ऊ लाला! उनका रस्म उठाला

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वे जो कल तक हर किसीका सिर बड़े इतमिनान से मंूडा करते थे, मुंडे सिर जब उनको किराए की गाड़ी से सफेद कपड़ों में उतरते देखा तो पैरों तले से जमीन सरक गई। ये क्या हो गया? कब हो गया?? कैसे हो गया?? मुहल्ले में रहते हुए भी मुझे पता नहीं कि…. आखिर मैं रहता कहां हूं?? मन में एक साथ कई यक्ष प्रश्न जागे तो यक्ष प्रश्नों के साथ मन में तरह – तरह की शंकाएं भी जागने लगीं। इधर से उधर, उधर से इधर ,पता नहीं किधर से किधर भागने लगीं।
हालांकि मैं उनसे उनका दुख शेयर करने न चाहते हुए भी कायदे से उनके घर जाना चाहता था। पर वे सामने आ ही गए तो मैं पसोपेश में पड़ गया। मुझसे न उन्हें फेस करते बन रहा था न ही उनसे बचते। आखिर ऊहापोह की स्थिति से किनारे होते मैंने तय कि कि उनके दुख में यहीं शरीक हो जाऊं। सो मैंने उनका दुख शेयर करने को जैसे-कैसे आनन-फानन में खुद को तैयार किया और उनसे भी अधिक उदासी से सज- धज उनके सामने जा खड़ा हुआ।
‘भाई साहब! अचानक ये सब??? कहां से??’
‘ उन्हें हरिद्वार गंगा में बहा कर आ रहा हूं। भगवान के चरणों में पंडों की मार्फत रवाना करवा ,’ कह वे सिसकने लगे,‘ कम्बख्त, खुद तो चले गए पर अब हमें तिल- तिल मरने को पता नहीं किसके आसरे छोड़ गए। हमारी तरह उनकी आत्मा को भी कभी शांति न मिले!’ आखिर उनके भीतर का दर्द गर्द बन फूट पड़ा और वे मेरे कंधे पर अपना सिर रख गहरा धोखा खाई प्रेमिका की तरह रोने लगे तो मुझे सहज ही ज्ञान हो गया कि वे जाने वाले से कितना प्रेम करते थे।
‘पर मुहल्ले में तो किसीको पता ही नहीं …. और आप ???’ मैंने आंखों से घडि़याली आंसू बहाने शुरू किए। कम्बख्त ये घडि़याली आंसू होते ही ऐसे हैं, असली आंसुओं से कई गुणा अधिक संवदेनशील कि एक बार इन्हें आंखों में आने का स्नेहपूर्ण न्योता देने भर की जरूरत होती है, उसके बाद तो ये झरने की तरह फूट पड़ते हैं भर जेठ में भी।
‘ बस, मत पूछो कि क्या हो गया? कैसे हो गया?? सब बस एक झटके में हो गया। कम्बख्त ने संभलने को वक्त ही न दिया। अगर जरा भी पता चल जाता कि उनकी हालत ऐसी होने वाली है तो…. इधर-उधर हाथ-पांव मार कुछ भी करते, पर उनको बचा कर ही दम लेते ’, कह उन्होंने लंबी सांस ली और गंगाजल की पिचकी पीपी गाड़ी से उठाने को हुए तो मैंने गंगाजल की पीपी को उठाने को आगे हाथ बढ़ाते पूछा,‘ पर पूरे मुहल्ले में तो किसीको पता ही नहीं कि….. क्या वे बाहर ही रहते थे?’
