आधुनिक भारत निर्माण में सरदार पटेल की भूमिका

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(सरदार पटेल के जन्मदिवस 31 अक्तूबर पर विशेष)

                     प्रभुनाथ शुक्ल 

सरदार वल्लभ भाई पटेल का व्यक्तित्व आधुनिक भारत का राष्ट्रवादी चेहरा है। जब हम भारत की बात करते हैं तो इतिहास का अध्ययन ‘सरदार’ के बगैर अधूरा है। ‘सरदार’ शब्द स्वयं में विराट और सम्पूर्णता का द्योतक है। भारत के ग्रामीण इलाकों में ‘सरदार’ शब्द प्रमुखता से से आता है। सरदार का मतलब घर का मालिक यानी एक भरोसेमंद पुरुषत्व का महानायक। एक ऐसा नायक जिसकी उपलब्धता यह सुनिश्चित करती है कि अगर घर में सरदार मौजूद है तो उसकी सुरक्षा की चिंता करने की जरूरत नहीँ है। राष्ट्रवाद के संदर्भ में उसी तरह सरदार पटेल को देखा जाता था। उनके नेतृत्व पर लोगों को ख़ुद से अधिक विश्वास था। लेकिन आधुनिक भारतीय राजनीति और उसके दर्शन में पटेल विभाजित हो गए हैं। अवसरवादी और सत्ता सुलभ राजनीति ने सरदार के व्यक्तित्व को बेहद कम आँकने की भूल की है। राष्ट्रवाद उनमें कूट- कूट कर भरा था जिसकी वजह से उन्हें ‘सरदार’ की उपाधि मिली। स्वाधीन भारत की काँग्रेस सरकार में उन्होंने उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री के रूप में काम किया। 

सरदार वल्लभभाई झावेरभाई पटेल का जन्म 31 अक्तूबर 1875 को गुजरात प्रांत के नडियाद में पाटीदार परिवार में हुआ था। पटेल अपने पिता झवेरभाई पटेल एवं माँ लाडबा की चौथी संतान थे। उनकी शिक्षा मुख्यतः स्वाध्याय सेहुई। लन्दन जाकर उन्होंने वकालत की शिक्षा ग्रहण किया। अहमदाबाद की अदालत में उन्होंने कालीकोट पहन कर प्रैक्टिस भी किया। लेकिन उनका मन वकालत में नहीँ लगा। देश उस दौर में स्वाधीनता आंदोलन की आँच में गर्म था। अँग्रेजी हुकूमत से देश लड़ रहा था। गाँधीजी स्वाधीनता आंदोलन में अहम भूमिका निभा रहे थे। उनके विचार युवाओं को काफी प्रभावित कर रहे थे। आखिरकार गाँधीजी के विचार से प्रभावित होकर पटेल स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े। 

सरदार पटेल का सबसे बड़ा योगदान 1918 में गुजरात के खेडा संघर्ष में हुआ। किसान सूखे की चपेट में थे। अंग्रेजी हुकूमत से लगान में छूट की मांग कर रहे थे, लेकिन अँगरेज़ यानी गोरों की सरकार इस मांग को नहीँ मान रही थीं। पटेल गांधीजी और दूसरे नेताओं के साथ मिलकर इस किसानों की मांग का मुखर समर्थन किया। किसानों से लगान न जमा करने के लिए प्रेरित किया। बारडोली सत्याग्रह के बाद पटेल की छबि पूरे देश में अलग रूप से निखरी। उन्हीं की मुखरता की वजह से न्यायिक अधिकारी ब्लूमफील्ड और राजस्व अधिकारी मैक्सवेल को 22 फीसदी लगान वृद्धि को वापस लेना पड़ा। जिसकी वजह से बारडोली सत्याग्रह में किसानों की जीत हुई। इसी वजह से पटेल का नाम सीधे बारडोली सत्याग्रह से जुड़ गया। गुजरात के एक दूसरे बड़े किसान आंदोलन में सत्यागह सफल होने पर वहां की महिलाओं ने वल्लभभाई पटेल को ‘सरदार’ की उपाधि प्रदान किया। पूरे गुजरात में किसान आंदोलन में पटेल की सशक्त भूमिका पर महात्मा गाँधी ने कहा था कि ‘इस तरह का हर संघर्ष, हर कोशिश हमें स्वराज के करीब पहुंचा रही है’। 

