सतर्क रहे भारत ताकि…

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दूर झरोखे से भारत

 नरेश भारतीय

अन्य देशों की तरह भारत में भी निस्संदेह राजनीति के अतिरिक्त भी अनेक ऐसे मुद्दे होते हैं जो आम जनसमाज की चिंता का कारण बनते हैं और उनके समाधान की खोज में प्रबुद्ध समाज अपनी पहल के साथ स्वस्थ बहस को बल प्रदान करता है. लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि अपने देश में बाहरी परिवेश के फलस्वरूप समाज और परिवार पर होने वाले अनिष्टकारी प्रभाव पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है, कदाचित यह मान कर कि पश्चिम से होकर आने वाले परिवर्तन की सुनामी बाढ़ को रोकने के लिए किसी का अब कोई वश नहीं रहा. उदाहरणार्थ यदि परिवार व्यवस्था टूट रही है तो उसे आज के ज़माने का एक अपरिहार्य सत्य मान कर आंखें मूंद ली जाती हैं. विवाह के स्थान पर कथित ‘लिव इन’ अब व्यक्ति के अधिकारों की श्रृंखला में शामिल हो गया है. यह मेरा तन है, मेरा मन है जैसा वह चाहेगा वैसा होगा. समाज और परिवार का जो स्वरूप विगतमान भारतीय पीढ़ी ने देखा समझा है वह तिरोहित होने लगा है. देश की सामाजिक और सांस्कृतिक भूमि पर बौलीवुड की कायामाया और छोटे परदे पर उभरने वाले नित्य नए सास-बहू विवाद प्रसंग छाए हुए हैं.

व्यक्ति की सोच और समाज की दशा और दिशा का देश की राजनीति पर भी प्रभाव पड़ता है क्योंकि लोकतंत्र में वही राजनीतिज्ञों के लिए सत्ता तक पहुंचने का साधन बनते हैं. देश का दुर्भाग्य है कि बहुधा उनके हित के साथ जुड़े महत्व के विषयों के भी कोई पुष्ट समाधान आज होते दिखाई नहीं देते. बाहरी तौर पर लोगों में आर्थिक दृष्टि से एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ दिखाई देती है जो अपने आप में भले ही गलत न मानी जाए, लेकिन उसमें भी कई ऐसी विसंगतियाँ परिलक्षित हो रहीं हैं जो स्वस्थ भविष्य के संकेत नहीं देतीं. इस होड़ में बहुधा काले धन का खेल खुल कर खेला जाता है. भ्रष्टाचार बेलगाम और बेकाबू हो चुका है. इस सब के बीच प्रस्तावित लोकपाल विधेयक अंतत: क्या स्वरूप लेगा देश को उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा है. क्या सचमुच यह देश में भ्रष्टाचार उन्मूलन में सहायक सिद्ध होगा यह तो समय ही बताएगा. देश की दिशा तो अवश्य बदल रही है पर देखना यह है कि ईमानदार आम आदमी की दशा में कितना सुधार हुआ है. क्या यह सच नहीं है कि वह तो सदा की तरह महंगाई के भार तले ही दब रहा है. उसका संघर्ष निरंतर जारी है. जब उस पर दबाव बढ़ता है तो आर्थिक और राजनीतिक असंतोष उत्पन्न होने के संकेत भी उभरने लगते हैं. असुरक्षा का भाव बल पाता है तो कानून एवं व्यवस्था बिगड़ती है और यत्र तत्र अराजकता के लक्षण देने लगते हैं. जूता, चप्पल फैंके जाने लगते हैं, तमाचे लगाए जाने लगते हैं, भीड़तंत्र उभरने लगता है और मनमानी शुरू हो जाती है.

इस बीच सत्ता लिप्सा में देश को फिर से अनेक और राज्यों में विभाजित करने की प्रक्रिया का पुन: ऐसा आरम्भ होता दिखता है जिसे यदि अब नहीं रोका गया तो भविष्य में इसका निराकरण कभी संभव नहीं हो पाएगा. मात्र राजनीतिक दांवपेच के नाते उत्तर प्रदेश को चार टुकड़ों में बाँट देने का राज्य के मुख्यमंत्री मायावती का निर्णय यदि इस प्रक्रिया को बल प्रदान करने वाला सिद्ध हुआ तो यह समझ लेना चाहिए कि देश की एकता और अखंडता कमज़ोर पड़ेगी. फिर से टुकड़ों में बंटना शुरू हो जाएगा देश उस समय जब उसे एकजुट होने और अनेक चुनौतियों का सामना करने की नितांत आवश्यकता है. हाल में उनके द्वारा संबोधित एक रैली को यदि दलितों की सभा कहने के स्थान पर मात्र एक विशालतम रैली कह दिया जाता तो कुछ न बिगड़ता. लेकिन देश को अल्पसंख्यकों, दलितों, पिछडों, अति पिछडों इत्यादि की संज्ञाएं देकर और आरक्षणों का तानाबाना बुन कर जिस तरह से टुकड़ों में बांटा जा रहा है उससे इस आशंका को बल मिलता है कि देश एक खतरनाक दौर में पहुँच रहा है. ऐसे में क्या होगा राष्ट्रीय एकता का?

