथ का गूढ़ अध्ययन किया। 1969 में इस शोध की रिपोर्ट ‘जेड जियोमोर्फोलॉजी‘ में प्रकाशित हुई। इसमें सरस्वती नदी पर 1892 से 1942 तक अध्ययनों का सिलसिलेवार ब्यौरा व संदर्भ देते हुए हर्बट ने साबित किया कि सिंधु नदी की जो धारा उत्तर-दक्षिण में बहती है, उसके पूर्व में 40 से 110 किमी लंबाई में एक प्राचीन सूखा नदीतल है, जो हकीकत में सरस्वती का ही है। एक समय वजूद में रहे इन्हीं नदीतलों को हाकड़ा, घग्घर, सागर, संकरा और वार्हिद नामों से जाना जाता था।
सरस्वती की खोज में पाकिस्तान के पुराशास्त्री भी लगे रहे हैं। रफीक मुगल ने 414 पुरातात्त्विक स्थलों की खोज की है। ये स्थल बहावलपुर के रेगिस्तान और चोलिस्तान में फैले हुए हैं। इसी क्षेत्र में हाकड़ा का करीब 300 मील लंबा नदी तल है। इन नदी तलों का अस्तित्व ईसापूर्व 99 से लेकर तीसरी और चौथी शताब्दि तक माना गया। इस शोध की पुश्टि हावर्ड विश्व विद्यालय के प्राध्यापक बायंट ने भी की है। रफीक ने जो नदीतल खोजे हैं, उन्हीं के समीप भारत के बीकानेर इलाके के उत्तर में अमलानंद घोश ने भी 100 छोटे नदी तलों को सरस्वती के रूप में चिन्हित किया है।
इन विद्वानों के अलावा 19वीं और 20वीं सदी में कई पुरावेत्तओं ने प्राचीन संस्कृत ग्रंथों के आधार पर इसकी खोज की। इनमें क्रिश्चियन लेसन, मैक्समूलर, जेन माकिनटोस और माइकल डेनिनो जैसे विद्वान शामिल हैं। इन सभी के निश्कर्शों में घग्घर-हाकड़ा नदियों को वैदिककालीन नदी माना है। यहां तक कि इन विद्वानों ने 19वीं सदी में 1500 किमी लंबी नदी की धारा का प्रवाह भी खोज लिया था। सरस्वती और घग्घर-हाकड़ा नदी प्रवाह तंत्र एक जैसा होने के कारण ये विद्वान एकमत थे। इन्होंने सरस्वती का उद्गम स्थल हिमाचल प्रदेश में शिवालिक पहाड़ियों से निकलने वाली जलधाराओं को माना है।
इन सब निर्विवाद शोधों के बावजूद भारत के वामपंथी सरस्वती नदी के अस्त्तिव का होना पूरी तरह नहीं स्वीकारते ? स्वीकारते भी हैं तो इसे अफगानिस्तान की हेलमंड या हरक्सवती के रूप में चिन्हित करते हैं। इसे ‘अवेस्ता‘ में हरखवती कहा गया है। प्रसिद्ध वामपंथी इतिहासकार रामशरण शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘एडमेंट ऑफ दी आर्यंस इन इंडिया‘ में इसी धारणा की पुश्टि की है। कमोवेश ऐसे ही दावे इरफान हबीब और रोमिला थॉपर के हैं। जबकि ऋग्वैद के सूक्तों में स्पश्ट उल्लेख है कि सरस्वती हिमालयी पर्वतों से निकलकर कच्छ में जाकर सागर में विलीन होती है। दरअसल संस्कृत ग्रंथों के तथ्यों को वामपंथी इसलिए नकारते रहे है, जिससे इनमें दर्ज भारतीय गौरव-गाथा को झुठलाया जा सके। इसीलिए वामपंथी इतिहासकार हड़प्पा सभ्यता को आर्यों की पूर्ववर्ती सभ्यता मानते हैं और आर्यों को बाहर से आया हुआ मानते है। दरअसल आर्य संस्कृति का इतिहास लेखन औपनिवेशिक सोच के आधार पर हुआ है। अंग्रेजी इतिहासकारों ने एक खास वार्ग को बाहरी बताकर समाज को बांटने की कोशिश