भारतीय राजनीति के इतिहास में राजशाही यानी सामंती व्यवस्था ख़त्म करने में सरदार पटेल का योगदान अहम था। गृहमंत्री के रूप में उनकी पहली प्राथमिकता रजवाडे ख़त्म करना था। वह सामंती शासन व्यवस्था के खिलाफ थे। जिसकी वजह से देशी रियासतों का भारत संघ में विलय उनका मुख्य लक्ष्य था। इसीलिए उन्हें ‘भारत का लौहपुरष’ कहा जाता है। ‘भारत का प्रचीन इतिहास’ लिखने वाले तीन रूसी लेखकों अन्तोनोवा, बोगर्द लेविन और कोतोव्स्की ने लिखा है कि भारत में रियासतों के एकीकरण के लिए 1947 में एक विशेष मंत्रालय गठित किया गया जिसकी जिम्मेदारी पटेल को दी गई। यह भी लिखा गया है कि राज्यों के विलय के लिए राजाओं को 5.6 करोड़ की राजकीय पेंशन भी दी गई।

भारत में अँग्रेजी शासनकाल में कुल 601 देशी राज्य थे जिसमें 555 का विलय किया गया। लेकिन कुछ रियासतों को मिली विशेष सुविधाओं ने एकीकरण में समस्या खड़ी किया। जिसमें हैदराबाद, कश्मीर , जूनागढ़ और मैसूर थे। भारत संघ के साथ रियासतों के समझौते में 50 से लेकर 26 लाख तक सालाना पेंशन देशी रियासतों को देनी पड़ती थीं। राज्यों को विशेष सुविधाएं भी मिलती थीं। निजाम हैदराबाद, कश्मीर को बाद में शामिल किया गया। हैदराबाद रियासत के विलय के लिए सेना तक भेजनी पड़ी। क्योंकि निजाम हैदराबाद और जूनागढ़ पाकिस्तान और अँग्रेजी हुकूमत से मिल कर वह विलय प्रस्ताव नहीँ स्वीकार करना चाहते थे।  जूनागढ़ ने तो बाकायदा पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दिया था। लेकिन सरदार के सामने एक न चली अंततः हैदराबाद और जूनागढ़ में सेना भेज कर सरदार पटेल ने इन देशी राज्यों को भारतीय संघ में मिला लिया। जबकि राजाओं को भागकर अपनी प्राण रक्षा करनी पड़ी। 

भारत में जब भी कश्मीर समस्या पर चर्चा होती है तो इस समस्या के लिए सीधे नेहरू को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई मुद्दों पर पंडित नेहरू को घेरा है। जिसके बाद यह विषय काँग्रेस और भाजपा के बीच सियासी बतंगड बन जाती है। सोशलमीडिया पर नेहरू पर टिप्पणी को लेकर पीएम मोदी की काफी आलोचना भी होती है। इतिहास में जो बातें आई हैं उसमें कहा गया है कि नेहरू और पटेल की नीतियों में काफी टकराव था। पटेल किसी फैसले पर त्वरित कार्रवाई चाहते थे जबकि पंडित नेहरू लचीला और समझौतावादी रुख अपनाते थे। पटेल राष्ट्रीय मामलों एवं राष्ट्रवाद को लेकर काफी प्रखर थे। सरदार राष्ट्रवाद के मसले पर वह कोई लचीला सिद्धांत नहीँ अपनाना चाहते थे जो बाद में देश के लिए फोड़ा बने जबकि पंडित नेहरू इस विचारधारा में विश्वास नहीँ रखते थे।

