सर्वधर्म समागम : समय की पुकार

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तनवीर जाफ़री
भारतवर्ष दुनिया का एक ऐसा देश है जहां धर्म और अध्यात्म पर सबसे अधिक चर्चा की जाती है। जितने अधिक धर्मगुरू,उपदेशक,धर्म प्रचारक, धर्मस्थान आदि हमारे देश में पाए जाते हैं विश्व में कहीं भी नहीं पाए जाते। मज़े की बात तो यह है कि इन धर्मोपदेशकों व प्रवचन कर्ताओं में सभी एक ही धर्म या समुदाय के सदस्य नहीं हैं बल्कि भारतवर्ष में जिस प्रकार विभिन्न धर्म व जाति के लोग होने के बावजूद यहां अनेकता में एकता के दर्शन होते हैं उसी प्रकार लगभग प्रत्येक धर्म व जाति के धर्मगुरु,उपदेशक अथवा प्रवचनकर्ता भी अलग-अलग समुदायों से संबंध रखते हैं। ज़ाहिर है प्रत्येक वर्ग से संबंध रखने वाले धर्मगुरु अपने-अपने अनुयाईयों के मध्य होने वाले समागमों में अपने-अपने ईष्ट अथवा आराध्य की चर्चा करते हैं तथा उनका महिमामंडन करते है। निश्चित रूप से ऐसा करने से प्रत्येक वर्ग के अनुयाईयों के दिलों में उनके अपने ईष्ट व आराध्य के प्रति प्रेम आस्था व आकर्षण उत्पन्न होता है।
परंतु इसी तस्वीर का एक दूसरा पहलू यह भी है कि अलग-अलग वर्गों या समुदायों के इस प्रकार के होने वाले समागम अपने-अपने वर्ग विशेष के लोगों के प्रति आस्था तथा विश्वास के साथ-साथ रूढ़ीवादिता का भी संचार करते हैं। ऐसे समागम दूसरे वर्ग अथवा समुदाय के ईष्ट अथवा आराध्य देवी-देवताओं या महापुरुषों की चर्चा अथवा उनकी प्रशंसा करना अपने-अपने समागम में मुनासिब नहीं समझते। संभवत: यही वजह है कि आम आदमी जहां अपने-अपने ईष्ट व देवताओं अथवा महापुरुषों के अनेक कार्यकलापों तथा उनके जीवन की कारगुज़ारियों से परिचित रहता है वहीं दूसरे वर्ग के महापुरुषों के विषय में वह कुछ भी नहीं जानता। ज़ाहिर है जब वह किसी दूसरे महापुरुष के बारे में जानता ही नहीं फिर आिखर वह उसका सम्मान भी कैसे कर सकता है? यही वो बुनियादी वजह है जो हमारे समाज में एक-दूसरे वर्ग और समुदाय,धर्म तथा जाति के बीच नफरत पैदा कर रही है। और बावजूद इसके कि पूरा देश व्यापारिक व सामाजिक तथा व्यवसायिक ताने-बाने के तहत एक-दूसरे से शत-प्रतिशत जुड़ा हुआ है फिर भी जब इसी समाज का कोई सदस्य अपनी अंतिम यात्रा पर जाता है उस समय आमतौर पर शमशान घाट में केवल हिंदू नज़र आते हैं और कब्रिस्तान में केवल मुसलमानों का ही मजमा दिखाई देता है। आिखर ऐसा क्यों?
यहां बात सिर्फ हिंदू व मुसलमान के मध्य फासले की ही नहीं बल्कि देखा तो यहां तक जा रहा है कि हिंदू समुदाय में कई प्रवचन कर्ता,उपदेशक अथवा धर्मगुरु ऐसे हैं जो भगवान राम की कथा में पारंगत हैं। ज़ाहिर है स्वयं को रामभक्त समझने वाला समाज ऐसे प्रवचनकर्ताओं के समागम में बढचढ़ कर भाग लेता है। इसी प्रकार भगवान कृष्ण का गुणगान करने वाले कुछ विशेष उपदेशक हैं। भगवान कृष्ण के अनुयायी इन्हीं के प्रवचन सुनना पसंद करते हैं। हद तो यह है कि कई राम मंदिरों में रामायण व रामचरित मानस तो मिलेगी परंतु गीता नहीं। इसी तरह भगवान कृष्ण से संबंधित स्थानों में गीता उपलब्ध हो जाएगी परंतु रामायण या रामचरित मानस नहीं। इसी तरह संत रविदास,बाल्मीकी जैसे कई अनेक महापुरुष ऐसे थे जिनकी चर्चा करने वाले अलग-अलग उपदेशक हंै और यह अपने अलग-अलग धर्मग्रंथों के हवाले से अपने-अपने आराध्यों के स्तुतिगान किया करते हैं।
समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने धर्म व समुदाय से जुड़े महापुरुषों के बारे में जाने,उनके बताए हुए मार्गों पर चले यह निश्चित रूप से बहुत ही अच्छी बात है। परंतु इसी के साथ-साथ यदि उसी व्यक्ति को दूसरे धर्मों व समुदायों की आस्था का प्रतीक बने महापुरुषों के जीवन चरित्र की भी जानकारी हो तो निश्चित रूप से उसका लगाव तथा आकर्षण दूसरे धर्मों या समुदायों के महापुरुषों के प्रति भी बढ़ेगा। वह उन्हें मान-सम्मान की नज़रों से देखेगा तथा आगे चलकर यही स्थिति उनके अनुयाईयों के साथ भी सद्भाव का वातावरण बनाने में सहायक होगी। इसलिए धर्म व जाति के आधार पर समाज में फैलते जा रहे तनावपूर्ण वातावरण के बीच आज ज़रूरत इस बात की है कि देश में जगह-जगह ऐसे समागमों का आयोजन किया जाए जिसमें सभी धर्मों व जातियों के लोग एक ही मंच पर बैठकर समाज के सभी वर्गों को समान रूप संबोधित करें। एक ही समागम में विभिन्न धर्मो के महापुरुषों,ईष्ट तथा देवी-देवताओं की चर्चा की जाए ताकि समागम में शिरकत करने वाले सभी लोगों के अलग-अलग वर्गों के महापुरषों के विषय में जानकारी हासिल हो सके तथा यह भी पता चल सके कि कौन सा धर्म अथवा वर्ग समाज को सदाचार तथा समाज कल्याण के कौन-कौन से मार्ग दिखाता है।
मिसाल के तौर पर हमारे देश के महान संत मुरारी बापू हिंदू धर्म से संबंध रखने वाले एक ऐसे धर्मोपदेशक हैं जिनसे दूसरे धर्मों के लोग खासतौर पर मुस्लिम धर्म से जुड़े लोग भी काफी प्यार करते हैं। अरब देशों में भी कई अरब शासक मुरारी बापू के समागम में न केवल शरीक होते देखे गए बल्कि उन्हें पूरी श्रद्धा के साथ ‘जय सिया राम’ का संबोधन करते भी देखा गया। भारत में भी उनके कई समागमों में प्रख्यात मुस्लिम विद्वान एवं धर्मगुरु डा० कल्बे सादिक़ जैसे बुद्धिजीवियों की शिरकत देखी गई। उसी मंच से डा० कल्बे सादिक़ व मुरारी बापू का एक साथ संबोधन सुना गया। जहां मुरारी बापू दमादम मस्त क़लंदर अली का पहला नंबर जैसी इस्लाम धर्म से जुड़ी कव्वाली पर झूमते व हज़रत मोहम्मद की शान में बातें करते देखे जा सकते हैं वहीं डा०कल्बे सादिक़ बड़े गर्व के साथ यह कहते सुनाई देते हैं कि वे गीता का अध्ययन करते हैं और ऐसा करने से हिंदू धर्म के प्रति उनका लगाव व आकर्षण बढ़ा है। कभी देश के एक और प्रसिद्ध आघ्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर करबला में हज़रत इमाम हुसैन के रौज़े पर जाकर अपना शीश झुकाते दिखाई देते हैं तो कभी उदारवादी स्वामी नारायण समुदाय दिल्ल्ी के विशाल अक्षरधाम मंदिर का उद्घटन डा० एपीजे अब्दुल कलाम के करकमलों से करवाता दिखाई देता है।
वास्तव में यह हमारे समाज में कोई नई या अटपटी लगने वाली बात नहीं है। हमारी तो प्राचीन संस्कृति ही हमें यही सीख देती आ रही है कि भारतीय एक-दूसरे के धर्मों व समुदायों का तथा एक-दूसरे के इष्ट व देवी-देवताओं का आदर व सम्मान करें। रहीम,जायसी,रसखान जैसे महाकवि हमारी इस संयुक्त संस्कृति के प्राचीन हस्ताक्षर हैं। बावजूद इसके कि हमारे देश में समाज को बांटने वाली तथा धर्म व संप्रदाय के आधार पर नफरत फैलाने वाली शक्तियां अपने सत्ता स्वार्थ के लिए काफी सक्रिय हैं फिर भी आज भी हमारे देश में नकोदर,पंजाब व रामदरबार चंडीगढ़ जैसी जगहों पर अनेक ऐसे सर्वधर्म समागम आयोजित होते हैं जहां एक ही जगह पर सभी धर्मों के लोग इक_े होकर अपने-अपने धर्मों व धर्मग्रंथों में उल्लिखित अच्छी बातों का जि़क्र करते हैं तथा ज्ञान का आदान-प्रदान करते हैं। विभाजक प्रवृति रखने वाली शक्तियों की हमेशा यही कोशिश होती है कि समाज को धर्म व जाति के नाम पर बांटकर रखा जाए ताकि अंग्रेज़ों की बांटो और राज करो की नीति का अनुसरण किया जा सके। परंतु देश की एकता तथा मानवता की रक्षा का यही तकाज़ा है कि देश में होने वाले प्रत्येक धार्मिक व सामुदायिक समागम ऐसे हों जिसमें विभिन्न धर्मों के लोग बिना किसी भेद-भाव व संकोच के शिरकत करें ताकि समाज में एकता,सद्भाव व भाईचारा मज़बूत हो सके यही समय की पुकार है

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