पृथकतावाद की गम्भीर चुनौतियों का स्वाद देश चख चुका है और उसके दुखद परिणाम भी भुगत चुका है. इस पर भी उसकी चिंगारियां यत्र तत्र फूटती रहती हैं. यदि ऐसी बल पातीं प्रवृत्तियों को सूझ बूझ के साथ अब नहीं रोका गया तो भारत के दासत्व का विगत इतिहास स्वयं को दोहरा सकता है. क्योंकि जैसी स्वार्थान्धता आज प्रभावी है उसी का लाभ देश के दुश्मनों को सहजता के साथ मिलेगा. सदियों पहले विदेशी आक्रांताओं ने पाया था कि भारत एक राजनीतिक इकाई के रूप में एकसूत्र आबद्ध राष्ट्र नहीं है. इसी कारण उन्होंने समाज में प्रकट विभाजीय प्रवृत्तियों की रेखाओं को और गहरा बनाया. पहले से विभाजित मूल हिंदू समाज को और बांटा, एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा किया, एक राज्य के राजा को दूसरे राज्य के राजा के साथ भिड़ाया और इस प्रकार अपने कदम जमाए. मज़हबी और जातीय आधार पर हुए विभाजन की अत्यंत पीड़ादायक स्थितियों को उभरने से रोके जाने की नितांत आवश्यकता है क्योंकि जो १९४७ में हुआ उसकी किसी भी रूप में पुनरावृत्ति देश के लिए घातक सिद्ध होगी. भारत के राजनीतिक खिलाड़ी यदि आज इसके दूरगामी दुष्परिणामों पर ध्यान नहीं देंगे तो वर्ग, वर्ण, जाति या मज़हब-सम्प्रदाय को आधार बना कर राजनीति का खेल खेलने की पनपती असंवैधानिक परम्परा को बल मिलेगा. सामाजिक सम भाव खंड खंड होगा और अंतत: देश भी खंड खंड होगा. यह स्थिति भारत के एक एकात्म राष्ट्र की अवधारणा को तोड़ती है. गहराई से देखा जाए तो महाराष्ट्र में शिवसेना का उत्तर भारतीयों के प्रति विरोधी व्यवहार, कश्मीर में अलगाववाद के विषबीजों को फलने फूलने के लिए दी जाने वाली खाद, राज्यों और केंद्र के बीच असहमति के आसार और आतंकवादी घटनाओं पर किसी ठोस कार्रवाई का अभाव ये सब गंभीर खतरे के संकेत हैं.

जब मैं भारत की राजनीति से अपना ध्यान हटा कर निरंतर बदलते परिवेश में व्यक्ति, समाज और परिवार व्यवस्था पर नज़र डालता हूँ तो लगता है कि पूर्व हो या पश्चिम आज आधुनिकतावादी सभ्य मनुष्य समाज की सोच और जीवन व्यवहार से कुछ ऐसे मुद्दे सर्वत्र उभर रहे हैं जो सर्वाधिक चिंता उत्पन्न करने वाले हैं. अपनी ही धरती की सतत उपादेयता को प्रश्रय देने की अपेक्षा भूमंडलीकरण के दौर में आर्थिक रूप से भारत को कितना लाभ हुआ वह एक अलग विषय है लेकिन ध्यान देने योग्य यह विषय भी है कि पश्चिम की अंधाधुध नकल से व्यक्तिवादी एवं स्वार्थपूर्ण संस्कृति का निर्बंध आयात हुआ है. पिछले कुछ दशकों में तद्नुगत पनपी स्वछंद व्यवहार शैली को अपनाने में भारत अग्रणी रहा है. उसी का परिणाम है कि आज स्थानीय भाषाओँ पर विदेशी भाषा इंग्लिश हावी है और स्वदेशी हिन्दी को अपनी ही भावभूमि से वंचित किया जा रहा है. युवा भारतवासियों की सोच की दिशा बदलने लगी है. उनका जीवन व्यवहार बदल रहा है. जो कल तक शोभनीय कहलाता था उसकी हर सीमा तोड़ी जा रही है. हर कहीं सब कुछ पा लेने की धुन में सब कुछ दांव पर लगा देने की होड़ जैसी दिखाई देती है. आज अपनी गलतियों के परिणाम पश्चिम भुगत रहा है जहां परिवार व्यवस्था खंड खंड हो रही है. शिक्षा संस्थानों में अनुशासनहीनता के कारण जनसाधारण और सरकार दोनों चिंतित हैं. शिक्षा का स्तर गिर रहा है.