भारत संघ में राज्यों को विलय को लेकर पटेल की नीति साफ थीं। उन्होंने हैदराबाद, मैसूर और जूनागढ़ के विरोध को कुचल कर एकीकरण किया। जबकि नेहरू को यह नीति पसंद नहीँ आयीं और कश्मीर मसले को अपने पास रख लिया। नेहरूजी कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय समस्या बताते हुए इसे अपने पास रख लिया। यहाँ तक तो ठीक था लेकिन उन्होंने एक बड़ी भूल कर दिया जो भारत के लिए नासूर बन गई। उन्होंने कश्मीर समस्या का अंतर्रष्ट्रीयकरण कर दिया और इस मसले को  संयुक्तराष्ट्रसंघ में लेकर चले गए। उनकी यह सबसे बड़ी भूल थीं। उसी समस्या को भारत आज तक झेल रहा है। लेकिन सरदार पटेल की विचारधारा के समर्थक प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी कश्मीर को संवैधानिक जटिलताओं से मुक्त कर नई आजादी दिलाई। भारत के लिए 05 अगस्त 2019 दिन अहम साबित हुआ गृहमंत्री अमितशाह ने कश्मीर को मिले विशेष प्राविधान की धारा 370 और 35 (ए ) को ख़त्म दिया। इसके अलवा एक और बड़े फैसले की हिम्मत दिखाते हुए 31 अक्टूबर 2019 को जम्मू-कश्मीर को विभाजित कर लद्दाख एक अलग राज्य बना दिया। 

आधुनिक भारत के कई इतिहास वेत्ताओं ने अध्ययनों से पता चलता है कि स्वाधीन भारत में जब प्रधानमंत्री का चयन हो रहा था तो सरदार पटेल उस दौड़ में सबसे आगे थे। कांग्रेस की राज्य समितियाँ पटेल के पक्ष में थीं। लेकिन गाँधीजी नेहरू को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे जिसकी वजह से पटेलजी गांधीजी का आदर करते हुए इस दौड़ से ख़ुद को अलग रखा। क्योंकि गाँधी भी पटेल की उभरती तागत और चुनौती भरे फैसलों से हतप्रभ थे। 

नेहरू और पटेल में कभी संतुलन नहीँ बन पाया। उसकी मुख्य वजह आप पटेल के शब्दों में सुन सकते हैं ‘मैंने कला या विज्ञान के विशाल गगन में ऊंची उड़ानें नहीं भरीं। मेरा विकास कच्ची झोपड़ियों में गरीब किसान के खेतों की भूमि और शहरों के गंदे मकानों में हुआ है।’ जबकि नेहरू की विचारधारा सरदार से अलग थीं। पटेल राष्ट्रवादी चिंतक थे जबकि नेहरू का नज़रिया वैश्विक था वह देश में इस तरह का कोई कार्य नहीँ होने देना चाहते थे जिससे दुनिया में भारत की छबि आलोचना की शिकार बने।  

देशी रियासतों के भारत संघ में विलय के सवाल पर गाँधी ने पटेल के बारे में लिखा था ‘रियासतों की समस्या इतनी जटिल थी जिसे केवल तुम ही हल कर सकते थे।’ पंडित नेहरू ने कभी हिंदी- चीनी भाई- भाई का नारा दिया था। जबकि दूरदर्शी पटेल 1950 में नेहरू को लिखे एक पत्र में चीन तथा उसकी तिब्बत नीति से सावधान रहने चेतावनी दी थीं। पटेल चीन को भारत का सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे लेकिन नेहरू ने इस बात पर गौर नहीँ किया और आज भारत उसी समस्या को झेल रहा है। चीन के साथ युद्ध के हालात बने हैं। पटेल ने पाकिस्तान से भी आगाह रहने को कहा था। 

लंदन टाइम्स ने पटेल के लिए लिखा था ‘बिस्मार्क की सफलताएं पटेल के सामने महत्वहीन रह जाती हैं।’ मतलब साफ है यदि पटेल के कहने पर हम चलते तो कश्मीर, चीन, तिब्बत व नेपाल हमें आँख दिखाने की हिम्मत न जुटा पाते। भारत के पहले राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद ने कहा था ‘आज भारत जो कुछ भी है, उसमें सरदार पटेल का बहुत योगदान है, लेकिन इसके बावजूद हम उनकी उपेक्षा करते हैं। भारत निर्माण में हम पटेल की राष्ट्रवादी नीति को नहीँ भूला सकते हैं। 

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