सत्यासत्य तथा धर्माधर्म से परिचित कराने वाला एकमात्र ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश है

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-मनमोहन कुमार आर्य

               मनुष्य के जीवन का उद्देश्य सत्य असत्य को जानना तथा सत्य का आचरण एवं असत्य का त्याग करना है। संसार के मनुष्यों पर दृष्टि डालते हैं तो वह शिक्षित अशिक्षित तो दृष्टिगोचर होते हैं परन्तु उन सबको देखकर यह नहीं कह सकते कि वह सब सत्य असत्य से परिचित हैं और सत्य धर्म का आचरण तथा असत्य अधर्म का त्याग करने वाले हैं। महाभारत युद्ध के बाद देश व विश्व में ऋषि दयानन्द ही ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का अनुसंधान कर सत्य को प्राप्त किया था। उनको सत्य की उपलब्धि ऋषि ग्रन्थों सहित इन ग्रन्थों के आदि स्रोत चार वेदों में प्राप्त हुई। वेदों की परीक्षा करने पर वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि वेद स्वतः प्रमाण है। वेद के समान स्वतः प्रमाण ग्रन्थ संसार में दूसरा कोई नहीं है। संसार का रचयिता ईश्वर सृष्टि के आरम्भ में ही मनुष्यों को वेदों का ज्ञान देता है। यह ज्ञान अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार अत्यन्त पवित्रात्मा ऋषियों को मिलता है जो इस ज्ञान को ब्रह्मा जी नाम के ऋषि को देकर उनका सहयोग कर उसे प्रचारित व प्रसारित करते हैं। वर्तमान में उपलब्ध वेदों का ज्ञान वही ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने ऋषियों को दिया था। इसके बाद परमात्मा ने अपने किसी दूत व पुत्र को वेदों के समान ज्ञान नहीं दिया। वेदों के होते हुए पुनः उस ज्ञान को देने की आवश्यकता थी ही नहीं। जो धर्माधर्म की पुस्तकें महाभारत के बाद विगत पांच हजार वर्षों में अस्तित्व में आई हैं वह ईश्वरीय ज्ञान कदापि नहीं कही जा सकती। यह वेदों के प्रमाणिक विद्वान ऋषि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की मान्यता है।

               सृष्टि की प्रलय तक हमें वेदों को ही सम्भाल कर रखना होगा। इसी से हम ईश्वर आत्मा को जानने सहित ईश्वर की उपासना तथा मोक्ष प्राप्ति के साधनों को जानकर अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। यदि मनुष्य जाति ने वेदों की उपेक्षा की तो वह सृष्टि की शेष अवधि के लिये वेदों से वंचित हो जायेगी जिसका अर्थ होगा पूरे विश्व में अज्ञान अन्धकार की उत्पत्ति और मनुष्य जाति को नाना प्रकार के दुःखों का भोग करना। ऐसा कोई मनुष्य नहीं चाहेगा। इसके लिये सभी मतों के लोगों को अपने क्षुद्र स्वार्थों का त्याग कर परस्पर मिलकर सत्य और असत्य का निर्णय करना होगा और वैज्ञानिकों की भांति सत्य मत विचारों को स्वीकार करना होगा। हम आर्यों व सत्य से प्रेम रखने वाले सभी लोगों को वेदों के महत्व को जानना व समझना होगा व इसकी रक्षा एवं इसके सत्य अर्थों का अनुसंधान कर उनका जन-जन में प्रचार व प्रसार करना होगा। इसी से वर्तमान मनुष्य जाति व भविष्य की सन्ततियों का जीवन सुखद एवं कल्याणप्रद हो सकता है। हमें प्रतिदिन ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये कि वह हमें शक्ति दे जिससे हम वेदों की रक्षा एवं उसके प्रचार में कृतकार्य हो सकें। ऋषि दयानन्द ने इन सब बातों को जानकर समझकर ही आर्यसमाज के तीसरे नियम में विधान किया है वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़नापढ़ाना और सुननासुनाना सब आर्यों (गुण, कर्म स्वभाव में श्रेष्ठ मनुष्यों आर्यसमाज के अनुयायियों) का परम धर्म है। वेदों का प्रचार कैसे करना है इसका एक उपाय सत्यार्थप्रकाश का जन-जन में वितरण एवं सबको इसे पढ़ने की प्रेरणा सहित सबको वेदों के ऋषि दयानन्द एवं आर्य विद्वानों के वेदभाष्यों का स्वाध्याय एवं अध्ययन करने की प्रेरणा करना है। स्वाध्याय से रहित जीवन मनुष्य को उन्नति की ओर न ले जाकर पतन व अवनति की ओर ही ले जाता है। अतः सबको स्वाध्याय अवश्य ही करना चाहिये।

               ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का प्रणयन प्रथम सन् 1874 में किया था। इसे आदिम सत्यार्थप्रकाश के नाम से जानते हैं। यह ग्रन्थ वर्तमान में भी उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ के बाद ऋषि ने सन् 1883 में इस ग्रन्थ का संशोधित संस्करण तैयार किया जो अक्टूबर, 1883 में उनकी षडयन्त्रकारियों द्वारा विष देकर मृत्यु के बाद सन् 1884 में प्रकाशित हुआ था। यही संस्करण वर्तमान में प्रचलित है। इस ग्रन्थ को ऋषि दयानन्द द्वारा पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्ध नाम से दो भागों में बनाया है। पूर्वार्द्ध में दस समुल्लास हैं जिनमें वैदिक मत का सत्यस्वरूप प्रकाशित किया गया है। ग्रन्थ में बीच-बीच में मनुष्य के मन में उठने वाली शंकाओं व प्रश्नों को प्रस्तुत कर उनका समाधान भी किया गया है। प्रश्न ऐसे हैं कि पढ़ने वाला पढ़कर अवाक् रह जाता है। यह शंकायें ऐसी हैं जो प्रौढ़ विद्वानों के मन व मस्तिष्क में ही उठने की सम्भावना होती है। ऐसी सभी शंकाओं एवं प्रश्नों का समाधान ऋषि दयानन्द ने अपनी दूरदृष्टि एवं चिन्तन प्रणाली से कर दिया है। सत्यार्थप्रकाश का स्वाध्याय करने वाले मनुष्य के मन में ऐसा कोई प्रश्न नही बचता जिसका उसे सत्यार्थप्रकाश पढ़ने पर उत्तर न मिलता हो। यही कारण है कि सभी मतों ने जो राग, द्वेष एवं पक्षपात से रहित थे, सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करने पर स्वमत का त्याग कर वैदिक मत को ग्रहण किया। यदि हम स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम तथा महाशय राजपाल जी आदि अनेक आर्यपुरुषों के जीवन एवं कृतित्व पर विचार करते हैं तो हमें विदित होता है कि इन ऋषि अनुयायियों ने जो अपने जीवनों का बलिदान दिया है, वह बलिदान सत्यार्थप्रकाश में निहित सत्य वैदिक मान्यताओं की रक्षा के लिए दिया गया बलिदान था।

               सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्ध में चार समुल्लास हैं। इन समुल्लासों में आर्यावर्तीय देश के मत-मतान्तरों, बारहवें समुल्लास में बौद्ध एवं जैन नास्तिक मतों तथा तेरहवें एवं चैदहवें समुल्लासों में ईसाई एवं इस्लाम मत की युक्ति एवं तर्कपूर्वक सत्यासत्य परीक्षा एवं समीक्षा की गई है। इससे पाठक इन मतों के यथार्थ स्वरूप के संबंध में विचार बना सकता है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर मनुष्य की तर्क शक्ति में वृद्धि होती है। वैदिक मत के उन सत्य पक्षों जिससे मनुष्य अनभिज्ञ रहता है, उन्हें सत्यार्थप्रकाश में पढ़कर ज्ञान वृद्धि होने से निष्पक्ष मनुष्य इस ग्रन्थ का भक्त उसका आचरण करने वाला सत्यार्थी बन जाता है। यह भी ऋषि दयानन्द का सत्यार्थप्रकाश को लिखने का एक प्रयोजन था। बहुत से विद्वेषी लोग अपने मतों की मान्यताओं की दुर्बलता व उन्हें सत्य की कसौटी पर सत्य सिद्ध न कर सकने के कारण सत्यार्थप्रकाश से द्वेष करते हैं। ऐसा करके वह अपनी ही हानि करते हैं। इसका कारण यह है कि सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग करना मनुष्य का कर्तव्य ही नहीं अपितु धर्म है। इसी सिद्धान्त से प्रेरित होकर ऋषि दयानन्द ने अपना जीवन वैदिक सत्य मान्यताओं के प्रचार व प्रसार में लगाया तथा सद्ग्रन्थों की रचना की। उन्होंने ऐसे ग्रन्थों की रचना की जिसकी मनुष्य जाति को आवश्यकता थी परन्तु वह महाभारत के बाद से किसी विद्वान द्वारा रचे नहीं गये थे। यह भी कह सकते हैं कि महाभारत काल के बाद वह योग्यता किसी मनुष्य, विद्वान अथवा महापुरुष में नहीं थी जो ऋषि दयानन्द में थी। इसी कारण ऋषि दयानन्द अभूतकार्य कर सके जिससे युगों युगों तक मनुष्य जाति लाभान्वित होती रहेगी।

