व्यंग्य: नैनो कांग्रेस

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विजय कुमार

वैज्ञानिक भी बड़े अजीब होते हैं। कुछ बड़े से बड़ी, तो कुछ छोटे से भी छोटी चीज बनाने में लगे रहते हैं। जब वैज्ञानिकों ने अणु की खोज की, तो लगा कि शायद छोटी चीज की खोज का काम पूरा हो गया; पर नहीं साहब। खुराफाती वैज्ञानिकों ने परमाणु की खोज कर ली। फिर वे उससे भी छोटे नैनो पार्टिकल की खोज में जुट गये। नैनो का अर्थ ही छोटा हो गया।

हम भारत के लोग भी कमाल हैं। एक समय इंदिरा जी के महान सपूत (?) संजय गांधी ने मारुति कार बनाई थी। ‘हम दो, हमारे दो’ और ‘छोटा परिवार, सुखी परिवार’ के नारे पर आधारित इस कार ने भारत में सड़क यातायात की संस्कृति ही बदल दी। वे भी क्या दिन थे; जहां देखो, वहां मारुति। शादी में मारुति लेना-देना प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया था। कई युवक तो इस शर्त पर ही शादी करते थे कि दुल्हन मारुति में लाएंगे। लड़की पुरानी चल जाएगी; पर मारुति नई ही होनी चाहिए।

मारुति की बात ही निराली थी। मध्य वर्ग के कार खरीदने के अरमान उसी ने पूरे किये। उसमें बैठने वाला खुद को खुदा से कम नहीं समझता था। मारुति न हुई, धरती से छह इंच ऊपर चलने वाला युद्धिष्ठिर का रथ हो गया। उन दिनों चुनाव में रिक्शा से वोटर ढोये जाते थे। हमारे शहर में एक प्रत्याशी ने इसके लिए मारुति लगा दी, तो वही जीत गया। पिछली सदी को इस नाते ‘मारुति सदी’ कह सकते हैं। मारुति ने ही एम्बेसेडर और फिएट जैसी स्थापित कारों की छुट्टी की।

पर फिर समय बदला और दिल्ली में सरकार भी। छोटी गाड़ियों के लाइसेंस पर से संजय गांधी और मारुति का एकाधिकार हटा, तो कई उद्योगपति मैदान में आ गये। धीरे-धीरे बड़ी की बजाय छोटी कारों का ही चलन हो गया।

लेकिन पिछले दिनों रतन टाटा उससे भी छोटी नैनो कार ले आये। छोटी ही नहीं, सस्ती भी। यद्यपि सामने से देखें, तो लगता है मानो विजेन्द्र सिंह ने अपने गोल्डन मुक्के से उसकी नाक चपटी कर दी हो। फिर भी गाड़ी तो है ही; और दुनिया में ‘चलती को ही गाड़ी’ कहा जाता है।

जैसे संजय गांधी को मारुति से प्यार था, सुनते हैं वैसा ही प्यार राहुल बाबा को नैनो से है। उन्होंने तय कर लिया है कि वे इस युग को नैनो युग बना कर रहेंगे। अब युग बदलना तो उनके बस में नहीं है; पर वे 125 साल बूढ़ी कांग्रेस को ‘नैनो कांग्रेस’ बनाने पर जरूर तुले हैं। इस शुभ कार्य में उनकी आदरणीय मम्मी और ‘खडाऊं प्रधानमंत्री’ भी पूरा सहयोग दे रहे हैं।

कांग्रेस इन दिनों हरियाणा, राजस्थान, आंध्र, दिल्ली और महाराष्ट्र में जीवित अवस्था में पाई जाती है। महाराष्ट्र में उसकी सांसे शरद पवार की घड़ी की टिक-टिक पर टिकी हैं, तो हरियाणा में वह खिलाड़ियों के कंधे पर लदी है। राजस्थान में सरकार लड़खड़ा रही है, तो आंध्र में कई ‘रेड्डीमेड’ ईंटों के खिसकने से पुरानी दीवार की तरह भरभरा रही है। दिल्ली में सरकार मुख्यमंत्री की है या राज्यपाल की, यह शीला दीक्षित को ही नहीं पता। कांग्रेस न हुई, पटरी वाले ढाबे की दाल, चावल, रोटी और सब्जी वाली ‘सादी थाली’ हो गयी, जिसमें दिल लुभाने के लिए मिर्च और प्याज की तरह गोवा और पूर्वोत्तर के कुछ राज्य भी हैं।

सबसे ताजा मामला बिहार का है। राहुल बाबा ने वहां पिछले चुनाव में सभी 243 स्थानों पर प्रत्याशी खड़े किये; पर जनता ने उनके नैनो प्रेम को देखते हुए चार को ही जिताया, जिससे वे दुख-सुख में नैनो कार में बैठकर उनसे मिलने जा सकें। अगर यही चाल-ढाल रही, तो खतरा यह भी है कि अगले चुनाव में लोग ‘नैनो कांग्रेस’ को ‘ना-ना कांग्रेस’ न बना दें।

कुछ दिनों बाद कई बड़े राज्यों में चुनाव हैं। किसी ने राहुल बाबा को सलाह दी है कि बंद शीशे वाली कार में चलने से जनता से ठीक सम्पर्क नहीं हो पाता। इसके लिए तो दुपहिया वाहन ही ठीक है। युवक इन दिनों मोटर साइकिल के दीवाने हैं। लड़कियां भी पिछली सीट पर गर्व से बैठती हैं। उस पर घूमने से युवा पीढ़ी जरूर आकर्षित होगी।

सुना है राहुल बाबा इस पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं। इस बारे में मैं कुछ नहीं कहंूगा। वे जानें और उनका काम; पर यदि जनता ने चार सीट वाली ‘नैनो कांग्रेस’ को दो सीट वाली ‘मोटर साइकिल कांग्रेस’ बनाने का निश्चय कर लिया, तो बिना स्टैपनी वाली, कांग्रेसी झंडा लगी उस खटारा पर राहुल के साथ कौन घूमेगा; मैडम इटली या मनमोहन सिंह ?

इस प्रश्न का उत्तर पाठक ही दें।

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