कई दिनों से बाजार में तरह- तरह की फेस्टिव आॅफरों के शोर शराबे ने जीना मुहाल कर रखा था। राम के आने और लक्ष्मी के जाने के बाद अभी भी रहा सहा दिन का चैन, रातों की नींद दोनों गायब है। कम्बखत बाजार ने दिन- रात दौड़ा- दौड़ा कर मार दिया, मैं थक गया पर मन न थका। काश! ये मन भी थका करता।
शराब और बाजार का नशा होता ही ऐसा है। बस, एक बार लत्त पड़ने की देर है। बे मतलब भी जनाब पिए और बेमतलब भी जीव बाजार में सामान- सामान पुकरता बावला सा भटकता। बाजार बंद हो जाए तो हो जाए, वह बाजार की दूकानों के बाहर दूकानों के खुलने का इंतजार करता पड़ा मिले, सुध बुद्ध, खुद तीनों खोए।
बाजार की कुटिल हंसी के जो एकबार दीवाने हो जाते हैं , उन्हें उर्वशी, मेनका भी अपने वश में नहीं कर सकतीं। चकमों से लकदक मुस्कराहट के जो बाहर भीतर दोनों ही ओर से कायल होते हैं, उनका यही हाल होता है। सच कहूं, जेब खाली होने के बाद भी मायावी बाजार का उन्मांद वैसे ही सिर पर सवार है जैसे गांव के दिनों में परदेस कमाने गए यार की जवान घरवाली के सिर हर कोई भूत चढ़ जाता था और उसके आने के बाद भी उतरने का नाम न लेता था।
पत्नी की समझ में तो खैर बाजार का फंडा कभी आया ही नहीं कि बाजार से तेजाबियों से भी अधिक सावधानी से कैसे बचा जाए! वह तो जब भी बाजार गई है बाजार द्वारा मजे से अपहृत की जाती रही है या कि बाजार जाती ही अपहृत होने के लिए है, ये तो वही जाने । लगता है तांत्रिक बाजार ने उस पर जबरदस्त वशीकरण कर दिया है। काश, मेरे वाले तांत्रिक का भी उस पर किया वशीकरण काम कर जाता तो …..
हालांकि बाजार ने तरह – तरह के लालच दे मेरी जेब अल्फ नंगी कर दी है, पर मन अभी भी नहीं भरा। जिस- जिस से उधार मांग सकता था, सीना चैड़ा कर मांग चुका हूं। जहां से उधार न मिलने की संभावना हो वहां से उधार नहीं मांगना चाहिए, भले ही वह कितना ही खास क्यों न हो। अपना एक्सपिरियंस है कि उधार न देने वालों से बेकार में बार- बार उग आने वाली नाक कटवाने से बचने में ही समझदारी होती है। उधार लेने में ट्राई नहीं चलती, विश्वास चलता है और वह भी सौ नहीं ,एक सौ एक प्रतिशत।
बाजार से फेस्टिव सेल का बचा खुचा माल लाने का कोई और सोर्स नहीं दिखा तो हट फिर कर फिर मां लक्ष्मी की याद आई । वैसे भी लालची भक्त को बेसमय भगवान ही याद आते हैं। सो सोचा, न वापस करने वाला उधार उनसे भी ट्राई कर लेता हूं। और मैंने उन्हें टेस्ट करने को पुकार दे डाली। मेरी बाजारू आर्त पुकार का असर था या …. वे मुहूर्त निकल जाने के बाद भी हाजिर हुईं तो मन गदगद।
‘कहो, वत्स! फिर कैसे याद किया,’ लक्ष्मी ने मुस्कराते पूछा तो मैंने दोनों हाथ जोड़े अगल – बगल उनका पर्स ढूंढते कहा, ‘ मां! अभी भी फेस्टिव आॅफरों ने दिमाग सुन्न कर रखा है। बाजार के सौंदर्य के आगे मन ऐसा बिंध गया है कि …. ’
‘त्योहार खत्म होने के बाद तो बाजार के आकर्षण से मुक्त हो जाओ भक्त!’
‘ मां! करता हूं तुम्हारा व्रत मैं, उधार करो मां! फेस्टिव आॅफरों की मझदार में मैं अटका, बेड़ा करो मां! हे मां लक्ष्मी! हे मां लक्ष्मी!!’ विनती करता मैं उनके पर्स का फुलाव देखने लगा कि उसमें बांटने के बाद अभी कितना शेश है।
‘तो??’
‘ तो क्या मां ! अब फिर आपकी शरण में हूं । उधार करोे या शर्मसार करो मां, सब आपके हाथों में है। पर मां , आपका उल्लू कहीं नजर नहीं आ रहा? उसके लिए भी चाय रखवाऊं या…’
‘ फेस्टिव दिनों के सजे बाजारों में उसकी जरूरत कैसी? …. बाजार में सेल का अभी भी कुछ बचा है क्या?’
‘ये पूछो मां, क्या-क्या नहीं बचा है? जीव खत्म हो जाए पर सेल खत्म न हो!’
‘सच!’
‘आपकी कसम मां ! अपनी तो आंखें बाजार की चकाचैंध से अभी भी फूट रही हैं। यकीन न हो तो खुद ही मेरी आंखें चेक कर लो।’
‘ तब तो जल्दी चलो मेरे साथ बाजार चलो, अभी के अभी। सोच रही हूं कि जनता में बांटने के बाद जो बचा है उसका अपने लिए भी सेल के बचे माल में से कुछ लेती चलूं।’
‘ तो मेरा क्या होगा मां?’
‘मेरे पास पैसे बचेंगे तो तुम भी कुछ और लेना।’
अशोक गौतम,