सत्याचार और ईश्वरोपासना ईश्वर के प्रति हमारे दो प्रमुख कर्तव्य

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मनमोहन कुमार आर्य

हम मननशील होने से मनुष्य कहे जाते हैं। मननशील का मुख्य गुण सोच विचार वा चिन्तन-मनन करना होता है। हम सभी मनुष्य मनन व चिन्तन करते ही हैं। मनुष्य को दो प्रकार का  ज्ञान होता है। एक स्वाभाविक ज्ञान और दूसरा नैमित्तिक ज्ञान। स्वाभाविक ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता वह सबमे जन्म के समय से स्वभावतः होता है। नैमित्तिक ज्ञान वो है जो हमें माता-पिता, आचार्य, शिक्षक, वेद व ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों के अध्ययन व चिन्तन-मनन से प्राप्त होता है। नैमित्तिक ज्ञान प्राप्त करना होता है जबकि स्वाभाविक ज्ञान प्राप्त नहीं करना होता। नैमित्तिक ज्ञान जो मनुष्य जिस विषय में जितना प्रयत्न करता है उसके अनुरूप ही उसे प्राप्त होता है। वेदों को पढ़कर व मनन कर जो ज्ञान प्राप्त होता है वह विज्ञान व अन्य पुस्तकें पढ़कर प्राप्त नहीं हो सकता। वेद ज्ञान प्रमुख ज्ञान इसलिए है कि इसमें सृष्टिकर्ता ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के जड़स्वरूप व उसकी विभिन्न स्थितियों सहित कर्मफल व जीवन-मृत्यु का ज्ञान प्राप्त होता है जबकि अन्य ज्ञान महत्वपूर्ण तो हैं परन्तु वेद ज्ञान वा आध्यात्मिक ज्ञान की तुलना में हेय हैं।

 

ऋषियों ने वेदों का अपनी अपनी बुद्धि से मंथन कर बताया है कि ‘सत्यं वद, धर्म चर’ जीवन में आवश्यक व महत्वपूर्ण हैं। सत्यं वद का अर्थ है कि जो ज्ञान हमारी आत्मा में जैसा है उसे वैसा ही वर्णन करना व बोलना तथा व्यवहार में लाना। यदि हम आत्मा में ज्ञान के विपरीत आचरण करते हैं व मुंह से बोलते हैं तो वह ‘सत्यं वद धर्म चर’ नहीं कहलाता। सत्य बोलना व उसी के अनुरूप आचरण करना ही धर्म कहलाता है और तदुनरूप वाणी व कर्म से व्यवहार, यही मनुष्य का धर्म होता है। संसार में हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन व बौद्ध आदि धर्म नहीं अपितु मत व पंथ हैं। इसलिये की यह अपनी अपनी पुस्तकों में लिखी बातों को ही मानते हैं, उनकी सत्यता व असत्यता की जांच कर और उसे सत्य पाने पर ही उसका व्यवहार नहीं करते। पूर्ण सत्य ज्ञान का संसार में एक ही पुस्तक है जिसे वेद कहा जाता है। वेद के अनुकुल मान्यतायें व सिद्धान्त ही धर्म कहे जाते हैं तथा इसके विपरीत व विरुद्ध मान्यतायें धर्म नहीं होती। ऋषि दयानन्द ने वेदेतर मतों की सभी पुस्तकों की मान्यताओं की वेद के परिप्रेक्ष्य में समीक्षा व परीक्षा की है और पाया है कि सभी पुस्तकों में असत्य भी पर्याप्त मात्रा में विद्यमान है। वेद इसलिए सत्य हैं क्योकि यह इस सृष्टि को बनाने वाले साक्षात ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरम्भ में प्रदत्त ज्ञान है। वेद में कोई बात युक्ति व तर्क विरुद्ध नहीं है। सभी बातें सृष्टिक्रम व विज्ञान के अनुकूल हैं। वेद की कसौटी पर कसी मान्यता व सिद्धान्त ही धर्म कहलाता है। वेद से इतर व इसके विपरीत कोई मान्यता धर्म नहीं कही जा सकती। अतः समस्त वैदिक मान्यताओं का आचरण व व्यवहार में उनका उपयोग धर्म होता है। सत्याचार में वेदों का आचरण समाहित हो जाता है। सभी मनुष्यों को मत व पंथ से ऊपर उठकर वेदों के विचारों को जानना और अपनाना चाहिये। ऐसा करने से व्यक्तिगत रूप से सभी मनुष्यों को लाभ होगा और समाज, देश व विश्व में वेदों के प्रचार व आचरण होने से सुख व शान्ति की प्राप्ति होने से लाभ होगा। वेद पर विश्वास करने से लोगों में ज्ञानोत्पत्ति से परस्पर की कलह व विरोध समाप्त हो जाता है और वह परस्पर एक दूसरे मित्र व सहयोगी बन जाते हैं। यदि आप रामायण व महाभारत से विरोध व कलह के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं तो इसका उत्तर है कि वहां एक पक्ष वेद की मान्यताओं के विरोध में था जिनका पराभव वेद के मानने वाले पक्ष ने किया। इसे सत्यमेव जयते के रूप में भी देखा जा सकता है। अतः सत्याचरण ही धर्म है और असत्य का आचरण व व्यवहार ही अधर्म है और समाज को सुव्यवस्थित रखने में धर्म, सत्य व वेदाचरण का सर्वाधिक महत्व है अन्यथा परस्पर ईर्ष्या, द्वेष व कलह होने से अशान्ति बनती है जिसे समाप्त नहीं किया जा सकता।