               सत्य की परिभाषा ऋषि ग्रन्थों में यह मिलती है कि जो पदार्थ जैसा है उसका वैसा ही वर्णन करना सत्य कहलाता है। यदि पदार्थ के यथार्थ गुण, कर्म व स्वभाव के विपरीत वर्णन किया जाये तो वह असत्य होता है। ऋषि ने इस नियम का पालन अपने ग्रन्थों में सर्वत्र किया है। इसे सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर जाना जा सकता है। मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में इस नियम का पूर्णतः पालन नहीं मिलता। सभी मतों में अविद्या व अज्ञानयुक्त बातें व कहानी किस्से हैं। इससे यह विदित होता है कि वह मत ईश्वर की प्रेरणा से नहीं अपितु उन-उन मत के आचार्यों की अल्पज्ञ बुद्धि व सीमित ज्ञान के कारण है। वेदों का रचयिता कोई मनुष्य वा ऋषि नहीं है। परम्परा से यही ज्ञात होता है कि वेद ईश्वर के द्वारा आदि चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा की आत्मा में ईश्वर की प्रेरणा से प्रादूर्भूत हुए। वेदों में निहित जो ज्ञान है वह मानव की बुद्धि रच भी नहीं सकती। वेदों में ज्ञान के स्तर भाषा शैली के आधार पर यही निश्चय होता है कि वेदों की भाषा सहित ज्ञान की उच्च बातें जो ज्ञान विज्ञान की कसौटी पर सर्वथा सत्य एवं प्रमाणित हैं, इस कारण से वेद मनुष्यकृत ज्ञान होकर ईश्वर द्वारा प्रेरित ऋषियों को ईश्वर से प्राप्त ज्ञान है। वेद विषयक सभी तथ्यों को ऋषि दयानन्द द्वारा अनुसंधान एवं गहरी जांच पड़ताल करने के पश्चात उनकी युक्ति व तर्क की कसौटी पर परीक्षा कर तथा उनके विश्वसनीय स्वरूप को प्राप्त कर लेने पर ही सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत किया है। सत्यार्थप्रकाश सत्य मान्यताओं व सत्य सिद्धान्तों का ग्रन्थ है जिसमें ईश्वर से प्राप्त चार वेदों के ज्ञान को व उस वेदज्ञान के आधार पर ईश्वर, जीवात्मा, उपासना, मनुष्य जीवन के कर्तव्य-कर्मों तथा सामाजिक नियमों सहित राजधर्म, भक्ष्याभक्ष्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम आदि का वर्णन किया गया है।

               मनुष्य को मनुष्य मनन करने के कारण कहते हैं। मनन का अर्थ ही सत्य असत्य पर विचार करना, सत्य को ग्रहण करना तथा असत्य का त्याग करना है। मनुष्य का धर्म केवल और केवल सत्य का अनुसंधान एवं सत्य का आचरण करना है। वर्तमान में जो धर्म प्रचलित हैं वह धर्म होकर मत हैं जिन्हें उन मतों के किसी आचार्य ने अतीत में अपने ज्ञान किसी प्रयोजन से प्रचारित पोषित किया। मनुष्य अल्पज्ञ होता है। उसके ज्ञान व कर्मों में पूर्णता न होकर अपूर्णता होती है। इसी कारण से सभी मतों में अविद्या पायी जाती है। इस अविद्या का ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में विस्तार से उल्लेख कर दिग्दर्शन कराया है। मनुष्य का परम धर्म तो वेदों को पढ़ना पढ़ाना तथा सुनना सुनाना है। इसका अर्थ यह है कि स्वयं वेद पढ़ कर उसके सत्य अर्थों को समझ कर उनका जनजन में प्रचार करना मनुष्य का परम धर्म है। अद्यावधि किसी मत को कोई आचार्य वा अनुयायी वेदों के किसी सिद्धान्त का युक्ति व तर्क के आधार पर खण्डन नहीं कर पाये। वैज्ञानिक भी वेदों के किसी सिद्धान्त का खण्डन नहीं कर पाये है। अतः वेद ही एकमात्र सच्चा धर्म है। सत्यार्थप्रकाश वेद का प्रतिनिधि पोषक है। संसार के प्रत्येक व्यक्ति को सत्य के निर्णयार्थ सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने सत्य को ग्रहण करने से ही मनुष्य मनुष्य बनता है और उसका लोक परलोक दोनों सुधरते उन्नति को प्राप्त होते हैं। वस्तुतः सत्यार्थप्रकाश ही वेदों के बाद मनुष्य का धर्म ग्रन्थ है। इति ओ३म् शम्। 

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