व्यंग्य:होली कंट्री और होलीवाटर

पंडित सुरेश नीरव

वो कितने नासमझ हैं जो कहते हैं कि होली आ रही है। मैं उनसे पूछता हूं कि

भैया मेरे होली गई कहां थी जो आ रही है। कौन समझाए इन्हें कि होली तो

हमारे प्राणों में है और होली में ही हमारे प्राण हैं। हम सब इस महान

होली कंट्री के मासूम होली चाइल्ड हैं। जो बचपन के हॉलीवुड से बुढ़ापे के

होलीधाम तक होलीवाटर का नियमित सेवन कर डेली होली ही तो मनाते हैं। हम

पैदाइशी होलीधर्मा हैं। भंगोपनिषद के मुताबिक तो हमारी शस्य-श्यामला

पृथ्वी ही होली की पैदाइश है। हुआ यूं कि ब्रह्मांड में एक बार

देवी-देवता भंग-भवानी का भरपेट सेवन करके गुलाल को आटे की तरह रंगों में

उसन करके उसकी बड़ी-बड़ी लोइयां बनाकर एक-दूसरे पर फेंक-फेंककर होली-होली

खेल रहे थे। जैसा कि यूनिवर्सल नियम है कि कालाधन और भीगे बदन उर्वशी की

मादकता हमेशा क्वथनांक बिदु पर होती है जिसकी कि गुप्त ऊष्मा से संयम

तत्काल भाप बनकर उड़ जाता है। इसी नियम की लपेट में आए एक निर्मल-मन

देवता ने जब इठलाती,बलखाती,जीरो फिगरवाली रंग में भीगी एक अप्सरा को देखा

तो उसका एनर्जी लेबल काफी हाई हो गया और तभी उसने मर्दाना ताकत से

भीषणरूप से ओत-प्रोत होकर दुर्दांत वेग से रंग का एक गोला उर्वशी को ऐसे

मारा कि अप्सरा मय गोले के ब्रह्मांड की बाउंड्री पार करती हुई क्षीरसागर

में नागशैया पर विश्राम करते हुए विष्णु की गोद में जा गिरी। सार-सार को

गह रहे थोथा देय उड़ाय के सूत्र के अनुसार विष्णु ने अप्सरा को अपने खाते

में दर्ज करते हुए रंग का विशाल पिंड ब्रह्माजी को यह कहते हुए सौंप दिया

कि इस पिंड के सीने में रंग-गुलाल की इतनी खदाने हैं कि येदुरप्पा की तरह

तुम इनका जिंदगीभर भी खनन करो तो ये खदानें कभी खाली नहीं होगी।

ब्रह्माजी ने उस गुलाल पिंड को अपनी आदत के अनुसार खींच-तान कर इतना बड़ा

बना दिया कि कि वही रंगपिंड ब्रह्मावर्त,आर्यावर्त और भारतवर्ष होता हुआ

आज का इंडिया बन गया। होली के दिन जन्मे इस होलीप्रधान देश को इसीलिए

होलीकंट्री का खिताब हासिल हुआ है। जहां के होलीवाटर को पीकर नाग, गरुड़,

,कच्छप, वराह-जैसे पशु-पक्षी ही नहीं पति-जैसे अदना जीव तक देवता हो जाते

हैं। इस होलीप्रधान देश के कलैंडर में जितने भी महत्वपूर्ण दिन हैं मूलतः

वे सभी होली-डे हैं। इसलिए इस बात में कोई दम नहीं कि इस होलीकंट्री में

होली कोई सालाना जलसा-जैसी चीज़ है। महीने का हर होली-डे होली का ही दिन

है। और होली खेलने का नेशनल परमिट हर भारतीय को बाईबर्थ ही प्राप्त है।

इसीलिए होली का उद्योग भारत में खूब फैल रहा है। जो जहां है वहीं होली

खेल रहा है। होली खेलने के लिए सच्चा और अच्छा भारतीय हर टाइम लंगोट कसे

रहता है। गोधरा से लेकर लालगढ़ तक ज़रा-सा मौका मिला नहीं कि तड़ से

मना डाली होली। होली का चस्का ही कुछ ऐसा है । एक बार लग जाए तो

मरणोपरांत भी बना ही रहता है। मूंछ-मरोड़ व्यक्तित्व के धनी मुगले आजम

अकबर और हाथ से फुटबाल खेलनेवाले अवध नवाब वाजिद अलीशाह तो दरबार तक में

होली खेलने से नहीं चूकते थे। भरी पिचकारी लिए ही सिंहासन पर बैठे रहते

थे। यही होली के लाल रंग का कमाल है जो सर चढ़कर बोलता है। श्री

नादिरशाहजी और जनाब अहमदशाह अब्दाली-जैसे विदेशी पर्यटक परम होलीलोलुप

थे। जो होली खेलने ही इंडिया की विजिट पर आए थे। और हमारे इतिहास को

कलरफुल करके विनम्र भाव से स्वदेश लौट गए। कहते हैं कि ईस्टइंडिया कंपनी

के डायर नामक किसी कर्मचारी को भी एक बार होली खेलने की सनक सवार हो गई

थी और वह बेचारा बाज़ार में पिचकारियां न मिलने के कारण सिर्फ बंदूकों से

ही जलियांवाला बाग में होली खेल आया था। होली का नशा ही कुछ ऐसा है। जो

एक बार होली खेलने पर आमादा हो जाए तो जान हथेली पर रखकर भी होली खेलकर ही मानता है। सीमा पार से न जाने कितने जांबाज हुलाड़े होली खेलने की

पाकीजा प्यास लिए भारत में बहादुरीपूर्वक प्रवेश करते हैं। धन्य है उनके

होलीप्रेम को। अभी-अभी यू.पी. में अलग-अलग डिजायन के होलियास्पद माननीय

साइकिल पर बैठकर,हाथी पर चढ़कर.सरकारी हाथ से कमल की जड़ से पवित्र कीचड़ और आरोपों की कालिख से एक-दूसरे का चेहरा उत्साहपूर्वक पोतते हुए होली

खेलने का रिहर्सल कर-करके थक चुके हैं। और फ्रेश होने के लिए नकचढ़े

निर्वाचन आयोग की फब्तियों को बुक्काफाड़ हंसी के साथ याद कर रहे हैं।

समझौतों की रंगभरी पिचकारी और मौकापरस्ती का गुलाल मुट्ठी में भरे

नई-नवेली सरकार के लाल-लाल गालों पर गुलाल मलने की रंगीन चाहत लिए ये

कुर्सी-बांकुरे कसमसाते हुए बैठे हैं नई-नवेली सत्ता-सुंदरी से होली

खेलने के लिए। देखें दंगल में बाजी कौन मारता है। पब्लिक भी ढोल-नगाड़ों

से लैस तैयार खड़ी है। विजेता सूरमा के गालों को लाल करने के लिए।

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