की है। यह अवधारणा अंग्रेजी इतिहासकारों ने हड़प्पाकालीन बहुत कम स्थलों की खोज के आधार पर गढ़े थे किंतु अब अब तक 2700 से भी अधिक हड़प्पाई स्थलों की खोज हो चुकी है, जिनके आधार पर निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि हड़प्पा और आर्यों की सभ्यता एक ही थी, वह प्रथक-प्रथक नहीं थी। राश्ट्रीय संग्रहालय के पुरातत्त्ववेत्ता संजीव कुमार सिंह की पुस्तक ‘ग्लौरी दैट वाज हड़प्पन सिविलाइजेशन‘ में इन सभी स्थलों की सूची दी गई है। वैसे भी अब सरस्वती नदी के प्रवाह के साक्ष्य मिलने के बाद सिद्ध हो गया है कि ऋग्वैद आदि ग्रंथों में उल्लेखित सरस्वती का भूगोल आधारहीन कल्पना नहीं है।
बाद में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इस विलुप्त नदी को खोजने की पहल की। 15 जून 2002 को केंद्रीय संस्कृति मंत्री जगमोहन ने सरस्वती के नदीतलों का पता लगाने के लिए खुदाई की घोशणा की। इस खोज को संपूर्ण वैज्ञानिक धरातल देने की दृश्टि से इसमें इसरो के वैज्ञानिक बलदेव साहनी, पुरातत्त्वविद् एस कल्याण रमन, हिमशिला विशेशज्ञ वाईके पुरी और जल सलाहकार माधव चितले को शामिल किया गया। हरियाणा में आदिबद्री से लेकर भगवान पुरा तक पहले चरण में और दूसरे चरण में भगवान पुरा से लेकर राजस्थान सीमा पर स्थित कालीबंगन की खुदाई प्रस्तावित थी। यह खोज कोई ठोस परिणाम दे पाती इससे पहले राजग सरकार गिर गई और डॉ मनमोहन के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने 6 दिसंबर 2004 को संसद में यह बयान देकर कि इस नदी का कोई मूर्त रूप नहीं है, इसे मिथकीय नदी ठहराकर, खोज की नई संभावनाओं पर विराम लगा दिया। नतीजतन वाजपेयी सरकार की पहल अधूरी रह गई।
लेकिन राश्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के दर्शन लाल जैन ‘सरस्वती शोध संस्थान‘ की अगुवाई में नदी की खोज की सार्थक पहल करते रहे। उन्होंने अपनी खोज के दो प्रमुख आधार बनाए। एक विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में प्राचीन इतिहास विभाग के प्राध्यापक रहे डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर की सरस्वती खोज पदयात्रा और दूसरा 2006 में आए तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग के सर्वे और खुदाई को। वाकणकर की यात्रा आदिबद्री से शुरू होकर गुजरात के कच्छ के रण पर जाकर समाप्त हुई थी। ओएनजीसी ने डॉ एमआर राव के नेतृत्व में सरस्वती के पथ व नदीतलों के पहले तो उपग्रह-मानचित तैयार किए, फिर धरातलीय साक्ष्य जुटाए। हिमाचल प्रदेश में सिरमौर जिले के काला अंब के पास ‘सरस्वती टियर फाल्ट‘ का गंभीर अध्ययन किया। अध्ययन के परिणाम में पाया कि हजारों साल पहले आए भूकंप के कारण यमुना और सतलुज ने अपने मार्ग बदल दिए थे। यमुना पूरब में बहती हुई दिल्ली पहुंच गई और सतलुज पश्चिम होते हुए सिंधु नदी में जा मिली। जबकि पहले इन दोनों नदियों का पानी सरस्वती में मिलकर हरियाणा, राजस्थान व गुजरात होते हुए कच्छ में मिलता था।