‘ नहीं, रहते तो दिन- रात हमारे ही साथ थे पर…..बात ही ऐसी थी कि…… सोचे थे कि किसी चमत्कार से वे पुनः जीवित हो जाएंगे। एक पहुंचे तांत्रिक ने भी बताया कि……. हम इन्हें हर हाल में जिंदा कर देंगे। समाज की हर मरी बुराई को जिंदा करने में हम माहिर हैं। बस, उन्हीं के कहने पर सड़ी लाश से इतने दिन चिपके रहे। पर वे एक बार जो गहरी नींद सोए, तो नहीं जागे तो नहीं जागे। कोई चमत्कार न हो सका। दूसरे, अपने तक ही सीमित रहने के चलते चाह कर भी किसी को बता न सके,’ सिर नीचा किए कहने के बाद वे सिसकने लगे…… इतना तो कोई मैंने अपने सगे तक को रोते- सिसकते आज तक नहीं देखा था। पहली बार देखा था कि शर्म से सिर भी नीचा होता है। वरना आज तक मैंने बेशर्म सिर ताड़ से भी ऊंचे होते देखे हैं, सो उनकी शर्म के समाने मेरा सिर उन्हें श्रद्धांजलि देने को अपने आप ही एकाएक झुक गया।
‘हद है भाई साहब! इतनी बड़ी बात हो गई और आप कहते हो कि बात ही ऐसी थी कि…..हम मुहल्ले में रहते किसलिए हैं? दुख में आपस में एक दूसरे के काम न आ सके तो काहे को जीना? पर क्या हुआ था उन्हें? क्या वे लंबे समय से बीमार थे जो……. पर हमने तो कभी सुना नहीं कि….’ मैंने दुख व्यक्त करने को लडि़यां पिरोनी शुरू कीं।
‘नहीं बंधु! बिल्कुल ठीक थे। उस दिन पूरी मस्ती में रहे। हमें हंसा – हंसा कर सारा दिन बेहाल करके रखा। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन्हें भी कुछ नहीं हो सकता है। हमें कुछ हो जाए तो हो जाए। मैंने तो सोचा था कि वे अजर हैं, अमर हैं। कम्बख्त ने जाने का कतई भी हिंट नहीं दिया। उनसे अधिक तो मैं बीमार था। उनके बदले मैं उठ जाता तो कम से कम उनके जाने का दुख तो न होता।
बरसों से सब ठीक चल रहा था। पर रात को अचानक…. रात को अचानक….. उन्होंने ही यह बुरी खबर दी कि…… ’ अचानक तो बंदे को दिल का दौरा ही पड़ता है । सो मैंने जाने वाले की बीमारी पर दिल के दौरे की फाइनल मुहर लगाते कहा,‘ तो क्या उन्हें दिल का दौरा पड़ा था ? ये कम्बख्त दिल का दौरा होता ही ऐसा है। बंदे को तो संभलने का मौका देता ही नहीं ,पर संगे – संबंधियों को भी संभलने का मौका ही नहीं देता। उन्हें अपने पीछे सदा- सदा को रोता – बिलखता छोड़ जाता है। काश! हममें और तो सब कुछ होता पर ये जालिम दिल न होता!’ उनके दुख की घडि़यों में मैं पता नहीं कैसे शायराना हुआ।
‘उनके जाने का दुख तो नहीं, पर अचानक उनके जाने का दुख है। बस, जाने से पहले जरा भी इशारा कर देते…. . मौका दे देते तो……. ’
‘ बस भाई साहब बस, सुना है कि रोने से गए लौट कर तो नहीं आते पर उनकी आत्मा को दुख जरूर होता है। असीम दुख की इन घडि़यों में मुझे अपने साथ समझिएगा ! भगवान जाने वाले की आत्मा को शांति प्रदान करे और आपको इस असहनीय दुख को सहन – वहन करने की क्षमता दें। भगवान से मुझ जैसा यही निवेदन- आवदेन करता है,’ मैंने रहने वाले की आत्मा की शांति के लिए भगवान की ओर दोनों हाथ जोड़ उनसे किनारे होते कहा तो वे बोले,‘ कल होटल पैराडाइज में उनको अंतिम विदाई देने के लिए रस्म उठाला रखी है। तुम आओगे तो खुशी होगी,’ कह उन्होंने गेट खोल मेरे हाथ से गंगाजल की पिचकी पीपी ली और अपने सन्नाटा पसरी हवेली में कैद हो गए।
अशोक गौतम

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