 

सत्याचार के बाद ईश्वरोपासना मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य है। यह मनुष्यों को कृतघ्नता के दोष से बचाता है। कृतघ्नता कैसे? इसका उत्तर है कि यह संसार अपने आप नहीं बन सकता। मनुष्य भी अपने आप स्वयं को उत्पन्न नहीं कर सकते। इन्हें उत्पन्न करने वाला ईश्वर है। सृष्टि के जड़ होने के कारण वह तो परमात्मा के अधीन है। प्रकृति वा सृष्टि चेतन तत्व न होने के कारण उसका कोई कर्तव्य निश्चित नहीं होता। मनुष्य में चेतन आत्मा होता है। परमात्मा ने यह संसार मनुष्यों के सुख भोग के लिए बनाया है। इस हेतु से उन्हें मनुष्यादि शरीर प्राप्त हुए हैं जो पूर्व जन्म के कर्मानुसार प्राप्त होते हैं। ईश्वर की इस कृपा व दया के लिए मनुष्य का कर्तव्य बनता है कि वह उसका धन्यवाद करने के लिए उपासना करे। बच्चे माता पिता के साथ रहते हैं और उनकी उपासना करते हैं। उनको नमस्ते करते हैं व उन्हें माता जी व पिता जी कह कर प्रसन्न करते हैं। उनकी आज्ञा पालन करते हैं। हमेशा विनयशील होने से माता पिता प्रसन्न होकर उन्हें सुख प्रदान करने, अच्छा भोजन व विद्यादान का प्रबन्ध व व्यवस्था करते हैं। इसी प्रकार से सभी मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह अपने प्रमुख जन्मदाता ईश्वर व गौण जन्मदाता माता-पिता व विद्या देने वाले आचार्य की भक्ति व उपासना तन, मन व धन से करें अर्थात् वेदों में जो ईश्वर की आज्ञायें हैं उनका कर्तव्य भाव से पालन करे। ईश्वर की उपासना में मुख्यतः वेदाध्ययन कर ईश्वर व जीवात्मा आदि के स्वरूप को जानना होता है। ईश्वर व स्वरूप को जानकर आत्मायुक्त मन से ईश्वर का ध्यान, चिन्तन व विचार, जप, तप, सद्कर्मों का सेवन, परोपकार, विद्या व धन का सुपात्रों को दान तथा यज्ञ-अग्निहोत्र आदि करने से उपासना होती है। यदि ऐसा करते हैं तो हम ईश्वर के भक्त व उपासक कहलाते हैं अन्यथा कृतघ्न कहलाते हैं। ईश्वरोपासना करने वाला व्यक्ति अपने इस गुण व सत्याचार से ईश्वर की कृपा व आशीर्वादों का अधिकारी व पात्र बन जाता है। उसको यथासमय ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार होता है और वह जीवनमुक्त हो जाता है। मृत्यु के बाद ऐसे उपासक व भक्त की मृत्यु होने पर वह जन्ममरण से छूट कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है जो सबसे श्रेष्ठ धन, श्रेष्ठ सुख व परम-आनन्द की अवस्था होती है। इसकी प्राप्ति के लिए ही विद्वान, योगी व ऋषि आदि वेदाध्ययन, वेदाचारण, ईश्वरोपासना, सत्याचरण आदि करते हैं।

 

उपर्युक्त लेख में हमने मनुष्य के दो प्रमुख कर्तव्यों सत्याचरण व ईश्वरोपासना की चर्चा की है। इन दोनों कार्यों को करने से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अतः यही संसार के सभी मनुष्यों के मुख्य व परम कर्तव्य हैं। इतर कर्तव्य गौण हैं। इन दोनों मुख्य कर्तव्यों को पूरा करने से अन्य सभी कर्तव्य भी उचित प्रकार से मनुष्य पूरा करने में समर्थ होता है। यह भी निवेदन करना उचित होगा कि सत्यासत्य का विवेक करने के लिए सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का बार बार अध्ययन करना चाहिये। इससे विवेक उत्पन्न होता है। ईश्वर व जीवात्मा का ज्ञान होता है। उपासना में मनुष्य प्रवृत्त होता है। वेदाध्ययन से मनुष्य स्वाभाविक रूप से सत्याचारयुक्त जीवन व्यतीत करता है। मोक्ष प्राप्ति पर यह फलीभूत होता है। अतः सभी मनुष्यों को इस पर विशेष ध्यान देना चाहिये। ओ३म् शम्।

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