पश्चिम के देशों में ऐसे कई सामाजिक और पारिवारिक मुद्दों पर सरकारी, गैरसरकारी स्तरों पर गंभीर बहसें शुरू हो गईं हैं. अब उसकी यह दुहाई है कि पुरानी परिवार व्यवस्थाओं को पुन: प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए. भारत जो अपनी स्वस्थ परम्पराओं के बल पर नव परिवर्तनों को आत्मसात कर अपने वर्चस्व की रक्षा में समर्थ रहा है उसे भी अभी से सतर्क होने की आवश्यकता है ताकि पानी सिर के उपर से हो कर न गुजरे.

3 COMMENTS

  1. जब तक आम आदमी की सोच नहीं बदलती तब तक कोइ बदलाव नहीं अ सकता, फिर भी आपकी चिंता सही है.

  2. भारत में अधिकांश समस्याएं मेकालेवाद के कारन हैं. किसी भी समस्या का हल उस समाज के मौलिक स्वाभाव को ध्यान में रखकर ही निकाला जा सकता है. लेकिन मेकालेवाद का असर इतना व्यापक और प्रभावी है की समस्या को समाज के मूल स्वाभाव के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने से पहले ही कथित आधुनिकता वादी और नवआधुनिकतावादी एक स्वर में समाज की मूल संरचना के खिलाफ शोर मचाना शुरू कर देते हैं.नतीजतन समस्याओं पर सही तरीके से विचार करने का स्वाभाव छूट गया है. एक उदहारण. देश के कई भागों में इस समय लव जिहाद का सुनियोजित अभियान चल रहा है. केरल सहित कई राज्यों में कानून व्यवस्था के लिए संकट की सी स्थिति आ चुकी है. उच्च नयायालय भी कारवाही के निर्देश दे चूका है. लेकिन उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों मेरठ, गाजियाबाद,दिल्ली में जब पुलिस ने इस पर अंकुश लगाने के लिए अभियान शुरू किया तो आधुनिकता के ठेकेदार हमारे टीवी चेनलवीरों ने इसे मोरल पोलिसिंग कहकर इसके खिलाफ अभियान छेड़ दिया और सम्बंधित पुलिसकर्मियों को रक्षात्मक होने पर मजबूर कर दिया.जब इन सब से अपने संतुलन खोकर कुछ युवक राम सेना या बजरंगदल या ऐसे ही किसी और बेनर के नीचे एकत्रित होकर इसका संगठित प्रतिरोध करते हैं तो फिर ये मैकालेवादी सक्रीय हो जाते हैं. इस देश की संस्कृति को नष्ट करने का अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र चल रहा है.लगता है की कोई माओ जैसी सांस्कृतिक क्रांति ही यहाँ कामयाब हो सकती है.जो संगठन यहाँ शांतिपूर्वक यहाँ की सांस्कृतिक धारा को मजबूत करके यहाँ की समस्याओं का हल यहाँ की मिटटी में खोजने के प्रयास में लगा है ( मेरा आशय आर. एस. एस से है) उसे सारे मैकालेवादी, वो किसी भी रूप में हों, विरोध करने में लगे हैं. लेकिन अब वो समय ज्यादा दूर नहीं है जब इस देश में इस राष्ट्रवाद की आंधी के आगे सारे मैकालेवादी ध्वस्त हो जायेंगे. सकल जगत में खालसा पंथ गाजे, जगे धर्म हिन्दू सकल भांड भाजे.

  3. विदेशी पूँजी ? क्या मजाक है …..भैया पैसा तो सारा भारत के भ्रष्ट नेताओं का ही है ,केवल वालमार्ट का नाम है…..जिसे देश के ७१% बड़े छोटे उद्योगों में भ्रस्त नेताओं मंत्रियो,संतरियो,और अधिकारियों की हराम की कमाई लगी हुई है…….चाहे वो सोनिया हो,मायावती हो,जय ललीता हो,गडकरी हो,मानता बनर्जी हो,मोदी हो,देशमुख हो,शिवराज हो, अशोक गहलोत हो,या नितीश कुमार हो..शीला दिक्सित हो,…कोई भी पार्टी हो,…नेता मतलब चोर,बेईमान और भ्रष्ट…….ये सारे अमीरों का मैला खाते है और गरीबो का खून पिटे है…..केंद्र में बैठे कांग्रेस और उ प ए के नेता १५०% भ्रष्ट है……….क्योकि देश की साड़ी न्याय व्यवस्था और कानून इनकी जेब में है………..

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