अवशेशीय अध्ययन के बाद ओएनजीसी ने राजस्थान के जैसलमेर से सात किलोमीटर दूर जमीन में करीब 550 मीटर तक गहरा छेद किया। यहां 7600 लीटर प्रति घंटे की दर से स्वच्छ जल निकला। इस प्रमाण के बाद ओएनजीसी ने भारत विभाजन के बाद भारतीय पुरातत्व संस्थान द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण का भी अध्ययन किया। इससे पता चला कि हरियाणा व राजस्थान में करीब 200 स्थलों पर सरस्वती के पानी के निशान हैं। उपग्रह से चित्र लेकर नदी का मार्ग तलाशने के काम में अर्से से प्रसिद्ध वैज्ञानिक यशपाल और राजेश कोचर भी लगे हुए हैं। इन्होंने इस वैदिक कालीन नदी के अस्त्तिव की भू-गर्भ में होने की पुश्टि की है।
ओएनजीसी के अध्ययन से पहले ऋग्वैद के आधार पर 1995 में सरस्वती की प्रामाणिक खोज अमेरिका की नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी और ज्योग्राफिक इंफोरमेशन सरस्वती के उपगृह मानचित्र भी लिए हैं। इनके निश्कर्श में उल्लेख है कि सरस्वती और सिंधु दो अलग-अलग नदियां थीं। इन चित्रों का सूक्ष्म निरीक्षण करने से पता चलता है कि जैसलमेर क्षेत्र में बड़ी मात्रा में भूजल के स्त्रोत हैं। ये वही सा्रेत या जलधाराएं हैं, जिनका बाखान ऋग्वैद में सरस्वती नदी के पथ के रूप में किया गया है। लगभग यही निश्कर्श भारतीय अंतरिक्ष शोध संस्थान और भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र द्वारा 1998 में शुरू किए शोधों में सामने आए हैं। गोयाकि ऐतिहासिक साक्ष्यों की पुश्टि इतिहास सम्मत प्रमाणों से करने की जरूरत है, न कि किसी वाद या विचार के आधार पर ?  अब आदिबद्री से ही इस लुप्त नदी के पुनर्जन्म की शुरूआत हुई है, जो तय है कच्छ के रण तक सरस्वती नदी के रूप में साकार दिखाई देगी।

संदर्भ- ऋृग्वैद, महाभारत, भागवत पुराण, विश्णु पुराण, ऐतरेय ब्राहमण
-साहित्य अमृत, दिल्ली, नवबंर 2009 ;विशन टंडन का आलेख
-जनसत्ता, दिल्ली 18.9.2011 ;विशन टंडन का आलेख
-एवेंट ऑफ दि आर्यंस इन इंडिया-डॉ रामशरण शर्मा
-ग्लोरी दैट वाज हड़प्पन सिविलाइजेशन- संजीव कुमार सिंह

1 COMMENT

  1. धर्मनिरपेक्ष बुद्धिवादियों को बड़ा कष्ट हो रहा होगा. उनके दिल और दिमाग में यह बात और सरस्वती की खोज उतरना कठिन है. सनातन धर्मियों की पुस्तकों,प्रतीकों, इतिहास, कला ,परम्परा ,आदि का विरोध करके ये स्वयं ही स्वयं को धर्म निरपेक्ष होने का प्रमाणपत्र दे देते हैं. ”राम सेतु” हो,कृष्ण की ”द्वारका” हो, कुरुक्षेत्रे की युद्ध भूमि हो, इन स्थानो की इलेक्ट्रानिक आयु वैज्ञानिक तरीके सेतय करने के बाद भी इन स्वयंभू धर्मनिरपेक्ष विद्वानो को इन बातों पर यकीन नहीं आता. आज १६ मई को अमेरिका के एक प्रान्त मैसचुचेस्ट में ”हिन्दू परम्परा दिवस” मनाया जा रहा है। ये विद्वान इस दिवस को किस रूप में लेते हैं?

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